उपनिषदों का रहस्य – वेदों का अंतिम भाग और वैदिक दर्शन का सार

उपनिषद | Upnishads Hindi

उपनिषद् (Upnishad in Hindi) हिन्दू धर्म के महत्त्वपूर्ण श्रुति धर्मग्रन्थ हैं। उपनिषद् (Upnishads) वैदिक वांग्मय के अभिन्न भाग हैं। इनमें परमेश्वर, परमात्मा-ब्रह्म और आत्मा के स्वभाव और सम्बन्ध का बहुत ही दार्शनिक और ज्ञानपूर्वक वर्णन दिया गया है। उपनिषद ही समस्त भारतीय दर्शनों के मूल स्त्रोत हैं, चाहे वो वेदान्त हो या सांख्य या जैन धर्म या बौद्ध धर्म । उपनिषदों को स्वयं भी वेदान्त कहा गया है। दुनिया के कई दार्शनिक उपनिषदों को सबसे बेहतरीन ज्ञानकोश मानते हैं। उपनिषद् भारतीय सभ्यता की विश्व को अमूल्य धरोहर है। ये संस्कृत में लिखे गये हैं। उपनिषद वेदों के अत्यन्त दार्शनिक भाग हैं। चूंकि ये वेदों के अंतिम भाग हैं इसीलिए इन्हे वेदों का सार भी कहा जा सकता है। उपनिषदों को वेदान्त भी कहते हैं, जिसका अर्थ है वेदों का अंतिम भाग ।

आत्मज्ञान, योग, ध्यान, दर्शन आदि वेदों में निहित सिद्धांत तथा उन पर किये गये शास्त्रार्थ (सही रूप से समझने या समझाने के लिये प्रश्न एवं तर्क करना) के संग्रह को उपनिषद कहा जाता है। भारतीय-संस्कृति की प्राचीनतम एवं अनुपम धरोहर के रूप में वेदों का नाम आता है। मनीषियों ने ‘वेद’ को ईश्वरीय ‘बोध’ अथवा ‘ज्ञान’ के रूप में पहचाना है। विद्वानों ने उपनिषदों को वेदों का अन्तिम भाष्य ‘वेदान्त’ का नाम दिया है। उपनिषद ब्रह्मज्ञान के ग्रन्थ हैं। वेद का वह भाग जिसमें विशुद्ध रीति से आध्यात्मिक चिन्तन को ही प्रधानता दी गयी है और फल सम्बन्धी कर्मों के दृढानुराग को शिथिल करना सुझाया गया है, ‘उपनिषद’ कहलाता है। मुख्य उपनिषद 12 या 13 हैं। सभी किसी न किसी वेद से जुड़े हुए है ।

उपनिषद शब्द का अर्थ : Meaning of Upnishad Word

  •  उपनिषद् शब्द का साधारण अर्थ है – ‘समीप उपवेशन’ या ‘समीप बैठना (ब्रह्म विद्या की प्राप्ति के लिए शिष्य का गुरु के पास बैठना)। यह शब्द ‘उप’, ‘नि’ उपसर्ग तथा, ‘सद्’ धातु से निष्पन्न हुआ है। सद् धातु के तीन अर्थ हैं: विवरण-नाश होना; गति-पाना या जानना तथा अवसादन-शिथिल होना  इसका अर्थ यह है कि जिस विद्या से परब्रह्म, अर्थात ईश्वर का सामीप्य प्राप्त हो, उसके साथ तादात्म्य स्थापित हो,वह विद्या ‘उपनिषद’ कहलाती है।
  •  उपनिषद में ‘सद’ धातु के तीन अर्थ और भी हैं – विनाश, गति, अर्थात ज्ञान -प्राप्ति और शिथिल करना। इस प्रकार उपनिषद का अर्थ हुआ-‘जो ज्ञान पाप का नाश करे, सच्चा ज्ञान प्राप्त कराये, आत्मा के रहस्य को समझाये तथा अज्ञान को शिथिल करे, वह उपनिषद है। उपनिषद् में ऋषि और शिष्य के बीच बहुत सुन्दर और गूढ संवाद है जो पाठक को वेद के मर्म तक पहुंचाता है।
  • अष्टाध्यायी में उपनिषद शब्द को परोक्ष या रहस्य के अर्थ में प्रयुक्त किया गया है।
  •  कौटिल्य के अर्थशास्त्र में युद्ध के गुप्त संकेतों की चर्चा में ‘औपनिषद’ शब्द का प्रयोग किया गया है। इससे यह भाव प्रकट होता है कि उपनिषद का तात्पर्य रहस्यमय ज्ञान से है।
  •  अमरकोष उपनिषद के विषय में कहा गया है-उपनिषद शब्द धर्म के गूढ़ रहस्यों को जानने के लिए प्रयुक्त होता है।
  • विद्वानों ने ‘उपनिषद’ शब्द की व्युत्पत्ति ‘उप’+’नि’+’सद’ के रूप में मानी है। इनका अर्थ यही है कि जो ज्ञान व्यवधान-रहित होकर निकट आये, जो ज्ञान विशिष्ट और सम्पूर्ण हो तथा जो ज्ञान सच्चा हो, वह निश्चित रूप से उपनिषद ज्ञान कहलाता है। मूल भाव यही है कि जिस ज्ञान के द्वारा ‘ब्रह्म’ से साक्षात्कार किया जा सके, वही ‘उपनिषद’ है। इसे अध्यात्म-विद्या भी कहा जाता है।

उपनिषदों के स्त्रोत, उनकी संख्या एवं उनका वर्गीकरण :

प्रायः उपनिषद वेदों के मन्त्र भाग, ब्राह्मण ग्रन्थ, आरण्यक ग्रन्थ आदि से सम्बन्धित हैं। कतिपय उत्तर वैदिककाल के ॠषियों द्वारा अस्तित्व में आये हैं, जिनका स्वतन्त्र अस्तित्व है।

‘मुक्तिकोपनिषद’ में,(श्लोक संख्या 30 से 39 तक) 108 उपनिषदों की सूची दी गयी है। इन 108 उपनिषदों में से—

‘ॠग्वेद’ के 10 उपनिषद है।

‘शुक्ल यजुर्वेद‘ के 19 उपनिषद हैं।

‘कृष्ण यजुर्वेद’ के 32 उपनिषद हैं।

‘सामवेद’ के 16 उपनिषद हैं।

‘अथर्ववेद’ के 31 उपनिषद हैं।

‘मुक्तिकोपनिषद’ में चारों वेदों की शाखाओं की संख्या भी दी है और प्रत्येक शाखा का एक-एक उपनिषद होना बताया है। इस प्रकार चारों वेदों की अनेक शाखाएं है और उन शाखाओं की उपनिषदें भी अनेक हैं। विद्वानों ने ॠग्वेद की इक्कीस शाखाएं, यजुर्वेद की एक सौ नौ शाखाएं, सामवेद की एक हज़ार शाखाएं तथा अथर्ववेद की पचास हज़ार शाखाओं का उल्लेख किया हैं। इस दृष्टि से तो सभी वेदों की शाखाओं के अनुसार 1,180 उपनिषदें होनी चाहिए, परन्तु प्रायः 108 उपनिषदों का उल्लेख प्राप्त होता है। इनमें भी कुछ उपनिषद तो अत्यन्त लघु हैं। इनके अतिरिक्त नारायण, नृसिंह, रामतापनी तथा गोपाल चार उपनिषद् और हैं। १०८ उपनिषदों में से प्रथम १० को मुख्य उपनिषद कहा जाता है; २१ उपनिषदों को सामान्य वेदांत , २३ उपनिषदों को सन्यास, ९ को शाक्त, १३ को वैष्णव , १४ को शैव तथा १७ उपनिषदों को योग उपनिषद की संज्ञा दी गयी है। Vedas in Hindi

