शनिवार व्रत कथा | Shani Dev Vrat Katha
Shani Dev Vrat Katha – अग्नि पुराण के अनुसारशनि ग्रह की से मुक्ति केलिए “मूल” नक्षत्र युक्तशनिवार से आरंभ करकेसात शनिवार शनिदेव की पूजा (Shani Vrat Katha) करनी चाहिए और व्रत करना चाहिए। व्रत कथा (Shani Dev Vrat Katha in Hindi) एक समय में स्वर्गलोक में सबसे बड़ा कौन के प्रश्न पर नौ ग्रहों में वाद-विवाद हो गया। निर्णय के लिए सभी देवता देवराज इन्द्र के पास पहुंचे और बोले- हे देवराज, आपको निर्णय करना होगा कि हममें से सबसे बड़ा कौन है? देवताओं का प्रश्न सुन इन्द्र उलझन में पड़ गए, फिर उन्होंने सभी को पृथ्वीलोक में राजा विक्रमादित्य के पास चलने का सुझाव दिया।
सभी ग्रह भू-लोक राजा विक्रमादित्य के दरबार में पहुंचे। जब ग्रहों ने अपना प्रश्न राजा विक्रमादित्य से पूछा तो वह भी कुछ देर के लिए परेशान हो उठे क्योंकि सभी ग्रह अपनी-अपनी शक्तियों के कारण महान थे। किसी को भी छोटा या बड़ा कह देने से उनके क्रोध के प्रकोप से भयंकर हानि पहुंच सकती थी।
अचानक राजा विक्रमादित्य को एक उपाय सूझा और उन्होंने विभिन्न धातुओं जैसे सोना, चांदी, कांसा, तांबा, सीसा, रांगा, जस्ता, अभ्रक व लोहे के नौ आसन बनवाएं। सबसे आगे सोना और सबसे पीछे लोहे का आसन रखा गया। उन्होंने सभी देवताओं को अपने-अपने आसन पर बैठने को कहा। उन्होंने कहा- जो जिसका आसन हो ग्रहण करें, जिसका आसन पहले होगा वह सबसे बड़ा तथा जिसका बाद में होगा वह सबसे छोटा होगा।
चूंकि लोहे का आसन सबसे पीछे था इसलिए शनिदेव समझ गए कि राजा ने मुझे सबसे छोटा बना दिया है। इस निर्णय से शनि देव रुष्ट होकर बोले- हे राजन, तुमने मुझे सबसे पीछे बैठाकर मेरा अपमान किया है। तुम मेरी शक्तियों से परिचित नहीं हो।सूर्य एक राशि पर एक महीने, चन्द्रमा दो महीने दो दिन, मंगल डेढ़ महीने, बुध और शुक्र एक महीने, बृहस्पति तेरह महीने रहते हैं, लेकिन मैं किसी भी राशि पर ढ़ाई वर्ष से लेकर साढ़े सात वर्ष तक रहता हूं। बड़े-बड़े देवताओं को मैंने अपने प्रकोप से पीड़ित किया है अब तू भी मेरे प्रकोप से सावधान रहना।
इस पर राजा विक्रमादित्य बोले- जो कुछ भाग्य में होगा देखा जाएगा।
इसके बाद अन्य ग्रहों के देवता तो प्रसन्नता के साथ चले गए, परन्तु शनिदेव बड़े क्रोध के साथ वहां से विदा हुए। कुछ समय बाद जब राजा विक्रमादित्य पर साढ़े साती की दशा आई तो शनिदेव ने घोड़े के व्यापारी का रूप धारण किया और बहुत से घोड़ों के साथ विक्रमादित्य की नगर पहुंचे। राजा विक्रमादित्य उन घोड़ों को देखकर एक अच्छे-से घोड़े को अपनी सवारी के लिए चुनकर उस पर चढ़े। राजा जैसे ही उस घोड़े पर सवार हुए वह बिजली की गति से दौड़ पड़ा।
तेजी से दौड़ता हुआ घोड़ा राजा को दूर एक जंगल में ले गया और फिर वहां राजा को गिराकर गायब हो गया। राजा अपने नगर लौटने के लिए जंगल में भटकने लगा पर उसे कोई रास्ता नहीं मिला। राजा को भूख प्यास लग आई। बहुत घूमने पर उन्हें एक चरवाहा मिला। राजा ने उससे पानी मांगा। पानी पीकर राजा ने उस चरवाहे को अपनी अंगूठी दे दी और उससे रास्ता पूछकर जंगल से निकलकर पास के नगर में चल दिए।
नगर पहुंच कर राजा एक सेठ की दुकान पर बैठ गए। राजा के कुछ देर दुकान पर बैठने से सेठ की बहुत बिक्री हुई। सेठ ने राजा को भाग्यवान समझा और उसे अपने घर भोजन पर ले गया। सेठ के घर में सोने का एक हार खूंटी पर लटका हुआ था। राजा को उस कमरे में छोड़कर सेठ कुछ देर के लिए बाहर चला गया। तभी एक आश्चर्यजनक घटना घटी। राजा के देखते-देखते खूंटी सोने के उस हार को निगल गई।
