श्री राम कथा – राम अनंत, अनंत गुण, अमित कथा विस्तार
श्री रामनवमी की गहन अनुभूति श्री राम कथा है। इसमें श्री राम भक्ति की अगणित उमंगें एवं अनंत उछाह है। यही वह सच्ची अयोध्या है, जहाँ प्रभु श्री राम एवं उनके अनंत गुण प्रकटे एवं प्रकाशित हुए। श्री राम कथा के अवगाहन अपने एवं अनुशीलन से आज भी राम भक्तों को प्रभु और उनकी कृपा का दरस-परस बड़ी ही सहज रीति से मिल जाता है। श्री राम कथा के प्राकट्य में ही प्रभु श्री राम के प्राकट्य का रहस्य है। जैसे प्रभु स्वयं हैं ठीक वैसी ही उनकी कथा है। तभी तो भक्त शिरोमणि बाबा तुलसी ने कहा है – राम अनंत, अनंत गुण, अमित कथा विस्तार । ऐसी परम पावन श्री राम कथा के अरुणोदय का पहला स्थान महर्षि वाल्मीकि का मानस लोक है। महर्षि वाल्मीकि ने स्वरचित रामायण के चौबीस हजार श्लोकों के पाँच सौ सर्गों से युक्त सात कांडों में प्रभु श्री राम के दिव्य चरित्र का वर्णन किया। इस आदिकाव्य में वर्णित रामचरित्र धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चारों पुरुषार्थों को देने वाला है। यथा –
‘चतुवर्गप्रदं नित्यं चरितं राघवस्य तु ।’ (वा। रामा। उत्तर।, १११/२३)
महर्षि वाल्मीकि की ही भाँति महर्षि व्यास ने भी श्री राम कथा का गान किया। महर्षि व्यास प्रभु लीला चिंतन के अप्रतिम एवं परम मर्मज्ञ आचार्य थे। उन्होंने अपने ब्रह्मज्ञान के मंदराचल से अध्यात्म सागर का मंथन कर भगवद् रसामृत की प्राप्ति ही नहीं की, उसका प्रीतिपूर्ण वितरण भी किया।
महर्षि व्यास रचित प्रायः सभी पुराणों में भगवान् राम की लीला और महत्ता का चिंतन है। हाँ, यह कहीं संक्षिप्त रूप में है, तो कहीं विशद् रूप में। महाभारत के वनपर्व में भी भगवान् राम का चरित संक्षिप्त रूप में उनके द्वारा वर्णित है। महर्षि वाल्मीकि के बाद भगवान् राम के कथाकार रूप में महर्षि व्यास ही सर्वोपरि हैं। अग्निपुराण के पाँचवें से ग्यारहवें अध्याय में श्री रामावतार के वर्णन के प्रसंग में उन्होंने सात कांडों में वर्णित श्री रामायण की कथा का संक्षिप्त रूप निरूपित किया है। कूर्मपुराण के पूर्वार्द्ध के इक्कीसवें अध्याय में भगवान् राम के चरित का बड़ा ही युक्तिपूर्ण वर्णन किया गया है। पद्मपुराण एवं स्कंद पुराण में भी रामकथा पढ़ने में को मिलती है। श्रीमद्भागवत् पुराण के नवें स्कंध के दसवें और ग्यारहवें अध्यायों में महर्षि व्यास ने अत्यंत प्रेरणाप्रद रीति से श्रीराम की लीला का चिंतन किया है। इसी तरह श्री देवी भागवत् पुराण में भी उन्होंने तीसरे स्कंध के २८वें से ३०वें अध्यायों में श्रीराम के चरित्र का बड़ी श्रद्धा और भक्ति से चित्रण किया है।