मुख्य उपनिषद :

विषय की गम्भीरता तथा विवेचन की विशदता के कारण १३ उपनिषद् विशेष मान्य तथा प्राचीन माने जाते हैं।

जगद्गुरु आदि शंकराचार्य ने १० पर अपना भाष्य दिया है :-

(१) ईश – शुक्ल यजुर्वेद, (२) ऐतरेय  – ऋग्वेद (३) कठ – कृष्ण यजुर्वेद (४) केन – सामवेद (५) छांदोग्य  – सामवेद (६) प्रश्न  – अथर्ववेद (७) तैत्तिरीय  – कृष्ण यजुर्वेद (८) बृहदारण्यक  – शुक्ल यजुर्वेद (९) मांडूक्य  – अथर्ववेद और (१०) मुंडक  – अथर्ववेद ।

उन्होने निम्न तीन को प्रमाण कोटि में रखा है-

(१) श्वेताश्वतर (२) कौषीतकि तथा (३) मैत्रायणी।

अन्य उपनिषद् तत्तद् देवता विषयक होने के कारण ‘तांत्रिक’ माने जाते हैं। ऐसे उपनिषदों में शैव, शाक्त, वैष्णव तथा योग विषयक उपनिषदों की प्रधान गणना है।

भाषा तथा उपनिषदों के विकास क्रम के आधार पर :

भाषा तथा उपनिषदों के विकास क्रम की दृष्टि से उनका विभाजन चार स्तर में किया है:

१. गद्यात्मक उपनिषद्

१. ऐतरेय, २. केन, ३. छांदोग्य, ४. तैत्तिरीय, ५. बृहदारण्यक तथा ६. कौषीतकि;

इनका गद्य ब्राह्मणों के गद्य के समान सरल, लघुकाय तथा प्राचीन है।

२.पद्यात्मक उपनिषद्

१.ईश, २.कठ, ३. श्वेताश्वतर तथा नारायण

इनका पद्य वैदिक मंत्रों के अनुरूप सरल, प्राचीन तथा सुबोध है।

३.अवांतर गद्योपनिषद्

१.प्रश्न, २.मैत्री (मैत्रायणी) तथा ३.मांडूक्य

४.आथर्वण (अर्थात् कर्मकाण्डी) उपनिषद्

अन्य अवांतरकालीन उपनिषदों की गणना इस श्रेणी में की जाती है।

आध्यात्मिक चिंतन की अमूल्य निधि :

उपनिषद भारतीय आध्यात्मिक चिंतन के मूलाधार है, भारतीय आध्यात्मिक दर्शन स्त्रोत हैं। वे ब्रह्मविद्या हैं। जिज्ञासाओं के ऋषियों द्वारा खोजे हुए उत्तर हैं। वे चिंतनशील ऋषियों की ज्ञानचर्चाओं का सार हैं। वे कवि-हृदय ऋषियों की काव्यमय आध्यात्मिक रचनाएँ हैं, अज्ञात की खोज के प्रयास हैं, वर्णनातीत परमशक्ति को शब्दों में बाँधने की कोशिशें हैं और उस निराकार, निर्विकार, असीम, अपार को अंतर्दृष्टि से समझने और परिभाषित करने की अदम्य आकांक्षा के लेखबद्ध विवरण हैं

उपनिषदों का महत्व :

उपनिषदों में ॠषियों ने अपने जीवन-पर्यन्त अनुभवों का निचोड़ डाला है। इसी कारण विश्व साहित्य में उपनिषदों का महत्व सर्वोपरि स्वीकार किया गया है।जीवन के सभी विचार और चिन्तन बेमानी सिद्ध हो सकते हैं, किन्तु जीव और परमात्मा के मिलन के लिए किया गया अध्यात्मिक चिब्तब कभी बेमानी नहीं हो सकता। वह शाश्वत है, सनातन है और जीवन के महानतम लक्ष्य पर पहुंचाने वाला सारथि है। जिस प्रकार महाभारत में कृष्ण ने अर्जुन के लिए सारथि का कार्य सम्पन्न किया था, उसी प्रकार जन-जन के लिए उपनिषदों ने यह महान का कार्य सम्पन्न किया है। वह आलोक है, जो समस्त मानवता के अज्ञानपूर्ण अन्धकार को दूर करने के लिए ॠषियों द्वारा अवतरित कराया गया है। इसीलिए उपनिषदों का महत्व, सर्व-कल्याण का श्रेष्ठतम प्रतीक है।

उपनिषद गूढ़ भाषा में है और इनको समझना कठिन है, क्योंकि हमारा मस्तिष्क और मन बाह्या वस्तुओं को ही पहचान पाता है, संवेदन अंगो के द्वरा ग्रहन किया जा सकने वाला अनुभव ही मस्तिस्क में दर्ज़ होता है और वही हम समझ पाते है और इसी वजह से उपनिषदों को समझना भी मुश्किल होता है क्योंकि उपनिषद ईश्वर के बारे में कुछ नही कहते, ना ही शैतान के बारे में ना ही स्वर्ग, ना ही नरक के बारे में | उपनिषद बात करते है स्वयं की चेतना के बारे में जिसे हम आत्मा भी कहते है जो की समझने में बेहद मुश्किल है, इसलिये उपनिषदों को समझना भी मुश्किल लगता है |

1) ईशावास्योपनिषद  | Ishawasyopanisd in Hindi

यह शुक्ल यजुर्वेद का चालीसवां अध्याय है, जिसे ‘ईशावास्योपनिषद’ कहा गया है। उपनिषद शृंखला में इसे प्रथम स्थान प्राप्त है। इस उपनिषद में ईश्वर के गुणों का वर्णन है, अधर्म त्याग का उपदेश है। सभी कालों में सत्कार्मों को करने की आवश्यकता पर बल दिया गया है। परमेश्वर के अतिसूक्ष्म स्वरूप का वर्णन इस उपनिषद में दिया गया है। सभी प्राणियों में ‘आत्मा’ को परमात्मा का अंश जानकर अंहिसा की शिक्षा दी गयी है। समाधि द्वारा परमेश्वर को अपने अन्त:करण में जानने और शरीर की नश्वरता का उल्लेख किया गया है।

प्रथम मन्त्र में ही जीवन और जगत को ईश्वर का आवास कहा गया है। ‘यह किसका धन है?’ प्रश्न द्वारा ऋषि ने मनुष्य को सभी सम्पदाओं के अहंकार का त्याग करने का सूत्र दिया है। इससे आगे लम्बी आयु, बन्धनमुक्त कर्म, अनुशासन और शरीर के नश्वर होने का बोध कराया गया है।

यहाँ जो कुछ है, परमात्मा का है, यहाँ जो कुछ भी है, सब ईश्वर का है। हमारा यहाँ कुछ नहीं है-

ईशावास्यमिदम् सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत। तेनत्येक्तेन भुञ्जीथा मा गृध: कस्य स्विद्धनम॥1

यहाँ इस जगत में सौ वर्ष तक कर्म करते हुए जीने की इच्छा करनी चाहिए-

कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छत्ँ समा:

एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति कर्म लिप्यते नरे॥2

अविचल परमात्मा एक ही है। वह मन से भी अधिक वेगवान है। वह दूर भी है और निकट भी है। वह जड़-चेतन सभी में सूक्ष्म रूप में स्थित है। जो ऐसा मानता है, वह कभी भ्रमित नहीं होता। वह शोक-मोह से दूर हो जाता है।

