सनातन धर्म के रहस्य – भाग 1

मृतक का सिर उत्तर दिशा की ओर क्यों रखते हैं?

मृत्युकाल के समय प्राणी (मनुष्य) को उत्तर की ओर सिर करके इसलिए लिटाते हैं कि प्राणों का उत्सर्ग दशम द्वार से हो । चुम्बकीय विद्युत प्रवाह की दिशा दक्षिण से उत्तर की ओर होती है। कहते हैं कि मरने के बाद भी कुछ क्षणों तक प्राण मस्तिष्क में रहते हैं। अतः उत्तर दिशा में सिर करने से ध्रुवाकर्षण के कारण प्राण शीघ्र निकल जाता हैं।

मृत्यु किन दिनों में हो तो उत्तम है किन दिनों में मृत्यु होना निन्दनीय होता है?

शुक्ल पक्ष, दिन और उत्तरायण के छः महीनों में मृत्यु हो तो प्राणी की आत्मा ब्रह्मलोक में पहुँचकर ब्रह्म में विलीन हो जाती है जबकि दक्षिणायण के छः महीनों में जिनकी मृत्यु होती है वे चन्द्र लोग तक जाकर पुनः मृत्युलोक में जन्म लेते हैं।

सनातन धर्म में स्त्रियाँ माँग में सिन्दूर क्यों लगाती हैं?

सीमन्त अर्थार् माँग में सिन्दूर लगाना सुहागिन स्त्रियों का सूचक हैं। हिन्दुओं में विवाहित स्त्रियाँ ही सिन्दूर लगाती हैं। कुंवारी कन्याओं एवम् विधवा स्त्रियों के लिए सिन्दूर लगाना वर्जित है। इसके अलावा सिन्दूर लगाने से स्त्रियों के सौंदर्य में भी निखार आता है अर्थात् उनकी सुन्दरता बढ़ जाती है। विवाह-संस्कार के समय वर (दूल्हा), वधू (दुल्हन) के मस्तक में मंत्रोच्चार के मध्य पाँच अथवा सात बार चुटकी से सिन्दूर डालता है। तत्पश्चात् विवाह कार्य सम्पन्न हो जाता है। उस दिन से वह स्त्री अपने पति की दीर्घायु (लम्बी आयु) के लिए प्रतिदिन सिन्दूर लगाती है। माँग में दमकता सिन्दूर स्त्रियों के सुहाग की घोतक हैं।

वैज्ञानिक कारण-

ब्रह्मारन्ध्र और अध्मि नामक मर्मस्थान के ठीक ऊपर स्त्रियाँ सिन्दूर लगाती हैं जिसे समान्य भाषा में सीमन्त अथवा माँग कहते हैं। पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों का यह भाग अपेक्षाकृत कोमल होता है। चूँकि सिन्दूर में पारा जैसी धातु अत्याधिक मात्रा में पायी जाती है जो स्त्रियों के शरीर की विद्युतीय ऊर्जा को नियंत्रित करता है और मर्मस्थल को बाहरी दुष्प्रभावों से बचाता भी है, अतः वैज्ञानिक दृष्टि से भी स्त्रियों को सिन्दूर लगाना आवश्यक है।

तिलक क्यों लगाते है?

शास्त्रों के अनुसार यदि ब्राह्मण तिलक नहीं लगाता तो उसे ‘चण्डाल’ समझना चाहिए। तिलक धारण करना धार्मिक कार्य माना गया है। क्या तिलक केवल ब्राह्मण लगा सकते हैं अन्य जातियाँ नहीं? तिलक, त्रिपुण्ड, टीका अथवा बिन्दिया आदि का सीधा संबंध मस्तिष्क से होता हैं। मनुष्य की दोनों भौंहों के बीच आज्ञा चक्र’ स्थित है। इस चक्र पर ध्यान केन्द्रित करने पर भी साधक का मन पूर्ण शक्ति सम्पन्न हो जाता है। इसे ‘चेतना केन्द्र’ भी कहा जाये तो अनुचित न होगा अर्थात् समस्त ज्ञान एवम् चेतना का संचालन इसी स्थान से होता है। आज्ञा चक्र’ ही ‘तृतीय नेत्र है इसे ‘दिव्यनेत्र’ भी कहते हैं। तिलक लगाने से आज्ञा चक्र’ जागृत होता हैं जिसकी तुलना राडार, टेलिस्कोप आदि से की जा सकती है। इसके अलावा तिलक सम्मान-सूचक भी है। तिलक लगाने से साधता (सज्जनता) एवम् धार्मिकता का आभास होता है।

