संध्या वंदन क्या है और संध्या वंदन का समय
रात्रि और दिन का मिलनकाल संध्या कहा जाता है। निद्रा रात्रि है और जागरण दिन। संध्या वंदन उपासना का प्रथम और श्रेष्ठ स्वरूप है। हम सब संध्यावंदन अवश्य करें। प्रात: और सायं की जप-साधना जिनके लिए संभव है, वे उसे करें, किंतु निद्रा त्यागने और निद्रा की गोद में जाने के समय ईश्वर-स्मरण की सर्वसुलभ संध्या तो बिना नागा की ही जानी चाहिए। हर दिन नया जन्म और हर रात्रि नया मरण समझा जाना चाहिए। प्राप्त जीवन का महत्त्व, स्वरूप और उपयोग समझें। रात्रि को उसके सही समापन की तैयारी करें। उठते ही शुभारंभ की और शय्या पर जाते ही इतिश्री की बात सोचें। इस चिंतन का फलितार्थ जीवन-साधना की प्रेरणा देता है। ब्रह्मविद्या का सार-निष्कर्ष इस दो बार संध्यावंदन में प्राप्त हो सकता है।
प्रातः की जागरण संध्या
आँख खुलते ही स्मरण किया जाए कि मनुष्य जीवन ईश्वर की महान धरोहर है। जो सृष्टि के किसी प्राणी को नहीं मिला, वह मात्र मनुष्य को देकर ईश्वर ने न तो किसी के साथ पक्षपात किया है और न किसी के साथ अन्याय। मनुष्य का स्तर परखने के लिए उसको यह अवसर दिया है कि महत्त्वपूर्ण ईश्वरीय अनुदानों का वह सदुपयोग कर सके तो उसे अधिक ऊँचे ऐश्वर्य प्रदान किए जाएँ। मनुष्य की आवश्यकताएँ कम हैं।
उसे उपार्जन के लिए काया और बुद्धि के साधन दिए गए हैं। उचित आवश्यकताएँ वह अति सरलतापूर्वक पूर्ण कर सके, इतनी सुविधा देकर ईश्वर ने चाहा कि वह उसके प्रिय विश्व-उद्यान को अधिक सुंदर, समुन्नत, सुविकसित तथा सुसंस्कृत बनाने में योगदान करे। पशु प्रवृत्तियों को निरस्त करने और दैवी सद्गुणों को धारण करने का जो जितना तप-पुरुषार्थ कर सकता है, वह उसी परिमाण में जीवन- लक्ष्य पूरा करता है। ऐसा सन्मार्गगामी अंतःकरण में संतोष और उल्लास, दिव्यलोक से सिद्धियों और विभूतियों का वरदान प्राप्त करता है।
जीवन-संपदा की सार्थकता इसी में है कि उसे उपभोग की ललक से बचाकर उत्कृष्टतम उपलब्धि के निमित्त सदुपयोग में लगाया जाए। ऊँचा उठने, आगे बढ़ने और उज्ज्वल भविष्य की संरचना का यही बुद्धिमत्तापूर्ण कार्य है। इतना जानने और मानने वाले को आत्मज्ञानी कहते हैं। यही आत्मजागरण है। प्रातः काल शरीर के जागते ही आत्मजागरण का भी प्रयत्न किया जाए। इस चिंतन में जितना समय लगे, उसे ब्रह्मसंध्या माना जाए। यह विचारणा इतनी गहरी हो कि इसे चिंतन मात्र न रहने देकर यथार्थता की अनुभूति के स्तर तक उतारा जाए। यही प्रातः काल की ब्रह्मसंध्या है। मानवीय काया का ईश्वरीय प्रयोजन से ताल-मेल बिठाने की दूरदर्शिता ही ब्रह्मविद्या है। इसी को ऋतंभरा प्रज्ञा कहते हैं। गायत्री का अंतरात्मा में अवतरण इसी अमृतधारा के रूप में होता है। यही ब्रह्म साक्षात्कार है।
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संध्या वंदन का अर्थ
आँख खुलते ही बिस्तर पर पड़े-पड़े जीवन का स्वरूप, लक्ष्य और सदुपयोग समझने का अत्यंत गंभीरतापूर्वक चिंतन किया जाए। आज के दिन का सर्वश्रेष्ठ उपयोग करने की दिनचर्या बनाई जाए। दिनचर्या में शरीरयात्रा, परिवार दायित्व और लोकमंगल के इन तीनों प्रयोजनों को इस प्रकार पूरा करने की योजना बनाई जाए, जिसमें क्रिया के साथ आदर्शों का समुचित समन्वय रहे। आज की सुनियोजित दिनचर्या बनाकर बिस्तर छोड़ा जाए। प्रातः संध्या पूर्ण ।