परमात्मा सर्वव्यापी है। वह परमात्मा देह-रहित, स्नायु-रहित और छिद्र-रहित है। वह शुद्ध और निष्पाप है। वह सर्वजयी है और स्वयं ही अपने आपको विविध रूपों में अभिव्यक्त करता है। ज्ञान के द्वारा ही उसे जाना जा सकता है। मृत्यु-भय से मुक्ति पाकर उपयुक्त निर्माण कला से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है। उस परमात्मा का मुख सोने के चमकदार पात्र से ढका हुआ है-

हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्।

तत्त्वं पूषन्नपातृणु सत्यधर्माय दृष्टये॥15

इसका अर्थ यही है कि परब्रह्म सूर्यमण्डल के मध्य स्थित है, किन्तु उसकी अत्यन्त प्रखर किरणों के तेज से हमारी ये भौतिक आंखें उसे नहीं देख पातीं। जो परमात्मा वहां स्थित है, वही मेरे भीतर विद्यमान है। मैं ध्यान द्वारा ही उसे देख पाता हूं। हे अग्ने! हे विश्व के अधिष्ठाता! आप कर्म-मार्गों के श्रेष्ठ ज्ञाता हैं। आप हमें पाप कर्मों से बचायें और हमें दिव्य दृष्टि प्रदान करें। यही हम बार-बार नमन करते हैं।

2) ऐतरेय उपनिषद | Aitareya Upanishad in Hindi

ऐतरेय उपनिषद एक शुक्ल ऋग्वेदीय उपनिषद है। ऋग्वेदीय ऐतरेय आरण्यक के अन्तर्गत द्वितीय आरण्यक के अध्याय 4, 5 और 6. का नाम ऐतरेयोपनिषद् है। यह उपनिषद् ब्रह्मविद्याप्रधान है।

परिचय :

भगवान् शंकराचार्य इसके ऊपर जो भाष्य लिखा है वह बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। इसके उपोद्घात-भाष्य में उन्होंने मोक्ष के हेतु का निर्णय करते हुए कर्म और कर्मसमुच्चित ज्ञानका निराकरण कर केवल ज्ञानको ही उसका एकमात्र साधन बतलाता है। फिर ज्ञानके अधिकार का निर्णय किया है और बड़े समारोह के साथ कर्मकाण्डी के अधिकार का निराकरण करते हुए संन्यासी को ही उसका अधिकारी ठहराया है। वहां वे कहते हैं कि ‘गृहस्थाश्रम्’ अपने गृहविशेषके परिग्रह का नाम है और यह कामनाओं के रहते हुए ही हो सकता है तथा ज्ञानी में कामनाओं का सर्वथा अभाव होता है। इसलिए यदि किसीप्रकार चित्तशुद्धि हो जाने से किसी को गृहस्थाश्रम में ही ज्ञान हो जाय तो भी कामनाशून्य हो जाने से अपने गृहविशेष के परिग्रह का अभाव हो जाने के कारण उसे स्वतः ही भिक्षुकत्व की प्राप्ति हो जायगी।

आचार्य का सिद्धान्त है कि जिसे आत्मतत्वकी जिज्ञासा है और जो साध्य-साधनारूप अनित्य संसार से मुक्ति होना चाहता है, वह किसी भी आश्रम में हो, उसे संसार ग्रहण करना ही चाहिये। इस सिद्धान्त के मुख्य आधार दो ही हैं-

(1) जिज्ञासु को तो इसलिये गृहत्याग करना चाहिये कि उसके लिये गृहस्थाश्रम में रहते हुए ज्ञानोपयोगीनी साधनसम्पत्तिको, उपार्जन करना कठिन है और

(2) बोधवान में कामनाओं का सर्वथा अभाव हो जाता है, इसलिये उसका गृहस्थाश्रम में रहना सम्भव नहीं है।

अतः ज्ञानोपयोगिनी साधन-सम्पत्ति को उपार्जन करना तथा कामनाओं का आभाव-ये ही गृहत्याग के मुख्य हेतु हैं। जो लोग घर में रहते हुए ही शमदमादि साधनसम्पन्न हो सकते हैं और जिन बोधवानों की निष्कामतामें अपने गृहविशेष में रहना बाधक नहीं होता वे घर में रहते हुए भी ज्ञानोपार्जन और ज्ञानरक्षा कर ही सकते हैं। वे स्वरूप से संन्यासी न होनेपर भी वस्तुतः संन्यासधर्मसम्पन्न होने के कारण आचार्य के मत का ही अनुसरण करने वाले हैं। अस्तु।

संरचना :

इस उपनिषद् में तीन अध्याय हैं। उनमें से पहले अध्याय में तीन खण्ड हैं तथा दूसरे और तीसरे अध्यायोंमें केवल एक-एक खण्ड हैं। प्रथम अध्याय में यह बतालाया गया है कि सृष्टि के आरम्भ में केवल एक आत्मा ही था, उसके अतिरिक्त और कुछ नहीं था उसने लोक-रचना के लिये ईक्षण (विचार) किया और केवल सकल्प से अम्भ, मरीचि और मर तीन लोकोंकी रचना की। इन्हें रचकर उस परमात्माने उनके लिये लोकपालोकी रचना करनेका विचार किया और जलसे ही एक पुरुष की रचनाकर उसे अवयवयुक्त किया। इस अध्याय में आत्मज्ञान के हेतुभूत वैराग्य की सिद्धिके लिये जीव की तीन अवस्थाओं का, जिन्हें प्रथम अध्यायमें ‘आवसथ’’ नामसे कहा है, वर्णन किया गया है। जीवके तीन जन्म माने गये हैं-

(1) वीर्यरूपसे माताकी कुक्षिमें प्रवेश करना,

(2) बालकरूप से उत्पन्न होना और

(3) पिताका मृत्युको प्राप्त होकर पुनः जन्म ग्रहण करना।

‘आत्मा वै पुत्रनामासि’ (कौषी) ( 2। 11)

इस श्रुति के अनुसार पिता और पुत्र का अभेद है; इसीलिये पिता के पुनर्जन्म को भी पुत्रका तृतीय जन्म बतलाया गया है। वामदेव ऋषि ने गर्भ में रहते हुए ही अपने बहुत-से जन्मों का अनुभव बतलाया था और यह कहा जाता था कि मैं लोहमय दुर्गों के समान सैकड़ों शरीर में बंदी रह चुका हूँ; किन्तु अब आत्माज्ञान हो जाने से मैं श्येन पक्षी के समान उनका भेदन कर बाहर निकल आया हूँ। ऐसा ज्ञान होने के कारण ही वामदेव ऋषि देहपात के अनन्तर अमर पद को प्राप्त हो गये थे। अतः आत्मा को भूत एवं इन्द्रिय आदि अनात्मप्रपञ्चसे सर्वथा असङ्ग अनुभव करना ही अमरत्व-प्राप्तिका एकमात्र साधन है।

इस प्रकार द्वितीय अध्यायमें आत्माज्ञान को परमपद-प्राप्तिका एकमात्र साधन बतलाकर तीसरे अध्यायमें उसी का प्रतिपादन किया गया है। वहाँ बतलाया है कि हृदय मन, संज्ञान, आज्ञान, विज्ञान, मेधा, दृष्टि, धृत, मति, मनीषा, जूति, स्मृति, संकल्प, क्रतु, असु काम एवं वश-ये सब प्रज्ञान के ही नाम हैं। यह प्रज्ञान ही ब्रह्मा, इन्द्र, प्रजापति, समस्त देवगण, पश्चमहाभूत तथा उद्विज्ज, स्वेदज अण्डज और जरायुज आदि सब प्रकार जीव-जन्तु हैं। यही हाथी, घोड़े, मनुष्य तथा सम्पूर्ण स्थावर जङ्गम जगत् है। इस प्रकार यह सारा संसार प्रज्ञानमें स्थिति है, प्रज्ञानसे ही प्रेरित होनेवाला है और स्वयं भी प्रज्ञानस्वरूप ही है, तथा प्रज्ञान ही ब्रह्म है। जो इस प्रकार जानता है वह इस लोक से उत्क्रमण कर उस परमाधाम में पहुँच समस्त कामनाओं को प्राप्त कर अमर हो जाता है।

