केनोपनिषद – Kena Upanishad
Kena Upnaishad PDF- केनोपनिषद में चार खण्ड हैं। प्रथम और द्वितीय खण्ड में गुरु-शिष्य की संवाद-परम्परा द्वारा उस (केन) प्रेरक सत्ता की विशेषताओं, उसकी गूढ़ अनुभूतियों आदि पर प्रकाश डाला गया है। यह एक महत्त्वपूर्ण उपनिषद है।
१. शान्तिपाठ
येनेरिता: प्रवर्तन्ते प्राणिनः स्वेषु कर्मसु।
तं वन्दे परमात्मानं स्वात्मानं सर्वदेहिनाम॥
यस्य पादांशुसम्भूतं विश्वं भाति चराचरम।
पूर्णानंदं गुरुं वन्दे तं पूर्णानन्दविग्रगम॥
२. सम्बन्ध भाष्य
देवता ज्ञान और कर्मों के समुच्चय का निष्काम भाव से अनुष्ठान करने से जिसने अपना चित्त शुद्ध कर लिया है, जिसका आत्मज्ञान का प्रतिबंधकरूप दोष नष्ट हो गया है, जो द्वैतविषय में दोष देखने लगा है तथा सम्पूर्ण उसके पश्चात् गायत्र साम विषयक विचार और शिष्यपरम्परारूप वंश के वर्णन में समाप्त होने वाले कार्य का वर्णन किया गया है।
३. प्रेरक विषयक प्रश्न
यह मन किसके द्वारा इच्छित और प्रेरित होकर अपने विषयों में गिरता है? किससे प्रयुक्त होकर प्रथम प्राण चलता है? प्राणी किसके द्वारा इच्छा की हुई यह वाणी बोलते है? और कोण देव चक्षु और श्रोत्र को प्रेरित करता है।
४. आत्मा का सर्व नियंतृत्व
जो श्रोत्र, मन का मन और वाणी का भी वाणी है वाही प्राण का प्राण और चक्षु का चक्षु है, धीर पुरुष संसार से मुक्त होकर इस लोक से जाकर अमर हो जाते है।
५. आत्मा का अग्येयत्व और अनिर्वचनीयत्व
वहां नेत्रेंद्रिय नहीं जाती, वाणी नहीं जाती, मन नहीं जाता। अतः जिस प्रकार शिष्य को इस ब्रह्म का उपदेश करना चाहिए, वह हम नहीं जानते- वह हमारी समझ में नहीं आता। वह विदित से अन्य ही है तथा तथा अव्विदित से भी परे है- ऐसा हमने पूर्व-पुरुषों से सुना है, जिन्होंने हमारे प्रति उसका व्याख्यान किया था।
६. ब्रह्म वागादि से अतीत और अनु पास्य है
जो वाणी से प्रकाशित नहीं है, किन्तु जिससे वाणी प्रकाशित होती है उसी को तू ब्रह्म जान, जिस की लोक उपासना करता है वह ब्रह्म नहीं है।
जो मन से मनन नहीं किया जाता, बल्कि जिससे मन मनन किया हुआ कहा जाता है उसी को तू ब्रह्म जान। जिस की लोक उपासना करता है वह ब्रह्म नहीं है।
जिसे कोई नेत्र से नहीं देखता बल्कि जिसकी सहायता से नेत्र देखते है उसी को तू ब्रह्म जान। जिसकी लोक उपासना करता है वह ब्रह्म नहीं है।
जिसे कोई कान से नहीं सुनता बल्कि जिससे यह श्रोत्रेंद्रिय सुनी जाती है उसी को तू ब्रह्म जान। जिसकी लोक उपासना करता है वह ब्रह्म नहीं है।
जो नासिकारंध्रस्थ प्राण के द्वारा विषय नहीं किया जाता, बल्कि जिससे प्राण अपने विषयों की ओर जाता है उसी को तू ब्रह्म जान। जिसकी लोक उपासना करता है वह ब्रह्म नहीं है।
