ईशावास्योपनिषद – आत्मा के स्वरूप का प्रतिपादन करता उपनिषद

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ईशावास्योपनिषद – Ishavasya Upanishad

ईशोपनिषद (Ishavasya Upanishad Pdf) शुक्ल यजुर्वेदीय शाखा के अन्तर्गत एक उपनिषद है। ईशावास्य उपनिषद् अपने नन्हें कलेवर के कारण अन्य उपनिषदों के बीच बेहद महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। इसमें कोई कथा-कहानी नहीं है केवल आत्म वर्णन है। इस उपनिषद् के पहले श्लोक ‘‘ईशावास्यमिदंसर्वंयत्किंच जगत्यां-जगत…’’ से लेकर अठारहवें श्लोक ‘‘अग्ने नय सुपथा राये अस्मान् विध्वानि देव वयुनानि विद्वान्…’’ तक शब्द-शब्द में मानों ब्रह्म-वर्णन, उपासना, प्रार्थना आदि झंकृत है। एक ही स्वर है — ब्रह्म का, ज्ञान का, आत्म-ज्ञान का।

शांतिपाठ

ॐ वह पूर्ण है और यह भी पूर्ण है; क्योंकि पूर्ण से पूर्ण की ही उत्पत्ति होती है तथा पुर का पूर्णत्व लेकर पूर्ण ही बच रहता है। त्रिविध ताप की शांति हो।

सम्बन्ध भाष्य

‘ईशा वास्यम’ आदि मन्त्रों का कर्म में विनियोग नहीं है; क्योंकि वे आत्मा के यथार्थ स्वरूप का प्रतिपादन करने वाले हैं जो कि कर्म का शेष नहीं है। आत्मा का यथार्थ स्वरूप शुद्धत्व, निष्पापत्व, एकत्व, नित्यत्व, अशरीरत्व और सर्वगतत्व आदि है जो आगे कहा जाने वाला है। इसका कर्म से विरोध है; अतः इन मन्त्रों का कर्म में विनियोग न होना ठीक ही है।

आत्मा का ऐसे लक्षणों वाला यथार्थ स्वरूप उत्पाद्य, विकार्य, आप्य और संस्कार्य अथवा कर्ता-भोक्तारूप नहीं है, जिससे कि वह कर्म का शेष हो सके। सम्पूर्ण उपनिषदों की परिसमाप्ति आत्मा के यथार्थ स्वरूप का निरूपण करने में ही होती है तथा गीता और मोक्ष धर्मो का भी इसी में तात्पर्य है। अतः आत्मा के सामान्य लोगो की बुद्धि से सिद्ध होने वाले अनेकत्व, कर्तृत्व, भोक्तृत्व तथा अशुद्धत्व और पापमयत्व को लेकर ही कर्मों का विधान किया गया है।

कर्माधिकार के ज्ञाताओं का भी यही कथन है कि जो पुरुष ब्रह्म तेज आदि दृष्ट और स्वर्ग आदि अदृष्ट कर्म फलों का इच्छुक है और ‘मैं द्विजाति हूँ तथा कर्म के अनधिकारसूचक कनेपन, कुब्ड़ेपन आदि धर्मों से युक्त नहीं हूँ, ऐसा अपने को मानता है, वही कर्म का अधिकारी है।

अतः ये मन्त्र आत्मा के यथार्थ स्वरूप का प्रकाश करके आत्मसंबंधी स्वाभाविक अज्ञान को निवृत्त करते हुए संसार के शोकमोहादि धर्मों के विच्छेद के साधन स्वरूप आत्मैकत्वादि विज्ञानं को ही उत्पन्न करते हैं। इस प्रकार जिनके अधिकारी, विषय, संबंध और प्रयोजन का ऊपर उल्लेख हो चूका है, उन मन्त्रों की अब हम संक्षेप से व्याख्या करेंगे।

