धार्मिक कार्यों में अलग अलग दिशाओ का वैज्ञानिक महत्व और आरोग्य लाभ

धार्मिक कार्यों में अलग दिशाएं ?

शास्त्रों अनुसार दस दिशाएं मानी गई है- चार मुख्य, चार उपदिशा एवं ऊध्र्व-अधवरा। सूर्योंदय को पूर्व दिशा और सूर्यास्त को पश्चिम दिशा मानकर आठ अन्य दिशाएं निश्चित की गई हैं।

प्रातः संध्या में देव कार्य, यज्ञ कार्य, आचमन और प्राणयाम के लिए पूर्व दिशा की तरफ मुख किया जाता है। सायं संध्या में देव कार्य तथा पुण्य कार्य के लिए पश्चिम की तरफ मुख किया जाता है।

देवता स्थान और पुण्य संचय के लिए ईश की पश्चिम दिशा। श्राद्ध के समय विप्रों की उत्तर एवं कर्ता की दक्षिण दिशा स्वाध्याय, ऋषि कर्म व योगाभ्यास के लिए स्वयं की उत्तर दिशा होती है। इसी प्रकार विभिन्न कार्यों के लिए भी दिशाएं निर्धारित है।

आइए, अब वैज्ञानिक दृष्टि से भी दिशाओं का महत्त्व समझें-

पूर्व व पश्चिम दिशाओं का संबंध सूर्याकर्षण से है तथा उत्तर-दक्षिण का संबंध ध्रुवो के चुम्बकीय आकर्षण से है। देवकार्यादि के लिए पूर्व दिशा निश्चित करने के कारण ये कर्म दोपहर पूर्व संपन्न होते है। ब्रह्ममुहूर्त से मध्यान्तः तक सूर्य का आकर्षण रहने से ज्ञानतंतु विशेष रूप् से उत्तेजित रहते है। यम देवता का संबंध दक्षिण दिशा से है। पितरों का निवास दक्षिण की ओर होने से इनका आह्मन करने पर वे दक्षिण मेे स्थिर होकर उत्तर की तरफ मुंह करते है। इसलिए श्राद्धकर्ता का मुंह दक्षिण की ओर रहता हैं।

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सनातनी लोग पठन, स्वाध्याय एवं योगाभ्यास आदि कार्य उत्तर की तरफ मुंह रखकर करत है। उत्तर की ओर हिमालय तथा मान-सरोवर आदि अति पवित्र आध्यात्मिक क्षेत्र हैं। विवाह में अक्षतारोहण के समय दूल्हे का स्थान पूर्व की तरफ होने से उसकी सर्वांगीण प्रगति सूचित होती है। दुल्हन का स्थान पश्चिम की ओर होने से उसमें शर्म, नम्रता, मृदुलता एवं स्त्रीसुलभ कोमल गुण सूचित होते है। इस तरह नित्य साधना एवं उपासना आदि सभी कार्याें के लिए विभिन्न दिशाएं निश्चित की गई है।

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दक्षिण दिशा शुभ है या अशुभ ?

दक्षिण दिशा को लेकर जनमानस में बडी़ भ्रांतियां प्रचलित हैं। इसका कारण यह है कि हिन्दू धर्म के अनुसार हर दिशा के लिए एक लोकपाल की नियुक्ति की गई है। उसके अनुसार दक्षिण दिशा के लोकपाल यम है। लोंगों के मन में अज्ञानता के कारण यम के विषय में भय होने से दक्षिण दिशा को अंशुभ समझा जाने लगा ।

क्या यम और उनकी दक्षिण को सचमुच अशुभ समझना चाहिए, यह बडां गम्भीर प्रश्न है। सोचने वाली बात यह है कि यदि यम ने अपना कर्तव्य निभाया होता तो कल्पना कीजिए कि कितना भयंकर अनर्थ होता। इस बात का केवल विचार ही रोंगटे खडे़ कर देता है। जिस प्राणी का शरीर इहलोक के लिए व्यर्थ हो गया है या जिसका इहलोक का कार्य पूरा हो चूका है; ऐसे जीवो को अपने लोक ले जाने वाला, उनके दोेषों का निवारण एवं शुद्धिकरण करने वाला यम भला तिरस्कार योग्य कैसे हो सकता है।

यम का अर्थ ?

यम का अर्थ है – नियमन या नियंत्रण। दुनिया की हर छोटी-बडी़ क्रिया में नियंत्रण की आवश्यकता होती है। इसलिए यज्ञ कर्म में, विशेष रूप से से शांति कर्म में, यम का उल्लेख आग्रहपूर्वक होता है एवं उनकी पूजा भी की जाती हैं।

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यहीं नहीं, पृथ्वी के गर्भ में महाचुंबक दक्षिणोत्तर ही हैं। जनमानस में यह मान्यता व्याप्त है कि उनके घर का मुंह दक्षिण की ओर न हो, दक्षिण अति पवित्र दिशा होने के कारण घर में भी उतनी ही पवित्रता रखनी होगी। यज्ञ कर्मं में तो दक्षिण दिशा मे मार्जन करने पर हाथ धोने की प्रथा है। अतः दक्षिण दिशा अशुभ नहीं है।

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