3) कठोपनिषद | Kathopanisd in Hindi

कृष्ण यजुर्वेद शाखा का यह उपनिषद अत्यन्त महत्त्वपूर्ण उपनिषदों में है। इस उपनिषद के रचयिता कठ नाम के तपस्वी आचार्य थे। वे मुनि वैशम्पायन के शिष्य तथा यजुर्वेद की कठशाखा के प्रवृर्त्तक थे। इसमें दो अध्याय हैं और प्रत्येक अध्याय में तीन-तीन वल्लियां हैं, जिनमें वाजश्रवा-पुत्र नचिकेता और यम के बीच संवाद हैं। भर्तु प्रपंच ने कठ और बृहदारण्यक उपनिषदों पर भी भाष्य रचना की थी।

प्रथम अध्याय

इस अध्याय में नचिकेत अपने पिता द्वारा प्रताड़ित किये जाने पर यम के यहाँ पहुंचता है और यम की अनुपस्थिति में तीन दिन तक भूखा-प्यास यम के द्वार पर बैठा रहता है। तीन दिन बाद जब यम लौटकर आते हैं, तब उनकी पत्नी उन्हंक ब्राह्मण बालक अतिथि के विषय में बताती है। यमराज बालक के पास पहुंचकर अपनी अनुपस्थिति के लिए नचिकेता से क्षमा मांगते हैं और उसे इसके लिए तीन वरदान देने की बात कहते हैं। वे उसे उचित सम्मान देकर व भोजन आदि कराके भी सन्तुष्ट करने का प्रयत्न करते हैं। तदुपरान्त नचिकेता द्वारा वरदान मांगने पर ‘अध्यात्म’ के विषय में उसकी जिज्ञासा शान्त करते हैं।

दूसरा अध्याय

दूसरे अध्याय में परमेश्वर की प्राप्ति में जो बाधाएं आती हैं, उनके निवारण और हृदय में उनकी स्थिति का वर्णन किया गया है। परमात्मा की सर्वव्यापकता और संसार-रूपी उलटे पीपल के वृक्ष का विवेचन, योग-साधना, ईश्वर-विश्वास और मोक्षादि का वर्णन है। अन्त में ब्रह्मविद्या के प्रभाव से नचिकेता को ब्रह्म-प्राप्ति का उल्लेख है।

परमात्मा ने समस्त इन्द्रियों का मुख बाहर की ओर किया है, जिससे जीवात्मा बाहरी पदार्थों को देखता है और सांसारिक भोग-विलास में ही उसका ध्यान रमा रहता है। वह अन्तरात्मा की ओर नहीं देखता, किन्तु मोक्ष की इच्छा रखने वाला साधक अपनी समस्त इन्द्रियों पर नियन्त्रण करके अन्तरात्मा को देखता है। यह अन्तरात्मा ही ब्रह्म तक पहुंचने का मार्ग है। जहां से सूर्यदेव उदित होते हैं और जहां तक जाकर अस्त होते हैं, वहां तक समस्त देव शक्तियां विराजमान हैं। उन्हें कोई भी नहीं लांघ पाता। यही ईश्वर है। इस ईश्वर को जानने के लिए सत्य और शुद्ध मन की आवश्यकता होती है।

यमराज नचिकेता को बताते हैं-‘हे नचिकेता! शुद्ध जल को जिस पात्र में भी डालो, वह उसी के अनुसार रूप ग्रहण कर लेता है। पौधों में वह रस, प्राणियों में रक्त और ज्ञानियों में चेतना का रूप धारण कर लेता है। उसमें कोई विकार उत्पन्न नहीं होता। वह शुद्ध रूप से किसी के साथ भी एकरूप हो जाता हैं जो साधक सभी पदार्थों से अलिप्त होकर परमात्मतत्त्व से लिप्त होने का प्रयास करता है, उस साधक को ही सत्य पथ का पथिक जानकर ‘आत्मतत्त्व’ का उपदेश दिया जाता है।’

यमराज बताते हैं कि यह सम्पूर्ण विश्व उस प्राण-रूप ब्रह्म से ही प्रकट होता है और निरन्तर गतिशील रहता है। जो ऐसे ब्रह्म को जानते हैं, वे ही अमृत्य, अर्थात मोक्ष को प्राप्त करते हैं इस परब्रह्म के भय से ही अग्निदेव तपते हैं, सूर्यदेव तपते हैं। इन्द्र, वायु और मृत्युदेवता भी इन्हीं के भय से गतिशील रहते हैं।

4) केनोपनिषद |

सामवेदीय ‘तलवकार ब्राह्मण’ के नौवें अध्याय में इस उपनिषद का उल्लेख है। यह एक महत्त्वपूर्ण उपनिषद है। इसमें ‘केन’ (किसके द्वारा) का विवेचन होने से इसे ‘केनोपनिषद’ कहा गया है। इसके चार खण्ड हैं।

प्रथम और द्वितीय खण्ड में गुरु-शिष्य की संवाद-परम्परा द्वारा उस (केन) प्रेरक सत्ता की विशेषताओं, उसकी गूढ़ अनुभूतियों आदि पर प्रकाश डाला गया है।

तीसरे और चौथे खण्ड में देवताओं में अभिमान तथा उसके मान-मर्दन के लिए ‘यज्ञ-रूप’ में ब्राह्मी-चेतना के प्रकट होने का उपाख्यान है।

अन्त में उमा देवी द्वारा प्रकट होकर देवों के लिए ‘ब्रह्मतत्त्व’ का उल्लेख किया गया है तथा ब्रह्म की उपासना का ढंग समझाया गया है। मनुष्य को ‘श्रेय’ मार्ग की ओर प्रेरित करना, इस उपनिषद का लक्ष्य हैं।

प्रथम खण्ड

इस खण्ड में ‘ब्रह्म-चेतना’ के प्रति शिष्य अपने गुरु के सम्मुख अपनी जिज्ञासा प्रकट करता है। वह अपने मुख से प्रश्न करता है कि वह कौन है, जो हमें परमात्मा के विविध रहस्यों को जानने के लिए प्रेरित करता है? ज्ञान-विज्ञान तथा हमारी आत्मा का संचालन करने वाला वह कौन है? वह कौन है, जो हमारी वाणी में, कानों में और नेत्रों में निवास करता है और हमें बोलने, सुनने तथा देखने की शक्ति प्रदान करता है? शिष्य के प्रश्नो का उत्तर देते हुए गुरु बताता है कि जो साधक मन, प्राण, वाणी, आंख, कान आदि में चेतना-शक्ति भरने वाले ‘ब्रह्म’ को जान लेता है, वह जीवन्मुक्त होकर अमर हो जाता है तथा आवागमन के चक्र से छूट जाता है।

दूसरा खण्ड

इस खण्ड में ‘ब्रह्म’ की अज्ञेयता और मानव-जीवन के महत्त्व पर प्रकाश डाला गया है। गुरु शिष्य को बताता है कि जो असीम और अनन्त है, उसे वह भली प्रकार से जानता है या वह उसे जान गया है, ऐसा नहीं है। उसे पूर्ण रूप से जान पाना असम्भव है। हम उसे जानते हैं या नहीं जानते हैं, ये दोनों ही कथन अपूर्ण हैं।अहंकारविहीन व्यक्ति का वह बोध, जिसके द्वारा वह ज्ञान प्राप्त करता है, उसी से वह अमृत-स्वरूप ‘परब्रह्म’ को अनुभव कर पाता है। जिसने अपने जीवन में ऐसा ज्ञान प्राप्त कर लिया, उसे ही परब्रह्म का अनुभव हो पाता है। किसी अन्य योनि में जन्म लेकर वह ऐसा नहीं कर पाता। अन्य समस्त योनियां, कर्म-भोग की योनियां हैं। मानव-जीवन में ही बुद्धिमान पुरुष प्रत्येक वाणी, प्रत्येक तत्त्व तथा प्रत्येक जीव में उस परमात्मसत्ता को व्याप्त जानकर इस लोक में जाता है और अमरत्व को प्राप्त करता है।

