नवधा भक्ति (Navdha Bhakti) नवधा भक्ति क्या है

नवधा भक्ति क्या है | Navdha Bhakti

व्यक्ति अपने जीवन में कई प्रकार की भक्ति करता है। उनमें से, ईश्वर भक्ति के अंतर्गत नवधा भक्ति (Navadha Bhakti) आती है। ‘नवधा’ का अर्थ है ‘नौ प्रकार से या नौ भेद’। अतः ‘नवधा भक्ति’ यानी ‘नौ प्रकार से भक्ति’। इस भक्ति का विधिवत पालन करने से भक्त भगवान को प्राप्त कर सकता है। जिन भक्तों ने भगवान को प्राप्त नहीं किया है और जिन्होंने प्राप्त किया है, वे दोनों नवधा भक्ति करते हैं। वैष्णव भक्तों ने इस भक्ति का बहुत प्रचार-प्रसार किया है।

नवधा भक्ति श्लोक | navdha bhakti lyrics

श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पाद सेवनं |
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्म निवेदनं ||

श्लोकार्थ – श्रवण (परीक्षित), कीर्तन (शुकदेव), स्मरण (प्रह्लाद), पादसेवन (लक्ष्मी), अर्चन (पृथुराजा), वंदन (अक्रूर), दास्य (हनुमान), सख्य (अर्जुन) और आत्मनिवेदन (बलि राजा) – इन्हें नवधा भक्ति कहते हैं।

नवधा भक्ति के प्रकार | navdha bhakti ke prakar

श्रवण भक्ति – भगवान् की कथाओ को सुन ना | मंत्र-धुन आदि को सुनना | भगवान् के चरित्रों को सुनना | ऐसे कई प्रमाण है की कथा श्रवण से भी भगवान् को प्राप्त कर सकते है |

कीर्तन भक्ति – यानी भगवान् के आगे नृत्य करना, अगर कोई मंत्र, जाप, पूजा, अर्चना, भले ही कुछ ना आये किन्तु भगवान् की धुनों का संगीत के साथ माने किर्तार आदि वाद्यों के साथ स्मरण करना कीर्तन भक्ति है |

स्मरण भक्ति – अपने इष्टदेवता का, कुलदेवता का, भगवान् का ह्रदय से आभार व्यक्त करना,प्रार्थना करना और निरंतर भगवान् भक्ति में तत्पर रहना | उठते-बैठते भगवान् का स्मरण करना |

पादसेवन भक्ति – यानी भगवान् के चरणों की सेवा करना,पादुका पूजन करना | अपने आपको भगवान के चरणों में ही समर्पित कर देना | भगवान् की चरणसेवा करना |

अर्चन भक्ति – यानी सभी देवती या देवता को भगवान् के प्रिय द्रव्यों से सहस्त्र नामो के द्वारा अर्चना करना | भगवान् को तिलक आदि करना,अक्षत-तिल-पुष्प आदि अर्पण करना |

वंदन भक्ति – भगवान् को वाणी सहित ह्रदय से याद करना | साष्टांग नमस्कार करना | प्रणाम करना | भगवान् को दोनों हाथो से झुककर प्रणाम करना |

दास्य भाव भक्ति – भगवान् का दास बनकर भक्ति करना | भक्ति में भगवान् ही हमारे है, हम भगवान् के है इस भाव को रखकर भगवान का दास बनकर भक्ति करना |

सख्य आत्म भक्ति – भगवान् को अपना सखा बनाकर भक्ति करना या यह भी कहा जाता है, खुद भगवान् का सखा बनकर भक्ति करना आत्मीय भाव से |

नवधा भक्ति रामायण चौपाई | navdha bhakti ramayan

भगवान् श्रीराम जब भक्तिमती शबरीजी के आश्रम में आते हैं तो भावमयी शबरीजी उनका स्वागत करती हैं, उनके श्रीचरणों को पखारती हैं, उन्हें आसन पर बैठाती हैं और उन्हें रसभरे कन्द-मूल-फल लाकर अर्पित करती हैं। प्रभु बार-बार उन फलों के स्वाद की सराहना करते हुए आनन्दपूर्वक उनका आस्वादन करते हैं। इसके पश्चात् भगवान राम शबरीजी के समक्ष नवधा भक्ति का स्वरूप प्रकट करते हुए उनसे कहते हैं कि-

नवधा भकति कहउँ तोहि पाहीं।
सावधान सुनु धरु मन माहीं।।

प्रथम भगति संतन्ह कर संगा।
दूसरि रति मम कथा प्रसंगा।।

अर्थात् :- मैं तुझसे अब अपनी नवधा भक्ति कहता हूँ। तू सावधान होकर सुन और मन में धारण कर। पहली भक्ति है संतों का सत्संग। दूसरी भक्ति है मेरे कथा प्रसंग में प्रेम।

गुर पद पकंज सेवा तीसरि भगति अमान।
चौथि भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान। ( चौपाई – दोहा 35)

अर्थात् :- तीसरी भक्ति है अभिमानरहित होकर गुरु के चरण कमलों की सेवा और चौथी भक्ति यह है कि कपट छोड़कर मेरे गुण समूहों का गान करें। गुरु के चरण कमलों की सेवा करना यह तीसरी ‘चरण सेवा’ भक्ति है। चौथी भक्ति गुण समूहों का गान यानी कीर्तन भक्ति है।

मन्त्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा।
पंचम भजन सो बेद प्रकासा।।

छठ दम सील बिरति बहु करमा।
निरत निरंतर सज्जन धरमा।।

अर्थात् :- मेरे (राम) मंत्र का जाप और मुझमें दृढ़ विश्वास- यह पाँचवीं भक्ति है, जो वेदों में प्रसिद्ध है। छठी भक्ति है इंद्रियों का निग्रह, शील (अच्छा स्वभाव या चरित्र), बहुत कार्यों से वैराग्य और निरंतर संत पुरुषों के धर्म (आचरण) में लगे रहना।

सातवँ सम मोहि मय जग देखा।
मोतें संत अधिक करि लेखा।।

आठवँ जथालाभ संतोषा।
सपनेहुँ नहिं देखइ परदोषा।।

अर्थात् :- सातवीं भक्ति है जगत्‌ भर को समभाव से मुझमें ओतप्रोत (राममय) देखना और संतों को मुझसे भी अधिक करके मानना। आठवीं भक्ति है जो कुछ मिल जाए, उसी में संतोष करना और स्वप्न में भी पराए दोषों को न देखना।

नवम सरल सब सन छलहीना।
मम भरोस हियँ हरष न दीना।। (1-5 चौपाई दोहा 36)

अर्थात् :- नवीं भक्ति है सरलता और सबके साथ कपटरहित बर्ताव करना, हृदय में मेरा भरोसा रखना और किसी भी अवस्था में हर्ष और दैन्य (विषाद) का न होना। इन नवों में से जिनके एक भी होती है, वह स्त्री-पुरुष, जड़-चेतन कोई भी हो-

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