७. ब्रह्म ज्ञान की अनिर्वचनीयता
यदि तू ऐसा मानता है कि ‘मैं अच्छी तरह से जनता हूँ’ तो निश्चय ही तू ब्रह्म का थोडा- सा ही रूप जनता है। इसका जो रूप तू जानता है ओर इसका जो रूप देवताओं में विदित है वह भी अल्प ही है। अतः तेरे लिए ब्रह्म विचारणीय ही है। ‘मैं ब्रह्म को जान गया-ऐसा समझता हूँ।
८. अनुभूति का उल्लेख
मैं न तो यह मानता हूँ कि ब्रह्म को अच्छी तरह जान गया ओर न यही समझता हूँ कि उसे नहीं जानता। इसलिए मैं उसे जानता हूँ और नहीं भी जनता। हम शिष्यों में से जो उसे ‘न तो नहीं जनता हूँ और न जानता ही हूँ’ इस प्रकार जानता है वही जानता है।
९. ज्ञाता अज्ञ है और अज्ञ ज्ञानी है
ब्रह्म जिसको ज्ञात नहीं है उसी को ज्ञात है और जिसको ज्ञात है वह उसे नहीं जनता क्योंकि वह जानने वालों का बिना जाना हुआ है और न जानने वालों का जाना हुआ है।
१०. विज्ञानावभासों में ब्रह्म की अनुभूति
जो प्रत्येक बोध में प्रत्यगात्मरूप से जाना गया है वही ब्रह्म है-यही उसका ज्ञान है, क्योंकि उस ब्रह्म ज्ञान से अमृतत्व की प्राप्ति होती है। अमृतत्व अपने ही से प्राप्त होता है, विद्या से तो अज्ञानान्धकार को निवृत्त करने का सामर्थ्य मिलता है।
११. आत्मज्ञान ही सार है
यदि इस जन्म में ब्रह्म को जान लिया तब तो ठीक है और यदि उसे इस जन्म में न जाना बड़ी भारी हानि है। बुद्धिमान लोग उसे समस्त प्राणियों में उपलब्ध करके इस लोक से जाकर अमर हो जाते है।
यज्ञोपाख्यान
१२. देवताओं का गर्व
यह प्रसिद्द है कि ब्रह्म ने देवताओं के लिए विजय प्राप्त की। कहते हैं, उस ब्रह्म की विजय में देवताओं ने गौरव प्राप्त किया।
१३. यक्ष का प्रादुर्भाव
उन्होंने सोचा हमारी ही यह विजय है और हमारी ही यह महिमा है। कहते हैं, वह ब्रह्म देवताओं के अभिप्राय को जन गया और उनके सामने प्रादुर्भूत हुआ। तब देवता लोग उस ब्रह्म को ‘यह यक्ष कौन है?’ ऐसा जान न सके।
१४. अग्नि की परीक्षा
उन्होंने अग्नि से कहा – ‘हे अग्ने! इस बात को मालूम करो कि यह यक्ष कौन है? उसने कहा -‘बहुत अच्छा’।
अग्नि उस यक्ष के पास गया। उसने अग्नि से पूछा- ‘तू कौन है? उसने कहा -‘मैं अग्नि हूँ, मैं निश्चय जातवेदा ही हूँ’।
फिर यक्ष ने पूछा -‘तुझमें सामर्थ्य क्या है? अग्नि ने कहा – ‘पृथ्वी में यह जो कुछ है उस सभी जो जला सकता हूँ’।
तब यक्ष ने उस अग्नि के लिए एक तिनका रख दिया और कहा- ‘इसे जला’। अग्नि उस तृण के समीप गया, परन्तु अपने सारे वेग से भी उसे जलने में समर्थ नहीं हुआ। वह उसे पासे से ही लौट गया और बोला – ‘यह यक्ष कौन है – इस बात को मैं नहीं जान सका’।
१५. वायु की परीक्षा
उसके बाद, उन देवताओं ने वायु से कहा-‘हे वायो! इस बात को मालूम करो कि यह यक्ष कौन है?’ उसने कहा-‘बहुत अच्छा’।
