एकादशी व्रत क्यों किया जाता है ?
एकादशी तिथि को मनःशक्ति का केन्द्र चन्द्रमा क्षितिज की ग्यारहवीं कक्षा पर स्थित होता है। यदि इस अनुकूल समय में मनोनिग्रह की साधना की जाए तो वह शीघ्र फलवती सिद्ध हो सकती है। इस वैज्ञानिक आशय से ही एकादशेन्द्रियभूत मन को एकादशी तिथि के दिन धर्मानुष्ठान एवं व्रतोपवास द्वारा निग्रहीन करने का विधान किया गया है। यदि सार रूप् में कहा जाए तो एकादशी व्रत करने का अर्थ है- अपनी इंद्रियों का निग्रह करना।
देवशयनी एकादशी का व्रत क्यों ?
यह शास्त्र सम्मत है कि आषाढ़ मास के शुक्तपक्ष की एकादशी के दिन भगवान श्रीहरि चार मास के लिए क्षीर सागर की बजाय पाताल लोक मे बलि के द्वार पर शयन या विश्राम करने के लिए निवास करते है। यही कारण है कि इस व्रत का नामकरण देवशयनी या हरिशयनी एकादशी पडा। जब वे कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को वहां से लौटते हैं, तो उसे देवोत्थानी एकादशी कहा जाता हैं इस प्रकार आषाढ़ से कार्तिक के बीच चार माह में भगवान विष्णु के शयनकाल के दौरान किसी प्रकार का मांगलिक कार्य करना वर्जित माना गया हैं।
इस दिन दैनिक कार्याें से निवृत्त होकर, स्नान करके सूर्य को अर्ध्य दे। सांयकाल में विष्णु मुर्ति को पंचामृत से स्नान कराएं। फिर उन्हें श्वेत वस्त्र पहनाकर शयया पर विश्राम कराएं। धूप-दीप आदि से आरती प्रार्थना करें। व्रती पलंग पर सोना, पत्नी संग करना, झूठ बोलना, अन्न व नमक आदि का त्याग करें । भगवान श्रीहरि को फलों का भोग लगाकर भक्तों में बांट दे। सायंकाल पूजन के बाद एक समय भोजन ग्रहण करें ।
इस व्रत के करने से समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं, भगवान प्रसन्न होते हैं और इच्छित वस्तुएं प्रदान करते हैैं, यहां तक कि समस्त मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती हैं। मनुष्य को उत्तम गति प्राप्त होती है जो व्यक्ति प्रतिवर्ष यह व्रत करते हैं, वे अंत समय में वैकुंठलोक जाकर महप्रलय तक आनंदपूर्वक रहते हैॅं।
देवोत्थान एकादशी का व्रत क्यों ?
एकादशी के दिन चावल न खाने के संदर्भ में यह जानना आवश्यकता है कि चावल और अन्य अन्नों की खेती में क्या अंतर है? यह सर्वविदित है कि चावल की खेती के लिए सर्वाधिक जल की आवश्यकता होती है। जैसा कि सर्वविदित है कि एकादशी का व्रत इंद्रियों सहित मन के निग्रह के लिए किया जाता हैं ऐसे में यह आवश्यक है कि उस वस्तु का कम से कम या बिल्कुल उपभोग न किया जाए जिसमें जलीय तत्व की मात्रा अधिक होती है। कारण कि चंद्र का संबंध जल से हैं। वह जल को अपनी ओर आकर्षित करता है।
यदि व्रती चावल का भोजन करें तो चद्रकिरणें उसके शरीर के संपूर्ण जलीय अंश को तरंगित करेंगी। परिणामस्वरूप् मन मे विक्षेप ओैर संशय होगा और व्रती अपने व्रत से गिर जाऐगा। या जिस एकाग्रता से उसे व्रत के अन्य कर्म-स्तुति पाठ, जप, श्रवण एवं मननादि करने थे, उन्हें सही प्रकार से नहीं कर पाएगा।