भारतीय इतिहास के स्वर्णयुग में जन्म लेने वाले कविकुल | शिरोमणि महाकवि कालिदास ने भी श्रीराम कथा गाई है। उन्होंने अपने महाकाव्य ‘रघुवंश’ में रामकथा को विस्तार दिया है। महाकवि कालिदास ने नवजात शिशु रूप में प्रभु श्री राम की एक अत्यंत सुंदर झलक प्रस्तुत की है। उनका यह अनोखा वर्णन तब से अब तक समस्त काव्य जगत् में स्पृहा की वस्तु है। वह कहते हैं –
शम्यागतेन रामेण माता शातोदरी बभौ । सैकताम्भोजबलिना जाह्नवीव शरत्कृशा ॥ – रघुवंश १०/६९
अर्थात् गर्भ में बालक को जन्म देने के परिणाम स्वरूप दुबली हुई माता कौशल्या नन्हें-से राम को लिए हुए पलँग पर लेटी हुई ऐसी सुंदर जान पड़ती थीं, मानो शरद् ऋतु में पतली धारा वाली गंगा जी के तट पर किसी के द्वारा नीला कमल पूजा की सामग्री के रूप में रख दिया है।
महाकवि भवभूति का अत्यंत प्रसिद्ध ग्रंथ है, ‘उत्तर रामचरित नाटक’ । इसमें श्री रामकथा के उत्तरवर्ती भाग को बड़े ही करुण रीति से प्रस्तुत किया गया है। उत्तर रामचरित नाटक के अंत में महाकवि भवभूति श्री रामकथा की महिमा इन शब्दों में कहते हैं –
पाप्यभ्यश्च पुनाति वर्धयति च श्रेयांसि सेयं कथा, मंगल्या च मनोहारा च जगतो मातेव गंगेव च ॥ – उत्तर रामचरित ७ / २१
गंगा और जननी की तरह मंगल विधायिनी यह मनोहर राम कथा पाप का नाश करके संसार के कल्याण की वृद्धि करने वाली है। ग्यारहवीं शताब्दी में कश्मीर में जन्म लेने वाले महाकवि क्षेमेन्द्र राम कथा के अनूठे गायक के रूप में विख्यात हुए हैं। उन्होंने १०३७ ई। में श्री वाल्मीकि रामायण को संक्षिप्त किया। १०६६ ई। में उन्होंने दशावतार चरित की रचना की। अपने इस ग्रंथ में उन्होंने लगभग तीन सौ छंदों में श्री रामकथा का वर्णन किया है। रामायण मंजरी भी उनकी सुमनोहर रचना है। रामकथा साहित्य में इसे गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त है।
देवभाषा संस्कृत के अलावा भारतीय भाषाओं के अन्य कवियों ने भी श्री रामकथा गाई है। हिंदी के आदिकवि चंदबरदायी ने अपने प्रसिद्ध ऐतिहासिक प्रबंध काव्य पृथ्वीराज रासो के द्वितीय समय के प्रारंभ में श्री राम के चरित्र का गान-बखान किया है। वे हिंदी में प्रभु श्री राम के यश का गान करने वाले पहले कवि थे। रामायण कथा के परम रसिक एवं मर्मज्ञ गोनबुद्ध ने सन् १३८० ई। में तेलगु भाषा में श्री रामकथा का गान किया। श्री गोनबुद्ध बुदपुर-बोत्थान नगर के आस-पास राज्य करने वाले सूर्यवंशी राजा विट्ठल के पुत्र थे। उनके द्वारा रचित इस रंगनाथ रामायण’ में श्री रामकथा छह कांडों में है।