सर्वत्र भगवददृष्टि का उपदेश

जगत में जो स्थावर-जंगम संसार है, वह सब ईश्वर के द्वारा आच्छादनीय है। उसके त्याग-भाव से तू अपना पालन कर; किसी के धन की इच्छा न कर।

मनुष्य तवाभिमानी के लिए कर्मविधि

इस लोक में कर्म करते हुए ही सौ वर्ष जीने की इच्छा करे। इस प्रकार मनुष्यत्व अभिमान रखने वाले तेरे लिए इसके सिवा और कोई मार्ग नहीं है, जिससे तुझे (अशुभ)कर्म का लेप न हो।

अज्ञानी की निंदा

वे असुर संबंधी लोक आत्मा के अदर्शन रूप अज्ञान से आच्छादित हैं। जो कोई भी आत्मा का हनन करने वाले लोग हैं, वे मरने के अनंतर उन्हें प्राप्त होते हैं।

आत्मा का स्वरूप

वह आत्म तत्त्व अपने स्वरूप से विचलित न होने वाला, एक तथा अन से भी तीव्र गति वाला है। इसे इन्द्रियां प्राप्त नहीं कर सकीं; क्योंकि यह उन सबसे पहले गया हुआ है। वह स्थिर होने पर भी अन्य सब गतिशीलों को अतिक्रमण कर जाता है। उसके रहते हुए ही वायु समस्त प्राणियों के प्रवृत्तिरूप कर्मों का विभाग करता है।

वह आत्म तत्त्व चलता है और नहीं भी चलता। वह दूर है और समीप भी है। वह सबके अंतर्गत है और वही इस सबके बाहर भी है।

अभेददर्शी की स्थिति

जो सम्पूर्ण भूतों को आत्मा में ही देखता है और समस्त भूतों में भी आत्मा को ही देखता है, वह इस (सार्वात्म्यदर्शन)-के कारण ही किसी से घृणा नहीं करता। जिस समय ज्ञानी पुरुष के लिए सब भूत आत्मा ही हो गए, उस समय एकत्व देखने वाले उस विद्वान को क्या शोक और क्या मोह हो सकता है।

आत्मनिरूपण

वह आत्मा सर्वगत, शुद्ध, अशरीरी, अक्षत, स्नायु से रहित, निर्मल, अपापहत, सर्वद्रष्टा, सर्वज्ञ, सर्वोत्कृष्ट और स्वयम्भू है। उसी ने नित्य सिद्ध संवत्सर नामक प्रजापतियों के लिए यथायोग्य रीति से अर्थों का विभाग किया है।

ज्ञानमार्ग और कर्ममार्ग

इस मन्त्र द्वारा सम्पूर्ण एषणाओं के त्यागपूर्वक ज्ञाननिष्ठां का वर्णन किया गई, यही वेड का प्रथम अर्थ है। तथा जो अज्ञानी और जीवित रहने की इच्छा वाले है, उनके लिए ज्ञान निष्ठां संभव न होने पर “कुरवन्नेवेह कर्माणि-जिजीविषेत” इत्यादि मन्त्र से कर्मनिष्ठा कही है। यह दूसरा वेदार्थ है।उपर्युक्त मन्त्रों द्वारा दिखलाया हुआ इन निष्ठाओं का विभाग बृहदारण्यक में भी दिखाया है।

“उसने इच्छा की कि मेरे पत्नी हो” इत्यादि वाक्यों से यह सिद्ध होता है कि कर्म अज्ञानी और सकाम पुरुष के लिए ही है। “मन ही इसका आत्मा है, वाणी स्त्री है” इत्यादि वचन से भी कर्म निष्ठ का अज्ञानी और सकाम होना तो निश्चित रूप से जाना जाता है। तथा उसी का फल सप्तान्नसर्ग है। उसमें आत्म भावना करने से ही आत्मा की स्थिति होती है।