तीसरा खण्ड

तीसरे खण्ड में देवताओं के अहंकार का मर्दन किया गया है। एक बार उस ब्रह्म ने देवताओं को माध्यम बनाकर असुरों पर विजय प्राप्त की। इस विजय से देवताओं को अभिमान हो गया कि असुरों पर विजय प्राप्त करने वाले वे स्वयं हैं। इसमें ‘ब्रह्म’ ने क्या किया?तब ब्रह्म ने उन देवताओं के अहंकार को जानकर उनके सम्मुख यक्ष के रूप में अपने को प्रकट किया। और उनका अभिमान चूर किया | तब इन्द्र ने भगवती उमा से यक्ष के बारे में प्रश्न किया कि यह यक्ष कौन था?

चौथा खण्ड

इन्द्र के प्रश्न को सुनकर उमादेवी ने कहा-‘हे देवराज! समस्त देवों में अग्नि, वायु और स्वयं आप श्रेष्ठ माने जाते हैं; क्योंकि ब्रह्म को शक्ति-रूप में इन्हीं तीन देवों ने सर्वप्रथम समझा था और ब्रह्म का साक्षात्कार किया था। यह यक्ष वही ब्रह्म था। ब्रह्म की विजय ही समस्त देवों की विजय है।’

इन्द्र के सम्मुख यक्ष का अन्तर्धान होना, ब्रह्म की उपस्थिति का संकेत- बिजली के चमकने और झपकने- जैसा है। इसे सूक्ष्म दैविक संकेत समझना चाहिए। मन जब ‘ब्रह्म’ के निकट होने का संकल्प करके ब्रह्म-प्राप्ति का अनुभव करता हुआ-सा प्रतीत हो, तब वह ब्रह्म की उपस्थिति का सूक्ष्म संकेत होता है।

जो व्यक्ति ब्रह्म के ‘रस-स्वरूप’ का बोध करता है, उसे ही आत्मतत्त्व की प्राप्ति हो पाती है। तपस्या, मन और इन्द्रियों का नियन्त्रण तथा आसक्ति-रहित श्रेष्ठ कर्म, ये ब्रह्मविद्या-प्राप्ति के आधार हैं। वेदों में इस विद्या का सविस्तार वर्णन है। इस ब्रह्मविद्या को जानने वाला साधक अपने समस्त पापों को नष्ट हुआ मानकर उस अविनाशी, असीम और परमधाम को प्राप्त कर लेता है।तब इन्द्र को यक्ष के तात्विक स्वरूप का बोध हुआ और उन्होंने अपने अहंकार का त्याग किया।अन्त में ब्रह्मवेत्ता जिज्ञासु शिष्यों को बताता है कि इस उपनिषद द्वारा तुम्हें ब्रह्म-प्राप्ति का मार्ग दिखाया गया है। इस पर चलकर तुम ब्रह्म के निकट पहुंच सकते हो।

5) छांदोग्य उपनिषद् |

छांदोग्य उपनिषद् समवेदीय छान्दोग्य ब्राह्मण का औपनिषदिक भाग है जो प्राचीनतम दस उपनिषदों में नवम एवं सबसे बृहदाकार है। इसके आठ प्रपाठकों में प्रत्येक में एक अध्याय है।

परिचय

ब्रह्मज्ञान के लिए प्रसिद्ध छांदोग्य उपनिषद् की परम्परा में अ. 8.15 के अनुसार इसका प्रवचन ब्रह्मा ने प्रजापति को, प्रजापति ने मनु को और मनु ने अपने पुत्रों को किया जिनसे इसका जगत् में विस्तार हुआ। यह निरूपण बहुधा ब्रह्मविदों ने संवादात्मक रूप में किया। श्वेतकेतु और उद्दालक, श्वेतकेतु और प्रवाहण जैबलि, सत्यकाम जाबाल और हारिद्रुमत गौतम, कामलायन उपकोसल और सत्यकाम जाबाल, औपमन्यवादि और अश्वपति कैकेय, नारद और सनत्कुमार, इंद्र और प्रजापति के संवादात्मक निरूपण उदाहरण सूचक हैं।

सन्यास प्रधान इस उपनिषद् का विषय 8-7-1 में उल्लिखित इंद्र को दिए गए प्रजापति के उपदेशानुसार, अपाप, जरा-मृत्यु-शोकरहित, विजिधित्स, पिपासारहित, सत्यकाम, सत्यसंकल्प आत्मा की खोज तथा सम्यक् ज्ञान है।

मुख्य मान्यताएँ

संक्षेप में छांदोग्य उपनिषद् की मुख्य मान्यताएँ इस प्रकार हैं: सृष्टि के मूलारंभ में एक और अद्वितीय सत् था जिससे असत् की उत्पत्ति हुई। तैत्तरीय उपनिषद् में असत् से सत् की उत्पत्ति बतलाई गई है, किंतु शब्द वैभिन्नय रहने पर भी दोनों के तात्पर्य समान हैं। इस सत् को ही “ब्रह्म” कहते हैं जिसने एक से बहुत होने की इच्छा से सृष्टिरचना करके उसमें जीवरूप से प्रवेश किया। इस उपनिषद् में पंचतन्मात्रों अथवा पंचमहाभूतों का वर्णन नहीं आता बल्कि तेज, जल और पृथ्वी इन मूल तत्वों के मिश्रण से विविध सृष्टि का निर्माण माना गया है।

समस्त सृष्टि नामरूपात्मक है; यहाँ तक कि अ. 7 में नारद को दिए गए सनत्कुमार के उपदेशानुसार चतुर्वेद, शास्त्र एवं विद्याएँ नाम रूपात्मक हैं और इनके मूल में जो नित्य तत्व है वह ब्रह्म है जो वाणी, आज्ञा, संकल्प, मन, बुद्धि और प्राण तथा अव्यक्त प्रकृति से भी परे अपनी महिमा में प्रतिष्ठित है।

जिस प्रकार नदियाँ समुद्र में विलीन होकर समुद्र हो जातीं और अपनी सत्ता को नहीं जानतीं, इस तथा अन्य दृष्टांतों से उद्दालक ने श्वेतकेतु को समझा दिया है कि सृष्टि के समस्त जीव आत्म-स्वरूप को भूले हुए हैं, वस्तुत: उनमें जो आत्मा है वह ब्रह्म ही है और इस सिद्धांत को इस उपनिषद् के महावाक्य “तत्वमसि” में वाग्बद्ध किया है (6-8-16)। 3-16-17 के अनुसार मनुष्य का जीवन एक प्रकार का यज्ञ है जिसकी महत्ता का वर्णन करते हुए कहा गया है कि इस यज्ञविद्या का उपदेश घोर आंगिरस ने “देवकीपुत्र कृष्ण” को किया। कुछ विद्वानों की धारणा है कि यह कृष्ण अवतारी भगवान कृष्ण हैं। 3-14-1 में पुरुष को क्रतुमय कहकर निश्चित किया गया है कि जिसका जैसा क्रतु (श्रद्धा) होता है मृत्यु के पश्चात् उसे वैसा ही फल मिलता है। जिन्हें ब्रह्मज्ञान नहीं हुआ, ऐसे पुण्यकर्म करनेवाले देवयान और पितृयाण मार्गो से पुण्यलोकों को प्राप्त करते हैं किंतु आजीवन पापाचार करनेवाले तिर्यक् योनि में उत्पन्न होते हैं। “सर्वं खल्विदं ब्रह्म”, “आत्मैवेदं सर्वं”, “तत्वमसि” इत्यादि वाक्य अद्वैत का प्रतिपादन करते हैं।