उड़ीसा के प्रसिद्ध रामकथाकार सिद्धेश्वर परिड़ा ने उड़िया भाषा में रामकथा कही। अपनी इष्ट देवी ‘शारला’ के नाम पर उन्होंने अपना नाम ‘शारलादास’ रख लिया था। ईसा की तेरहवीं शती में लिखी हुई उनकी रामायण शारलादास की रामायण के नाम से विख्यात है। अपनी इस अनूठी रामकथा में उन्होंने योगसाधना के रहस्यों का अद्भुत रीति से उद्घाटन किया है। १६वीं सदी में रामकथा कहने वाले गोस्वामी तुलसीदास जी तो जगत् विख्यात हैं। उनके द्वारा लिखा गया महाकाव्य रामचरितमानस हिंदी भाषा भाषियों के लिए वेद से कम श्रद्धास्पद नहीं है। इसके दोहे-चौपाइयाँ श्रद्धालु जन जब तब मन-ही-मन गुनगुनाते-गाते रहते हैं। महाराष्ट्र के संत एकनाथ ने लगभग इसी समय में अपनी ‘भावार्थ रामायण’ लिखी। मराठी भाषा के ही महाकवि मोरोपंत ने रामकथा का गायन अपनी ‘मंत्र रामयण’ में किया। मोरोपंत कोरे कवि ही नहीं, भावुक भक्त भी थे। रामकथा उनके जीवन का प्राण थी।
रामकथा का गान करने वाले कवियों में महाकवि केशवदास का स्थान अनुपम है। उनके द्वारा हिंदी भाषा में रचित ‘रामचंद्रिका’ में रामकथा का काव्यात्मक सौंदर्य प्रकट हुआ है। मलयाली भाषा के महान संतकवि रामानुजन् एषुत्तच्छन रामकथा के गंभीर रसिक थे। संस्कृत भाषा में रचित’ अध्यात्म रामायण’ के आधार पर उन्होंने मलयाली भाषा में अध्यात्म रामायण’ की रचना की। उनकी यह रचना केरल के घर-घर में श्रद्धा और आदर से पढ़ी जाती है। महाकवि बत्तलेश्वर ने कन्नड़ भाषा में रामकथा का गान किया। १६वीं सदी में लिखी गई उनकी यह कृति ‘तोरवे -रामायण’ के नाम से जानी जाती है और रामकथा गान करने के कारण महाकवि बत्तलेश्वर को कुमार वाल्मीकि भी कहा जाता है।
१६वीं शती में जन्मे रहीम खानखाना ने बड़ी भक्तिपूर्वक रामकथा को गाया और अपनाया। रहीम मुसलमान थे, परंतु प्रभु श्रीराम पर उनकी अटल श्रद्धा थी। वह कहा करते थे –
रहिमन धोखे भाव से, मुख तें निकसे राम । पावन पूरन परम गति, कामादिक को धाम ॥
उन्होंने स्पष्ट कहा कि संसार सागर से पार उतरने का एकमात्र उपाय ही श्री राम प्रभु की शरणागति ही है। वे कृपामय प्रभु जगत् की विषय-वासना से प्राणी को मुक्त कर उसे अपनी भक्ति प्रदान कर निर्भय कर देते हैं। उनका कथन है –
गहि सरनागति राम की, भवसागर की नाव । रहिमन जगत उधार कर और न कछू उपाय ॥
दक्षिण भारत के कोचीन शहर में जन्मे महाकवि रामपारशव ने भी रामकथा गाई है। उनके द्वारा ५५० श्लोकों में रचित ‘श्रीराम पञ्चशती’ रामकथा का अद्भुत ग्रंथ है। उनका यह काव्य संपूर्ण वाल्मीकि रामायण में वर्णित रामचरित प्रधान घटनाओं का संक्षिप्त रूप है। महाकवि रामपारशव ने अपनी रामपञ्चशती रचना में श्रीराम की भक्ति का सरस निरूपण किया है। उनका समूचा जीवन रामभजन का प्रतीक था।
भगवान् राम का गुणगान करने वालों में महाकवि सेनापति हिंदी काव्य जगत् की शोभा हैं। मध्यकालीन हिंदी काव्य में उनका महत्त्वपूर्ण स्थान है। भक्ति सिद्धांत की दृष्टि से वे रामभक्त कवि थे। उनके दो ग्रंथ ‘काव्यकल्पद्रुम’ और ‘ कवित्त रत्नाकर’ हैं। कवित्त रत्नाकर में ही उन्होंने रामायण और राम-रसायन के शीर्षक के अंतर्गत रामकथा और भगवान् श्री राम के यश का वर्णन किया है। उन्होंने अपनी रामकथा की उपमा गंगा जी की धारा से दी हैं
