शक्ति अर्जन हेतु तप और साधना का पर्व नवरात्री

शक्ति अर्जन हेतु तप का संदेशा लाई नवरात्री

चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को चैत्र नवरात्रारंभ हो रहा है। नवरात्री शक्ति-साधना का संधिपर्व है। शक्ति की साधना सधती है-शक्ति-संचय एवं इस संचित-शक्ति के सदुपयोग से। इस शक्ति का सदुपयोग दो प्रकार से हो सकता है-जगत की सेवा से और आत्मपरिष्कार से। नवरात्र के संधिकाल में प्रवाहित विशिष्ट शक्तिधाराओं को महातप से आकर्षित किया जाता है। अपनी साधना के अनुरूप प्रत्येक मंत्र के साथ यह शक्ति साधक के अंदर प्रविष्ट होती है और उसके व्यक्तित्व को नूतन आकार प्रदान करती है। अतः इन दिनों संयम की विशेष आवश्यकता पड़ती है, ताकि अर्जित शक्ति संचित हो और इच्छित दिशा में इसका नियोजन बन सके।

नवरात्री
नवरात्री

निष्क्रिय ब्रह्म जब सक्रिय होता है तो शक्ति आकार लेती है और यही आदिशक्ति सृष्टि की संरचना करती है-जड़, जीव और मनुष्य का सर्जन करती है। अतः यह संसार कुछ नहीं, बल्कि शक्ति का संधान है। जीत उसी की होती है। शक्ति में भक्ति का संयोग सृजनशीलता की दिशा तय करता है, परंतु इसके अभाव में शक्ति का दुरुपयोग होता है। शक्ति में भक्ति का समन्वय अनेक कल्पनाचित्र उकेरता है। इसे हम अपनी सर्वाधिक प्रिय माता का स्थान प्रदान करते हैं। यही शक्ति गायत्री, दुर्गा, महालक्ष्मी, महासरस्वती और महाकाली के रूप में प्रतिपादित होती है। इनकी प्रकृति की भिन्नता के होते हुए मूल में वही आदिशक्ति के रूप में प्रतिष्ठित होती हैं।

अभीष्ट सिद्धि की प्राप्ति

शक्ति की उपासना होती है। इसकी पूजा होती है। नवरात्र के इन विशेष क्षणों में की गई उपासना साधना शारीरिक परिमार्जन, निष्कासन से लेकर दिव्य अनुदानों के ग्रहण-अवधारण तक के दिव्य लाभ एवं अभीष्ट सिद्धि के साथ चरितार्थ होती है। प्रज्ञावान इस शक्ति-साधना के विशेष अवसर को कभी नहीं गँवाते-चूकते। अपने देश में शक्तिपूजा अनेक रूपों में देखने को मिलती है। अपनी कुछ परंपराओं के अनुरूप इन नौ दिनों का उपयोग किया जाता है। रामभक्त इन दिनों रामायण का और कृष्णभक्त गीता, श्रीमद्भागवत का पारायण करते हैं।

गायत्री जप का लघु अनुष्ठान

देवी उपासक नौ दिनों में दुर्गा सप्तशती का पारायण करते हैं तथा नवार्ण मंत्र का अनुष्ठान करते हैं। तपस्वी इन दिनों कठोर व्रत-उपवास करते हैं। तंत्र विधान में शव-साधना, कुमारी पूजन, कुंडलिनी जागरण, चक्रवेधन आदि की रहस्यमयी साधनाएँ विशेष रूप से इन्हीं दिनों संपन्न की जाती हैं। प्रज्ञा परिजन गायत्री जप का लघु अनुष्ठान (चौबीस हजार मंत्रजप) संपन्न करते हैं।

सामान्यतः नवरात्र को नौ दुर्गा उपासना से जोड़कर देखा जाता है। ऐसे में मन में असमंजस की स्थिति उभर सकती है कि गायत्री अनुष्ठान का इससे क्या संबंध सूत्र है ? तात्त्विक रूप से दुर्गा और गायत्री में कोई भेद नहीं है। दोनों एक ही शक्ति की धारा के दो रूप हैं। दुर्गा मनुष्य की पापमयी वृत्तियों को दोष दुर्गुणों, कषाय कल्मषों को नष्ट करने वाली महाशक्ति है। इन दुष्प्रवृत्तियों को ही महिषासुर कहते हैं। गायत्री इन वृत्तियों को सात्विकता की ओर विकसित करती है, अंतर में पवित्रता भर देती है। दुर्गा संहारक शक्ति और गायत्री सृजनशील शक्ति है। दुर्गा की उपासना से दुष्प्रवृत्तियाँ नष्ट और गायत्री की साधना से सत्प्रवृत्तियों का उदय होता है। जीवन में दोनों की आवश्यकता है, परंतु अपनी आवश्यकता के आधार पर इनका चुनाव किया जाता है।