ब्रह्मज्ञान के लिए नितांत आवश्यक ब्रह्मचिंतन के निमित्त चित्त की एकाग्रता अनिवार्य है जिसके लिए ब्रह्म निर्देशक ओंकार की और ब्रह्म के सगुण प्रतीक जैसे मन, प्राण, आकाश, वायु, वाक्, चक्षु, श्रोत्र, सूर्य, अग्नि, रुद्र, आदित्य या मरुत और गायत्री इत्यादि की उपासना निर्दिष्ट की गई है।

6) प्रश्नोपनिषद | Prashnopanishad in hindi

अथर्ववेद की पिप्पलाद शाखा के ब्राह्मण भाग से सम्बन्धित इस उपनिषद में जिज्ञासुओं द्वारा महर्षि पिप्पलाद से छह प्रश्न पूछे गये हैं।

पहला प्रश्न

कात्यायन कबन्धी-‘भगवन! यह प्रजा किससे उत्पन्न होती है?’

महर्षि पिप्पलाद-‘प्रजा-वृद्धि की इच्छा करने वाले प्रजापति ब्रह्मा ने ‘रयि’ और ‘प्राण’ नामक एक युगल से प्रजा की उत्पन्न कराई।’

वस्तुत: प्राण गति प्रदान करने वाला चेतन तत्त्व है। रयि उसे धारण करके विविध रूप देने में समर्थ प्रकृति है। इस प्रकार ब्रह्मा मिथुन-कर्म द्वारा सृष्टि को उत्पन्न करता है।

दूसरा प्रश्न

ऋषि भार्गव-‘हे भगवन! प्रजा धारण करने वाले देवताओं की संख्या कितनी है और उनमें वरिष्ठ कौन है?’ महर्षि पिप्पलाद-‘पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश तथा मन, प्राण, वाणी, नेत्र और श्रोत्र आदि सभी देव हैं। ये जीव के आश्रयदाता है। सभी देवताओं में प्राण ही सर्वश्रेष्ठ है। सभी इन्द्रियां प्राण के आश्रय में ही रहती हैं।’

तीसरा प्रश्न

कौसल्य आश्वलायन—’हे महर्षि! इस ‘प्राण’ की उत्पत्ति कहां से होती है, यह शरीर में कैसे प्रवेश करता है और कैसे बाहर निकल जाता है तथा कैसे दोनों के मध्य रहता है?’महर्षि पिप्पलाद—’ इस प्राण की उत्पत्ति आत्मा से होती है। जैसे शरीर की छाया शरीर से उत्पन्न होती है और उसी में समा जाती है, उसी प्रकार प्राण आत्मा से प्रकट होता है और उसी में समा जाता है। वह प्राण मन के संकल्प से शरीर में प्रवेश करता है। मरणकाल में यह आत्मा के साथ ही बाहर निकलकर दूसरी योनियों में चला जाता है।’

चौथा प्रश्न

गार्ग्य ऋषि-‘ हे भगवन! इस पुरुष देह में कौन-सी इन्द्री शयन करती है और कौन-सी जाग्रत रहती है? कौन-सी इन्द्री स्वप्न देखती है और कौन-सी सुख अनुभव करती है? ये सब किसमें स्थित है?’ महर्षि पिप्पलाद—’हे गार्ग्य! जिस प्रकार सूर्य की रश्मियां सूर्य के अस्त होते ही सूर्य में सिमट जाती हैं और उसके उदित होते ही पुन: बिखर जाती हैं उसी प्रकार समस्त इन्द्रियां परमदेव मन में एकत्र हो जाती हैं। तब इस पुरुष का बोलना-चालना, देखना-सुनना, स्वाद-अस्वाद, सूंघना-स्पर्श करना आदि सभी कुछ रूक जाता है। उसकी स्थिति सोये हुए व्यक्ति-जैसी हो जाती है।’ ‘सोते समय प्राण-रूप अग्नि ही जाग्रत रहती है। उसी के द्वारा अन्य सोई हुई इन्द्रियां केवल अनुभव मात्र करती हैं, जबकि वे सोई हुई होती हैं।’

पांचवां प्रश्न

सत्यकाम—’हे भगवन! जो मनुष्य जीवन भर ‘ॐ’ का ध्यान करता है, वह किस लोक को प्राप्त करता है?’ महर्षि पिप्पलाद—’हे सत्यकाम! यह ‘ॐकार’ ही वास्तव में ‘परब्रह्म’ है। ‘ॐ’ का स्मरण करने वाला ब्रह्मलोक को ही प्राप्त करता है। यह तेजोमय सूर्यलोक ही ब्रह्मलोक है।’

छठा प्रश्न

सुकेशा भारद्वाज :-‘हे भगवन! कौसल देश के राजपुरुष हिरण्यनाभ ने सोलह कलाओं से युक्त पुरुष के बारे में मुझसे प्रश्न किया था, परन्तु मैं उसे नहीं बता सका। क्या आप किसी ऐसे पुरुष के विषय में जानकारी रखते हैं?’ महर्षि पिप्पलाद—’हे सौम्य! जिस पुरुष में सोलह कलाएं उत्पन्न होती हैं, वह इस शरीर में ही विराजमान है। उस पुरुष ने सर्वप्रथम ‘प्राण’ का सृजन किया। तदुपरान्त प्राण से ‘श्रद्धा’, ‘आकाश’, ‘वायु’, ‘ज्योति’, ‘पृथ्वी’, ‘इन्द्रियां’, ‘मन’ और ‘अन्न’ का सृजन किया। अन्न से ‘वीर्य’ , ‘तप’, ‘मन्त्र’, ‘कर्म’, ‘लोक’ एवं ‘नाम’ आदि सोलह कलाओं का सृजन किया।’

7) तैत्तिरीय उपनिषद | Taittiriya Upanishads in Hindi

तैत्तिरीयोपनिषद कृष्ण यजुर्वेदीय शाखा के अन्तर्गत एक उपनिषद है। यह अत्यंत महत्वपूर्ण प्राचीनतम दस उपनिषदों में से एक है। यह शिक्षावल्ली, ब्रह्मानंदवल्ली और भृगुवल्ली इन तीन खंडों में विभक्त है। शिक्षा वल्ली में १२ अनुवाक और २५ मंत्र, ब्रह्मानंदवल्ली में ९ अनुवाक और १३ मंत्र तथा भृगुवल्ली में १९ अनुवाक और १५ मंत्र हैं। शिक्षावल्ली को सांहिती उपनिषद् एवं ब्रह्मानंदवल्ली और भृगुवल्ली को वरुण के प्रवर्तक होने से वारुणी उपनिषद् या विद्या भी कहते हैं। तैत्तरीय उपनिषद् कृष्ण यजुर्वेदीय तैत्तरीय आरण्यक का ७, ८, ९वाँ प्रपाठक है। इस उपनिषद् के बहुत से भाष्यों, टीकाओं और वृत्तियों में शांकरभाष्य प्रधान है जिसपर आनंद तीर्थ और रंगरामानुज की टीकाएँ प्रसिद्ध हैं एवं सायणाचार्य और आनंदतीर्थ के पृथक्‌ भाष्य भी सुंदर हैं।