तीरथ सरण सिरोमनि सेनापति जानी, राम की कहानी गंगाधर सी बखानी है। – कवित्त ४/७६
हिंदी-साहित्य के मध्यकाल के तीसरे चरण की कविता में महाकवि पद्माकर को गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त है। उनके काव्य में महाकवि देव के शब्द सौंदर्य, महाकवि मतिराम के भाव माधुर्य और महाकवि सेनापति के अलंकार संयोजन नैपुण्य का एक ही साथ दर्शन होता है। उन्होंने अपने काव्य जगद्विनोद पद्माभरण में प्रभु श्री राम का यश- स्मरण किया है। उनके द्वारा रचित ‘राम रसायन’ काव्य तो भक्ति गीत ही है। ‘प्रबोध पचासा’ में तो उन्होंने जैसे अपनी काव्य साधना सफल कर ली। इसमें उनके शब्द हैं –
ध्यायो राम रूप तब ध्याइबो रह्यो न कछु, गायो राम नाम तब गाइबो कहा रह्यो । – प्रबोध पचासा- १०।
रामकथा के रसिकों में महाकवि भानुभक्त का स्थान अत्यंत महिमापूर्ण है। उन्होंने भगवान् राम की भक्ति के सौंदर्य और माधुर्य से नैपाली साहित्य का श्रृंगार किया। काठमांडू से लगभग सौ मील पश्चिम में नेपाल के तनहूँ गाँव में जन्मे भानुभक्त परिपूर्ण रामभक्त थे। उन्होंने संस्कृत भाषा में रचित अध्यात्म रामायण का नैपाली भाषा में सरस काव्य रूपांतर प्रस्तुत किया। उनके द्वारा रचित यह रामायण भानुभक्त के रामायण के नाम से जानी जाती है और उन्हें नैपाली साहित्य का तुलसीदास कहा जाता है।
रामकथा के अनूठे माधुर्य और सौंदर्य से गुजराती भाषा भी कम समृद्ध नहीं है। समग्र गुजराती भाषा-भाषी गुजरात प्रदेश में महाकवि गिरधरकृत् रामायण के प्रति लोगों की बड़ी पूज्य भावना है। उन्होंने विक्रमी संवत की उन्नीसवीं शती के अंतिम चरण में गिरधर रामायण’ की रचना की। उनकी यह रामकथा सात कांडों में पूरी हुई है। गिरिधर की यह रामकथा भक्तिरस का समुद्र है। इसके एक कण का भी स्पर्श जीवन को तीनों तापों से मुक्ति दिलाने के लिए पर्याप्त है। रामकथा है का गिरिधर जी ने रामायण के रूप में वर्णन कर अपनी कीर्ति प्रभु भक्त के रूप में अमर कर ली। उनकी उक्ति है
ए राम कथा शुद्ध भाव थकी जे सुणे मणे नर-नारी जी । आ लोक मधे ते भोग भोगवे अंते हरिपद सार जी ॥ – गिरिधर रामा।, उत्तर १/२/५
“इस रामकथा को जो स्त्री-पुरुष पवित्र भाव एवं श्रद्धा से श्रवण-प्रवचन करेंगे, उनको इस लोक में इष्टभोग सुख की प्राप्ति होगी तथा अंत समय में श्रीराम के पद में स्थान मिलेगा।” महाकवि गिरधर का यह कथन सत्य है। रामकथा के अवगाहन से ही श्रीराम के आदर्शों को अपनाने की प्रेरणा मिलती है और जब जीवन में श्री राम के आदर्श समाहित हो गए हों, तो फिर भक्त-भगवान् का मिलन सहज संभव है।