आत्मज्ञानियों के लिए तो वहां “जिन हमको यह आत्मलोक ही संपादन करना है वे हम प्रज्ञा को लेकर क्या करेंगे।” इत्यादि वाकया से जायादि तीन एषणाओं के त्यागपूर्वक कर्मनिष्ठा के विरुद्ध आत्मस्वरूप में स्थिर रहना ही दिखलाया है। जो ज्ञाननिष्ठ सन्यासी हैं उन्हें ही ‘असुर्या नाम ते लोका:’ यहाँ से लेकर ‘स पर्यगात’ इत्यादि तक के मन्त्रों से अज्ञानी की निंदा करते हुए आत्मा के यथार्थ स्वरूप का उपदेश किया है।

इस आत्म निष्ठां में उन्ही का अधिकार है, सकाम पुरुषों का नहीं। इसी प्रकार श्वेताश्वतर-मन्त्रोपनिषद में भी “ऋषि समूह से भली प्रकार सेवित इस परम पवित्र आत्मज्ञान का उत्तम आश्रम वालों को उपदेश किया” इत्यादि रूप से इसका पृथक उपदेश किया है। जो कर्मनिष्ठ कर्मठ लोग कर्म करते हुए ही जीवित रहना चाहते है उनसे यह कहा है-

कर्म और उपासना का समुच्चय

जो अविद्या की उपासना करते है वे घोर अंधकार में प्रवेश करते है और जो विद्या में ही रत है वे मानो उससे भी अधिक अन्धकार में प्रवेश करते हैं।

कर्म और उपासना के समुच्चय का फल

विद्या से और ही फल बतलाया गया है तथा अविद्या से और ही फल बतलाया है। ऐसा हमने बुद्धिमान पुरुषों से सुना है, जिन्होंने हमारे प्रति उसकी व्यवस्था की थी।

व्यक्त और अव्यक्त उपासना का समुच्चय

जो विद्या और अविद्या-इन दोनों को ही एक साथ जानता है, वह अविद्या से मृत्यु को पार करके विद्या से अमरत्व प्राप्त कर लेता है।

व्यक्त और अव्यक्त उपासना के फल

कार्य ब्रह्म की उपासना से और ही फल बतलाया गया है, तथा अव्यक्तोपासना से और ही फल बतलाया है। ऐसा हमने बुद्धिमानों से सुना है, जिन्होंने हमारे प्रति उसकी व्याख्या की थी।

जो असमभूति और कार्यब्रह्म इन् दोनों को साथ-साथ जानता है; वह कार्यब्रह्म की उपासना से मृत्यु को पार करके असम्भूति के द्वारा अमरत्व प्राप्त कर लेता है।

उपासक की मार्ग याचना

आदित्यमंडलस्थ ब्रह्म का मुख ज्योतिर्मय पात्र से ढका हुआ है। हे पूषन! मुझ सत्य धर्मं को आत्मा की उपलब्धि करने ले लिए तू उसे उघाड़ दे।

हे जगत्पोषक सूर्य! हे एकाकी गमन करने वाले! हे यम! हे सूर्य! हे प्रजापति नंदन! तू अपनी किरणों को हटा ले। तेरा जो अतिशय कल्यानमय रूप है, उसे मैं देखता हूँ। यह जो आदित्यमंडलस्थ पुरुष है वह मैं हूँ।

मरणोंन्मुख उपासक की प्रार्थना

अब मेरा प्राण सर्वात्मक वायु सूत्रात्मा को प्राप्त हो और यह शरीर भस्मशेष हो जाये। हे मेरे संकल्पात्मक मन! अब तू स्मरण कर, अपने किये हुए को स्मरण कर, अब तू स्मरण कर, अपने किये हुए को स्मरण कर।

हे अग्ने! हमें कर्मफल भोग के लिए सन्मार्ग से ले चल। हे देव! तू समस्त ज्ञान और कर्मों को जानने वाला है। हमारे पाषंडपूर्ण पापों को नष्ट कर। हम तेरे लिए अनेकों नमस्कार करते हैं।

ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्ण मेवावशिष्यते॥
ॐ शांति: शांति: शांति:

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