परिचय

तैत्तरीय उपनिषद् अत्यंत महत्वपूर्ण प्राचीनतम दस उपनिषदों में सप्तम तैत्तरीयोपनिषद् है जो कृष्ण यजुर्वेदीय तैत्तरीय आरण्यक का 7, 8, 9वाँ प्रपाठक है और शिक्षावल्ली, ब्रह्मानंदवल्ली और भृगुवल्ली इन तन खंडों में विभक्त है। शिक्षा वल्ली में 12 अनुवाक और 25 मंत्र, ब्रह्मानंदवल्ली में 9 अनुवाक और 13 मंत्र तथा भृगुवल्ली में 19 अनुवाक और 15 मंत्र हैं। शिक्षावल्ली को सांहिती उपनिषद् एवं ब्रह्मानंदवल्ली और भृगुवल्ली को वरुण के प्रवर्तक होने से वारुणी उपनिषद् या विद्या भी कहते हैं।

वारुणी उपनिषद् में विशुद्ध ब्रह्मज्ञान का निरूपण है जिसकी उपलब्धि के लिये प्रथम शिक्षावल्ली में साधनरूप में ऋत और सत्य, स्वाध्याय और प्रवचन, शम और दम, अग्निहोत्र, अतिथिसेवा श्रद्धामय दान, मातापिता और गुरुजन सेवा और प्रजोत्पादन इत्यादि कर्मानुष्ठान की शिक्षा प्रधानतया दी गई है। इस में त्रिशंकु ऋषि के इस मत का समावेश है कि संसाररूपी वृक्ष का प्रेरक ब्रह्म है तथा रथीतर के पुत्र सत्यवचा के सत्यप्रधान, पौरुशिष्ट के तप:प्रधान एवं मुद्गलपुत्र नाक के स्वाध्याय प्रवचनात्मक तप विषयक मतों का समर्थन हुआ है। 11वें अनुवाक मे समावर्तन संस्कार के अवसर पर सत्य भाषण, गुरुजनों के सत्याचरण के अनुकरण और असदाचरण के परित्याग इत्यादि नैतिक धर्मों की शिष्य को आचार्य द्वारा दी गई शिक्षाएँ शाश्वत मूल्य रखती हैं।

ब्रह्मानंद और भृगुवल्लियों का आरंभ ब्रह्मविद्या के सारभूत ‘ब्रह्मविदाप्नोति परम्‌’ मंत्र से होता है। ब्रह्म का लक्षण सत्य, ज्ञान और अनंत स्वरूप बतलाकर उसे मन और वाणी से परे अचिंत्य कहा गया है। इस निर्गुण ब्रह्म का बोध उसके अन्न, प्राण, मन, विज्ञान और आनंद इत्यादि सगुण प्रतीकों के क्रमश: चिंतन द्वारा वरुण ने भृगु को करा दिया है। इस उपनिषद् के मत से ब्रह्म से ही नामरूपात्मक सृष्टि की उत्पत्ति हुई है और उसी के आधार से उसकी स्थिति है तथा उसी में वह अंत में विलीन हो जाती है। प्रजोत्पत्ति द्वारा बहुत होने की अपनी ईश्वरींय इच्छा से सृष्टि की रचना कर ब्रह्म उसमें जीवरूप से अनुप्रविष्ट होता है। ब्रह्मानंदवल्ली के सप्तम अनुवाक में जगत्‌ की उत्पत्ति असत्‌ से बतलाई गई है, किंतु ‘असत्‌’ इस उपनिषद् का पारिभाषिक शब्द है जो अभावसूचक न होकर अव्याकृत ब्रह्म का बोधक है, एवं जगत्‌ को सत्‌ नाम देकर उसे ब्रह्म का व्याकृत रूप बतलाया है। ब्रह्म रस अथवा आनंद स्वरूप हैं। ब्रह्मा से लेकर समस्त सृष्टि पर्यंत जितना आनंद है उससे निरतिशय आनंद को वह श्रोत्रिय प्राप्त कर लेता है जिसकी समस्त कामनाएँ उपहत हो गई हैं और वह अभय हो जाता है।

8) बृहदारण्यकोपनिषद | 

बृहदारण्यक उपनिषद शुक्ल यजुर्वेद से जुड़ा एक उपनिषद है । यह अति प्राचीन है और इसमें जीव, ब्रह्मांड और ब्राह्मण (ईश्वर) के बारे में कई बाते कहीं गईं है । दार्शनिक रूप से महत्वपूर्ण इस उपनिषद पर आदि शंकराचार्य ने भी टीका लिखी थी । यह शतपथ ब्राह्मण ग्रंथ का एक खंड है और इसको शतपथ ब्राह्मण के पाठ में सम्मिलित किया जाता है । यजुर्वेद के प्रसिद्ध पुरुष सूक्त के अतिरिक्त इसमें अश्वमेध, असतो मा सदगमय, नेति नेति जैसे विषय हैं । इसमें ऋषि याज्ञवल्क्य और मैत्रेयी का संवाद है जो अत्यन्त क्रमबद्ध और युक्तिपूर्ण है।

प्रथम अध्याय

इसमें छह ब्राह्मण हैं। प्रथम ब्राह्मण में, सृष्टि-रूप यज्ञ’ को अश्वमेध यज्ञ के विराट अश्व के समान प्रस्तुत किया गया है। यह अत्यन्त प्रतीकात्मक और रहस्यात्मक है। इसमें प्रमुख रूप से विराट प्रकृति की उपासना द्वारा ‘ब्रह्म’ की उपासना की गयी है। दूसरे ब्राह्मण में, प्रलय के बाद ‘सृष्टि की उत्पत्ति’ का वर्णन है। तीसरे ब्राह्मण में, देवताओं और असुरों के ‘प्राण की महिमा’ और उसके भेद स्पष्ट किये गये हैं। चौथे ब्राह्मण में, ‘ब्रह्म को सर्वरूप’ स्वीकार किया गया है और चारों वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) के विकास क्रम को प्रस्तुत किया गया है। पांचवें ब्राह्मण में, सात प्रकार के अन्नों की उत्पत्ति का उल्लेख है और सम्पूर्ण सृष्टि को ‘मन, वाणी और प्राण’ के रूप में विभाजित किया गया है। छठे ब्राह्मण में, ‘नाम, रूप और कर्म’ की चर्चा की गयी है।

दूसरा अध्याय

दूसरे अध्याय में भी छह ब्राह्मण हैं। प्रथम ब्राह्मण में डींग हांकने वाले, अर्थात बहुत बढ़-चढ़कर बोलने वाले गार्ग्य बालाकि ऋषि एवं विद्वान राजा अजातशत्रु के संवादों द्वारा ‘ब्रह्म’ व ‘आत्मतत्त्व’ को स्पष्ट किया गया है। दूसरे और तीसरे ब्राह्मण में ‘प्राणोपासना’ तथा ब्रह्म के दो मूर्त्त-अमूर्त्त रूपों का वर्णन किया गया है। इन्हें ‘साकार’ और ‘निराकार’ ब्रह्म भी कहा गया है। चौथे ब्राह्मण में याज्ञवल्क्य-मैत्रेयी संवाद हैं। पांचवें और छठे ब्राह्मण में ‘मधुविद्या’ औ उसकी परम्परा का वर्णन है।

तीसरा अध्याय

तीसरे अध्याय में नौ ब्राह्मण हैं। इनके अन्तर्गत राजा जनक के यज्ञ में याज्ञवल्क्य ऋषि से विभिन्न तत्त्ववेत्ताओं द्वारा प्रश्न पूछे गये हैं और उनके उत्तर प्राप्त किये गये हैं। गार्गी द्वारा बार-बार प्रश्न पूछ जाने पर याज्ञवल्क्य उसे अपमानित करके रोक देते हैं। पुन: सभा की अनुमति से उसके द्वारा प्रश्न पूछे जाते हैं। वह उनसे अपनी पराजय स्वीकार कर लेती है। इसी प्रकार शाकल्य ऋषि अतिप्रश्न करने के कारण अपमानित होते हैं। इसी का उल्लेख प्रश्नोत्तर रूप में यहाँ किया गया है। इनमें भारतीय ‘तत्त्व-दर्शन’ का निचोड़ प्राप्त होता है।