सोते समय की रात्रि संध्या
रात्रि को सोते समय जीवनलीला के एक अध्याय की समाप्ति मानी जाए, इसे मृत्यु का विराम-प्रकरण समझा जाए। मृत्यु सबसे बड़ा गुरु है। नचिकेता को यम से ही परिपूर्ण अध्यात्म ज्ञान मिला था। परीक्षित को मृत्यु ने ही झकझोरा था। बुद्ध की आँखें एक मृतक को श्मशान जाते देखकर खुली थीं। सिकंदर को मृत्यु के सामने आने पर ही तत्त्वज्ञान समझ में आया था। हममें से प्रत्येक को जीवन संपदा की इतिश्री की दैनिक अनुभूति करनी चाहिए।
शय्या पर जाते ही अपने मरणकाल की अनुभूति की जाए। शरीर निर्जीव मृतक। उसकी अंत्येष्टि। संपदा का हस्तांतरण। संबंधियों से सूत्र-विच्छेद। आत्मा की एकाकी स्थिति। चिरकाल तक कष्ट देने वाला कुकम का प्रतिफल अलभ्य अवसर को पशु प्रयोजनों में गँवा देने का पश्चात्ताप। इस भयावह किंतु सुनिश्चित तथ्य पर पूरी गहराई से चिंतन किया जाए और उसके सुस्पष्ट छवि वाले कल्पना चित्र बनाकर बहुत ध्यानपूर्वक देखे जाएँ।
मरण सुनिश्चित है। मृत्यु जीवन की दूसरी धुरी है। उसे भुला देने से अनर्थ-ही-अनर्थ है। मृत्यु परम शांतिदायक होती है। थके और उद्विग्न प्राणी उसके आंचल में शांति प्राप्त करते हैं। तत्त्वबोध का अनुदान उसी के अनुग्रह से मिलता है। उठते समय आत्मबोध के लिए जीवन देवता की और सोते समय मरण की देवी की अभ्यर्थना करनी चाहिए। मृत्यु की अनुभूति ही तत्त्वज्ञान कराती है।
जिसे आत्मबोध और तत्त्वबोध का लाभ मिला, वही कृत-कृत्य हुआ। उसकी विचारणा और क्रियापद्धति उत्कृष्टता अपनाती है। जिसका प्रगति रथ सही दिशा में चल पड़ा, उसके लिए पूर्णता के लक्ष्य तक पहुँचने में कोई कठिनाई शेष नहीं रही। जीवन के जो दिन शेष हैं, वे इस प्रकार बिताए जाएँ, जिससे मरण की घड़ी का भाव भरा स्वागत किया जा सके और हँसी-खुशी प्रभु के दरबार में अपनी कुशलता का उपहार पाने जाया जा सके।
इस मन:स्थिति में अनासक्त कर्मयोग अपनाना ही सही लगेगा। लोभ और मोह के बंधन काटे जाएँ, मात्र कर्त्तव्यपालन ही लक्ष्य रहे। प्रभु के उद्यान का विनम्र माली बनकर जिया जाए। समय, श्रम, कौशल एवं साधनों की संपदा को ईश्वर की धरोहर मानकर उसका श्रेष्ठतम सदुपयोग किया जाए। अपना नीति-निर्धारण स्वयं किया जाए। इसमें ईमान और भगवान, दो की ही सलाह लेना पर्याप्त माना जाए। अन्यान्यों के परामर्श का जीवननीति-निर्धारण पर प्रभाव न पड़ने दिया जाए। लोग क्या कहते और क्या करते हैं, इसकी उपेक्षा की जाए। निर्धारण वही किया जाए, जिससे जीवन के और मरण के देवता प्रसन्न होकर दिव्य अनुदानों की बरसा कर सकें।
सोते समय इन्हीं विचारों में तैरते-डुबकी लगाते निद्रा की गोद में शांतिपूर्वक शयन किया जाए। चिंताओं का भार उतारने के लिए मरण-विचारणा से अधिक उपयुक्त दूसरी है नहीं। आज के कार्यों की समीक्षा की जाए। जो उचित हुआ, उसके लिए अपने सत्साहस को सराहा जाए और उसे प्रोत्साहित करते हुए कहा जाए कि अनौचित्य से और अधिक बहादुरी के साथ लड़ोगे। अगला दिन- भावी जीवन आज की अपेक्षा अधिक उत्कृष्ट होगा, यह विश्वास करते हुए सोएँ। यह सायंकालीन ब्रह्मसंध्या है। इसी को तत्त्वबोध एवं आत्मसाक्षात्कार कहते हैं।