शक्ति की तो साधना की जाती है और यह परंपरा सदियों से अबाध और निर्बाध गति से चली आ रही है। पर हम जहाँ हैं, वहीं खड़े रह जाते हैं, बल्कि कभी-कभी तो और नीचे की ओर उतरते चले जाते हैं इसके कारण की गहराई में उतरने पर उपासना के कर्मकांड में कोई त्रुटि नजर नहीं आती है। फिर ऐसा क्या है, जो हमारी वृत्तियाँ परिष्कृत नहीं हो पा रही हैं? पैनी नजर से देखें तो पता चलेगा कि शक्ति का संचय तो हुआ, परंतु संयम के अभाव में समस्त ऊर्जा छिद्रों से बहकर नष्ट हो गई— जो पाया, सारा-का-सारा खो गया और इसका अनुभव तक न हुआ।

करने का पता तो चला कि हम नौ दिन भूखे पेट रहे, अस्वाद भोजन किया, शरीर को कठोर सेज पर सुलाया और इससे ऊर्जा संचित भी हुई, पर मन के असंयमी छिद्रों ने इसे बहा दिया। जो संचित हुआ था, वह तनिक भी न रुका। शरीर तो तपा, पर मन जैसा था, वैसा ही बना रहा, वहीं प्रपंच और कुचक्र गढ़ता रहा और शक्ति संचित होने से पूर्व ही, इसका सदुपयोग बन पड़ने से पहले ही, ओस की बूँदों के समान गल गई।

नवरात्री महातप का महापर्व

वस्तुत: नवरात्र महातप का महापर्व है और तप है-शक्ति का संचय और इसका विशिष्ट सदुपयोग इन दोनों के संयोग के बिना तप की प्रक्रिया पूरी नहीं होती। अर्जित शक्ति का सदुपयोग होना भी आवश्यक है। यह सदुपयोग अपनी वृत्तियों के परिष्कार में भी हो सकता है तथा किसी श्रेष्ठ कार्य में भी नियोजित हो सकता है। इससे हम अपने कषाय कल्पयों का परिमार्जन कर सकते हैं। श्रेष्ठ कर्म से मन निर्मल होता है और साधना की ओर मन उन्मुख होता है। शक्ति का सदुपयोग शक्ति का दान है, निष्प्राण में प्राण संचार है। सदुपयोग है-जो कुछ हमारे पास है, उसके कण-कण का श्रेष्ठता में नियोजन।

नवरात्रकाल में अर्जित तपशक्ति को हमें सुनियोजन करना आना चाहिए। व्यावहारिक रूप से यह सत्कर्म द्वारा सत्प्रवृत्ति-संवर्द्धन के रूप में किया जा सकता है। अच्छा विचार करें और उस विचार को व्यवहार में उतारें। इस प्रकार तप है-सत्कर्म के द्वारा सत्प्रवृत्ति का विकास।

नवरात्री तप के चरण 

नवरात्र के नौ दिनों में शक्ति का अर्जन करने के लिए ऐसा ही तप करने की आवश्यकता है। तप का प्रथम चरण है- क्षरण को रोकना; अर्थात संयम की महासाधना। दूसरा है- मनोयोगपूर्वक उपार्जन और तीसरे चरण में श्रेष्ठता की दिशा में इसका सदुपयोग करना। शक्ति को बरबादी हमारी बुरी आदतों के कारण ही होती है। इसके लिए हम स्वयं जिम्मेदार हैं, कोई और नहीं।

इसकी बरबादी और दुरुपयोग हमें पतन की ओर धकेलते हैं, जबकि इसके अभाव में हमें पीड़ा कचोटती है। हमारी कच्चीवृत्ति शक्ति को रोक नहीं पाती है और जो है, उसका दुरुपयोग कर पतन के कुचक्र में फँसती रहती है या हम शक्तिशून्य होते जाते हैं। शक्ति के अभाव से हमारे सभी आयाम पीड़ित होते हैं।

नवरात्री की साधना का संकल्प

नवरात्र के संकल्प में इस पीड़ा और पतन के सम्यक निवारण का महाभाव उभरे, हममें तत्परता और प्रतिबद्धता से उसे पूर्ण करने का साहस पैदा करे। ऐसे में नवरात्र की साधना का संकल्प पूर्ण होगा और इसकी फलश्रुति दृष्टिगोचर होगी। जीवन में अभावबोध घटेगा और सदुपयोग का सुयोग प्राप्त होगा। यही नवरात्र का महातप है, जिसकी सुवास मन और भावनाओं में भर जाएगी और साधक का व्यक्तित्व इन विशिष्ट नौ दिनों में इतना ऊर्जावान हो सकेगा कि यह शक्ति इसे अगले आश्विन नवरात्र तक चला सकती है।

अब हमारे प्रज्ञा-परिजन इतने सुदृढ़ हो चुके हैं, कि जिनका ध्यान नवरात्र के कर्मकांड की ओर नहीं, बल्कि इसके मर्म की ओर आकर्षित हो रहा है। हम सभी को शरीर के लिए अस्वाद व्रत, मन के लिए सत्चिंतन और भावना हेतु सेवा व्रत का पूर्ण रूप से निर्वाह कर शक्ति साधना करनी चाहिए और अंत में इसकी पूर्णता के लिए पूर्णाहुति के दिन पूर्ण जागरूकता से इस संचित शक्ति के सदुपयोग हेतु पुनः संकल्पित होना चाहिए।

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