सेठ ने जब हार गायब देखा तो उसने चोरी का संदेह राजा पर किया और अपने नौकरों से कहा कि इस परदेशी को रस्सियों से बांधकर नगर के राजा के पास ले चलो। राजा ने विक्रमादित्य से हार के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि खूंटी ने हार को निगल लिया। इस पर राजा क्रोधित हुए और उन्होंने चोरी करने के अपराध में विक्रमादित्य के हाथ-पांव काटने का आदेश दे दिया। सैनिकों ने राजा विक्रमादित्य के हाथ-पांव काट कर उन्हें सड़क पर छोड़ दिया।
कुछ दिन बाद एक तेली उन्हें उठाकर अपने घर ले गया और उसे कोल्हू पर बैठा दिया। राजा आवाज देकर बैलों को हांकता रहता। इस तरह तेली का बैल चलता रहा और राजा को भोजन मिलता रहा। शनि के प्रकोप की साढ़े साती पूरी होने पर वर्षा ऋतु प्रारंभ हुई। एक रात विक्रमादित्य मेघ मल्हार गा रहा था, तभी नगर की राजकुमारी मनभावनी रथ पर सवार उस घर के पास से गुजरी। उसने मल्हार सुना तो उसे अच्छा लगा और दासी को भेजकर गाने वाले को बुला लाने को कहा। दासी लौटकर राजकुमारी को अपंग राजा के बारे में सब कुछ बता दिया। राजकुमारी उसके मेघ मल्हार से बहुत मोहित हुई और सब कुछ जानते हुए भी उसने अपंग राजा से विवाह करने का निश्चय किया।
राजकुमारी ने अपने माता-पिता से जब यह बात कही तो वह हैरान रह गए। उन्होंने उसे बहुत समझाया पर राजकुमारी ने अपनी जिद नहीं छोड़ी और प्राण त्याग देने का निश्चय कर लिया। आखिरकार राजा-रानी को विवश होकर अपंग विक्रमादित्य से राजकुमारी का विवाह करना पड़ा।
विवाह के बाद राजा विक्रमादित्य और राजकुमारी तेली के घर में रहने लगे। उसी रात स्वप्न में शनिदेव ने राजा से कहा- राजा तुमने मेरा प्रकोप देख लिया। मैंने तुम्हें अपने अपमान का दंड दिया है। राजा ने शनिदेव से क्षमा करने को कहा और प्रार्थना की- हे शनिदेव, आपने जितना दुःख मुझे दिया है, अन्य किसी को न देना।
शनिदेव ने कहा- राजन, मैं तुम्हारी प्रार्थना स्वीकार करता हूं। जो कोई स्त्री-पुरुष मेरी पूजा करेगा, कथा सुनेगा, जो नित्य ही मेरा ध्यान करेगा, चींटियों को आटा खिलाएगा वह सभी प्रकार के कष्टों से मुक्त होता रहेगा तथा उसके सब मनोरथ पूर्ण होंगे। यह कहकर शनिदेव अंतर्ध्यान हो गए।
प्रातःकाल राजा विक्रमादित्य की नींद खुली तो अपने हाथ-पांव देखकर राजा को बहुत खुशी हुई। उन्होंने मन ही मन शनिदेव को प्रणाम किया। राजकुमारी भी राजा के हाथ-पांव सलामत देखकर आश्चर्य में डूब गई। तब राजा विक्रमादित्य ने अपना परिचय देते हुए शनिदेव के प्रकोप की सारी कहानी सुनाई।
इधर सेठ को जब इस बात का पता चला तो दौड़ता हुआ आया और राजा विक्रमादित्य के चरणों में गिरकर क्षमा मांगने लगा। राजा विक्रमादित्य ने उसे क्षमा कर दिया क्योंकि वह जानते थे कि यह सब तो शनिदेव के प्रकोप के कारण हुआ था। सेठ राजा विक्रमादित्य को पुन: को अपने घर ले गया और उसे भोजन कराया। भोजन करते समय वहां एक आश्चर्य घटना घटी। सबके देखते-देखते उस खूंटी ने हार उगल दिया। सेठ ने अपनी बेटी का विवाह भी राजा के साथ कर दिया और बहुत से स्वर्ण आभूषण, धन आदि देकर राजा को विदा किया।
राजा विक्रमादित्य राजकुमारी मनभावनी और सेठ की बेटी के साथ अपने नगर वापस पहुंचे तो नगरवासियों ने हर्ष के साथ उनका स्वागत किया। अगले दिन राजा विक्रमादित्य ने पूरे राज्य में घोषणा कराई कि शनिदेव सब ग्रहों में सर्वश्रेष्ठ हैं। प्रत्येक स्त्री-पुरुष शनिवार को उनका व्रत करें और व्रतकथा अवश्य सुनें। राजा विक्रमादित्य की घोषणा से शनिदेव बहुत प्रसन्न हुए। शनिवार का व्रत करने और व्रत कथा सुनने से शनिदेव की अनुकंपा बनी रहती है और जातक के सभी दुख दूर होते हैं।