वायु उस यक्ष के पास गया, उसने वायु से पूछा-‘तू कौन है? उसने कहा-‘मैं वायु हूँ- मैं निश्चित मातरिश्वा ही हूँ।
तब यक्ष ने पूछा – तुझमें क्या सामर्थ्य है? वायु ने कहा – ‘पृथ्वी में जो कुछ है उस सभी को ग्रहण कर सकता हूँ’।
तब यक्ष ने उस वायु के लिए एक तिनका रखा और कहा – ‘इसे ग्रहण कर।’ वायु उस तृण के समीप गया। परन्तु अपने सारे वेग से भी वह उसे ग्रहण करने में समर्थ नहीं हुआ। तब वह उसे पास से लौट आया और बोला-‘यह यक्ष कौन है – इस बात को मैं नहीं जान सका’।
१६. इंद्र की परीक्षा
उसके पश्चात्, देवताओं ने इंद्र से कहा – ‘मघवन! यह यक्ष कौन है – इस बात को मालूम करो’। तब इंद्र ने ‘बहुत अच्छा’ कह उस यक्ष के पास गया, किन्तु वह इंद्र के सामने से अन्तर्धान हो गया।
१७. उमा का प्रादुर्भाव
वह इंद्र उसी आकाश में एक अत्यंत शोभामयी स्त्री के पास आया और उस सुवर्णाभूषण भूषिता उमा से बोला-‘यह यक्ष कौन है?’
१८. उमा का उपदेश
उस विद्या देवी ने स्पष्टतया कहा – ‘यह ब्रह्म है’ तुम ब्रह्म के ही विजय में इस प्रकार महिमान्वित हुए हो’। कहते हैं, तभी से इंद्र ने यह जाना कि यह ब्रह्म है।
क्योंकि अग्नि, वायु और इंद्र – इन देवताओं ने ही इस समीपस्थ ब्रह्म का स्पर्श किया था और उन्होंने ही उसे पहले-पहल ‘यह ब्रह्म है’ ऐसा जाना था, अतः वे अन्य देवताओं से बढ़कर हुए।
इसलिए इंद्र अन्य सब देवताओं से बढ़कर हुआ; क्योंकि उसने ही इस समीपस्थ ब्रह्म का स्पर्श किया था- उसें ही पहले-पहल ‘यह ब्रह्म है’ इस प्रकार इसे जाना था।
१९. ब्रह्मविषयक अधिदैव आदेश
उस ब्रह्म का यह आदेश है। जो बिजली के चमकने के सामान तथा पलक मारने के सामान प्रादुर्भूत हुआ वह उस ब्रह्मा का अधिदैवत रूप है।
२०. ब्रह्मविषयक आध्यात्म आदेश
इसके अनंतर अध्यात्म-उपासना का उपदेश कहते हैं- यह मन जो जाता हुआ-सा कहा जाता है वह ब्रह्म है – इस प्रकार उपासना करनी चाहिए, क्योकि इससे ही यह ब्रह्म का स्मरण करता है और निरंतर संकल्प किया जाता है।
२१. वनसंज्ञक ब्रह्म की उपासना
वह यह ब्रह्म ही वन है। उसकी ‘वन’ – इस नाम से उपासना करनी चाहिए। जो उसे इस प्रकार जानता है उसे सभी भूत अच्छी तरह चाहने लगते है।
२२. उपसंहार
हे गुरो! उपनिषद कहिये ‘हम ने तुझ से उपनिषद कह दी। अब हम तेरे प्रति ब्रह्मणजाति संबंधिनी उपनिषद कहेंगे।
२३. विद्याप्राप्ति के साधन
उस की तप, दम, कर्म तथा वेद और सम्पूर्ण वेदांग- ये प्रतिष्ठा हैं एवं सत्य आयतन है।
२४. ग्रंथावगाहन का फल
जो निश्चय पूर्वक इस उपनिषद को इस प्रकार जानता है वह पाप को क्षीण करके अनंत और महान स्वर्गलोक में प्रतिष्ठित होता है, प्रतिष्ठित होता है।
केनोपनिषत्पदभाष्यम संपूर्ण