चौथा अध्याय

इस अध्याय में महर्षि याज्ञवल्क्य और राजा जनक के मध्य हुए संवादों का उल्लेख किया गया है। साथ ही याज्ञवल्क्य और मैत्रेयी के संवाद भी इसमें हैं। अन्त में इस काण्ड की परम्परा को दोहराया गया है। इस अध्याय में छह ब्राह्मण हैं।

पांचवां अध्याय

इस अध्याय में ‘ब्रह्म’ की विविध रूपों में उपासना की गयी है। साथ ही मनोमय ‘पुरुष’ और ‘वाणी’ की उपासना भी की गयी है। मृत्यु के उपरान्त ऊर्ध्वगति तथा ‘अन्न’ और ‘प्राण’ के विविध रूपों की उपासना-विधि समझाई गयी है। इसके अतिरिक्त ‘गायत्री उपासना’ में जप करने योग्य तीन चरणों के साथ चौथे ‘दर्शन’ पद का भी उल्लेख किया गया है। इसमें पन्द्रह ब्राह्मणों की चर्चा है।

छठा अध्याय

इस अध्याय में ‘प्राण’ की श्रेष्ठता, ‘पंचाग्नि विद्या’ का विवरण, ‘मन्थ-विद्या’ का उपदेश तथा ‘सन्तानोत्पत्ति-विज्ञान’ का सुन्दर वर्णन किया गया है। सबसे अन्त में समस्त प्रकरण की आचार्य-परम्परा का उल्लेख किया गया है। इस अध्याय मंज पांच ब्राह्मण हैं।

9) माण्डूक्योपनिषद | Mandukyopanishad in Hindi

अथर्ववेद से सम्बन्धित इस उपनिषद में ‘ॐकार’ को ‘अक्षरब्रह्म’ परमात्मा स्वीकार किया गया है। ओंकार के विविध चरणों और मात्राओं का विवेचन करते हुए अव्यक्त परमात्मा के व्यक्त विराट जगत का उल्लेख किया गया है। परमात्मा के ‘निराकार’ और ‘साकार’ दोनों स्वरूपों की उपासना पर बल दिया गया है। इसमें बारह मन्त्र हैं।

‘ॐ’ अक्षर अविनाशी ‘ब्रह्म’ का प्रतीक है। उसकी महिमा प्रकट ब्रह्माण्ड से होती है। भूत, भविष्य और वर्तमान, तीनों कालों वाला यह संसार ‘ॐकार’ ही है।यह सम्पूर्ण जगत ‘ब्रह्म-रूप’ है।’आत्मा’ भी ब्रह्मा का ही स्वरूप है। ‘ब्रह्म’ और ‘आत्मा’ चार चरण वाला स्थूल या प्रत्यक्ष, सूक्ष्म, कारण तथा अव्यक्त रूपों में प्रभाव डालने वाला है।प्रथम चरण स्थूल वैश्वानर (अग्नि), जाग्रत अवस्था में रहने वाला, बाह्य रूप से बोध कराने वाला, सात अंगों, अर्थात सप्त लोकों या सप्त किरणों से द्युतिमान, उन्नीस मुखों- दस इन्द्रियों, पांच प्राण तथा चार अन्त-करण-वाला है। द्वितीय चरण ज्योतिर्मय आत्मा अथवा अव्यक्त ब्रह्म है। तृतीय चरण ‘प्राज्ञ’ ही ब्रह्म का चरण है, जिसके द्वारा वह एकमात्र आनन्द का बोध कराता है। वह ब्रह्म ही जगत का कारणभूत है, सबका ईश्वर है, सर्वज्ञ है, अन्तर्यामी है, किन्तु जो एक मात्र अनुभवगम्य है, शान्त-रूप है, कल्याणकारी अद्वैत-रूप है, वह उसका चतुर्थ चरण है।

इस प्रकार ‘आत्मा’ और ‘परमात्मा’ अक्षरब्रह्म’ ‘ॐकार’ रूप में ही सामने रहता है। इसकी मात्राएं ही इसके चरण हैं और चरण ही मात्राएं हैं। ये मात्राएं ‘अकार,’ ‘उकार’ और ‘मकार’ हैं।ॐ की तीन मात्राएं- अ, उ, म् हैं। यह विश्व त्रियामी है। भूत, भविष्य और वर्तमान काल भी इसकी तीन मात्राएं हैं। ये सत्, रज और तम की प्रतीक हैं। ज्ञान द्वारा ही परमात्मा के इस चेतन-अचेतन स्वरूप को जाना जा सकता है। उसे वाणी से प्रकट करना अत्यन्त कठिन है। उसे अनुभव किया जा सकता है। एक आत्मज्ञानी साधक अपने आत्मज्ञान के द्वारा ही आत्मा को परब्रह्म में प्रविष्ट कराता है और उससे अद्वैत सम्बन्ध स्थापित करता है।

10 ) मुण्डकोपनिषद | Mundaka Upanishad in Hindi

मुण्डकोपनिषद अथर्ववेदीय शाखा के अन्तर्गत एक उपनिषद है। यह उपनिषद संस्कृत भाषा में लिखित है। इसके रचियता वैदिक काल के ऋषियों को माना जाता है परन्तु मुख्यत वेदव्यास जी को कई उपनिषदों का लेखक माना जाता है।

इसमें अक्षर-ब्रह्म ‘ॐ: का विशद विवेचन किया गया है। इसे ‘मन्त्रोपनिषद’ नाम से भी पुकारा जाता है। इसमें तीन मुण्डक हैं और प्रत्येक मुण्डक के दो-दो खण्ड हैं तथा कुल चौंसठ मन्त्र हैं। ‘मुण्डक’ का अर्थ है- मस्तिष्क को अत्यधिक शक्ति प्रदान करने वाला और उसे अविद्या-रूपी अन्धकार से मुक्त करने वाला। इस उपनिषद में महर्षि अंगिरा ने शौनक को ‘परा-अपरा’ विद्या का ज्ञान कराया है। भारत के राष्ट्रीय चिह्न में अंकित शब्द ‘सत्यमेव जयते’ मुण्डकोपनिषद से ही लिये गए हैं।

प्रथम मुण्डक

इस मुण्डक में ‘ब्रह्मविद्या’, ‘परा-अपरा विद्या’ तथा ‘ब्रह्म से जगत की उत्पत्ति’, ‘यज्ञ और उसके फल’, ‘भोगों से विरक्ति’ तथा ‘ब्रह्मबोध’ के लिए ब्रह्मनिष्ठ गुरु और अधिकारी शिष्य का उल्लेख किया गया है।

द्वितीय मुण्डक

इस मुण्डक में ‘अक्षरब्रह्म’ की सर्वव्यापकता और उसका समस्त ब्रह्माण्ड के साथ सम्बन्ध स्थापित किया गया है।

तृतीय मुण्डक

इस मुण्डक में ‘जीवात्मा’ और ‘परमात्मा’ के सम्बन्धों की व्यापक चर्चा की गयी है। उनकी उपमा एक ही वृक्ष पर रहने वाले दो पक्षियों से की गयी है। यह वृक्ष की शरीर है, जिसमें आत्मा और परमात्मा दोनों निवास करते हैं। एक अपने कर्मों का फल खाता है और दूसरा उसे देखता रहता है।

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