वैज्ञानिक कारण – जब हम मस्तिष्क से आवश्यकता से अधिक काम लेते हैं तब ज्ञान – तन्तुओं के विचारक केन्द्र भृकुटि और ललाट के मध्य भाग में पीड़ा उत्पन्न हो जाती है। ठीक उस स्थान पर जहाँ तिलक, त्रिपुण्ड लगाते हैं। चन्दन का तिलक ज्ञान-तन्तुओं को शीतलता प्रदान करता है। जो प्रतिदिन प्रातः काल स्नान के पश्चात् चन्दन का तिलक लगाता है उसे सिर दर्द की शिकायत नहीं होती। इस तथ्य को डाक्टर्स एवम् वैद्य. हकीम भी स्वीकार करते हैं।

मृत्यु के पश्चात् श्राद्ध आदि क्रियाओं को पुत्र ही क्यों करें?

पिता के वीर्य अंश उत्पन्न पुत्र पिता के समान ही व्यवहार वाला होता है। हिन्दू धर्म में पुत्र का अर्थ हैं- ‘पु’ नाम नर्क से ‘त्र’ त्राण करना अर्थात् पिता को नरक से निकालकर उत्तम स्थान प्रदान करना ही ‘पुत्र’ का कर्म है। यही कारण है कि पिता की समस्त और्ध्व दैहिक क्रियायें पुत्र ही करता है। एक ही मार्ग से दो वस्तुएं उत्पन्न होती हैं। एक ‘पुत्र’ तथा दूसरा ‘मूत्र’ यदि पिता के मरणोपरान्त उसका पुत्र सारे अन्तेष्टि संस्कार नहीं करता तो वह भी मूत्र’ के समान होता है।

शिखा क्यों रखते हैं? तथा शिखा में गाँठ लगाने का क्या उद्देश्य हैं ?

सन्धया चन्दन, गायत्री जप, यज्ञ अनुष्ठान आदि में शिक्षा का होना परम आवश्यक है। द्विज (ब्राहम्णों) के लिखे शास्त्र भी शिखा रखने के लिए कहते हैं। धर्म शास्त्रों के अनुसार शिखा में ग्रन्थि लगाकर ही संध्यावन्दन या यज्ञ हवन आदि करना चाहिए।

वैज्ञानिक कारण– शिखा वाले स्थान पर ‘ब्रह्म रन्ध्र’ होता है जिसे ‘दशम द्वार’ भी कहते हैं जरा सी चोट उस स्थान पर लगने से मनुष्य की मृत्यु भी हो सकती हैं। दशमद्वार की रक्षा हेतु शिखा रखने का विधान हैं।

बिना स्नान किये भोजन करना उचित है अथवा अनुचित?

शास्त्र कहते हैं कि बिना स्नान किये भोजन करना गंदगी खाने के समान होता हैं- “अस्त्रायी समलं भुक्ते”

वैज्ञानिक कारण – विज्ञान के अनुसार स्नान करने से शरीर के रोम कूपों का सिंचन हो जाता हैं अर्थात् शरीर से निकले पसीने से जो पानी की कमी हो चुकी होता है, स्नान करने से उसकी पूर्ति हो जाती है। शरीर में शीतलता और स्फूर्ति आ जाती है तथा भूख भी लग जाती हैं। यदि भूख पहले से लग रही है तो बढ़ जाती है तब भोजन करें। इस तरह भोजन का रस हमारे शरीर के लिए • पुष्टिवर्द्धक सिद्ध होता हैं। बिना स्नान किये भोजन कर लें तो हमारी जठराग्नि उसे पचाने के कार्य में लग जाती हैं। उसके बाद स्नान करने पर शरीर शीतल पड़ जाता हैं और पाचन शक्ति मंद पड़ जाती हैं। जिसका परिणाम यह होता हैं कि भोजन पूर्ण रूप से नहीं पच पाता और कब्ज अथवा गैस की शिकायत उत्पन हो जाती है

स्नान करने से पहले क्या कुछ खाया जा सकता हैं?

स्नान करने से पूर्व यदि जोरों की भूख लगी है तो स्नान किये बिना तरल भोजन किया जा सकता हैं, जैसे दूध, गन्ने का रस, जूस आदि तथा फल को भी सेवन कर सकते हैं।

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