कर्मयोग – स्थूल शरीर की योग साधना

कर्मयोग (Karmna Yoga) की साधना में सबसे प्रथम और सबसे महत्त्वपूर्ण स्थान आलस्य और प्रसाद को निरस्त करना है। इसके लिए जरूरी है कि समय की बहुमूल्य व बेशकीमती समझा जाए और एक एक क्षण का पूरा सदुपयोग करने के लिए श्रम संलग्न रहा जाए। प्रातः काल उठते हो अथवा रात्रि को सोते समय अगले दिन किए जाने वाले कर्त्तव्य कर्मों को ध्यान में रखते हुए दिनचर्या बना ली जाए और जब तक कोई अनिवार्य कारण न आ जाए, उस दिनचर्या को ईश्वर की आराधना मानकर पूर्ण मनोयोगपूर्वक पूरा किया जाए। इस क्रम में विश्राम का अवकाश भी रखा जा सकता है, पर उसके लिए ढेर सारा समय गंवाने की जरूरत नहीं है। कार्यो को बदल लेने से, कार्यपद्धति में थोड़ा फेरबदल कर लेने से भी विश्राम की काफी कुछ जरूरत पूरी हो जाती है।

दरअसल शरीर को सुस्ताने की उतनी जरूरत नहीं पड़ती, जितनी जरूरत मन की ऊब को उतारने की होती है। शरीर के कल-पुर्जे तो सोते-जागते हर घड़ी काम करने के अभ्यस्त हैं। थकान मिटाने के लिए नियत समय पर नींद लेना और बीच-बीच में थोड़ा बहुत विश्राम कर लेना अथवा कामों में फेरबदल कर लेना पर्याप्त होता है। जिसे कर्मयोग की साधना करनी है, उसे विश्राम के नाम पर निठल्लेपन की प्रवृत्ति या आलसीपन से दूर रहना ही पड़ेगा। कर्मयोग साधना की दृष्टि से नियमित दिनचर्या बनाना और उस पर कठोरतापूर्वक आरूड़ रहना एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण कार्य है। कर्मयोग का इसे व्यावहारिक और सर्वप्रथम कदम कहा जा सकता है। • निठल्लापन जड़ता का, तामसिकता का चिह्न है। इसे सौभाग्य नहीं दुर्भाग्य माना जाना चाहिए। शरीर की क्रियाशक्ति और मस्तिष्क को प्रखरता को नष्ट करने में आलस्य-प्रमाद से बढ़कर और कोई शत्रु नहीं।

कर्मयोग की साधना का दूसरा चरण यह है कि कर्म स्वार्थ सिद्धि के लिए नहीं, ईश्वर प्रेम के लिए किया जाना चाहिए। जब तक कर्म में उच्चतम उद्देश्य एवं महान आदर्श का समावेश नहीं होगा, उसका कर्मयोग बनना संभव नहीं। यदि हम विचारशीलों को तरह सोचें, तो यही पता चलेगा कि हम जो भी करते हैं वह ईश्वर को साँव, शरीर को निर्वाह एवं श्रम देने के लिए, ईश्वरप्रदत्त मन की सुसंस्कृत बनाए रहने के लिए, ईश्वर के सौंपे परिवार उद्यान को कर्त्तव्यनिष्ठ माली की तरह मीचने-संभालने के लिए सामाजिक राष्ट्रीय कर्तव्यों के परिपालन के लिए और सबसे बढ़कर जीवन लक्ष्य को पाने के लिए। ऐसा उत्कृष्ट दृष्टिकोण रखकर किए जाने वाले सामान्य काम भी कर्मयोग की साधना के अंग बन जाते हैं।

कामों में विकृतियाँ तभी आती हैं, जब उन्हें संकीर्ण स्वार्थ के लिए किया जाता है। कर्त्तव्यनिष्ठ सैनिक की तरह, यदि अपने को ईश्वर को सेना का कर्मठ सिपाही माना जाए, तो संभवतः सब कुछ उत्कृष्टता की दिशा में चल पड़ता है। जिस तरह सैनिक राष्ट्रहित के लिए बड़े से बड़ा बलिदान देने और कड़े-से-कड़ा अनुशासन मानने के लिए तैयार रहता है, वैसी ही मनःस्थिति कर्मयोगी की होनी चाहिए। इस मनःस्थिति में रहकर किए गए सभी काम कर्मयोग की श्रेणी में गिने जाएंगे और उनका परिणाम योगाभ्यास के लिए की गई तप साधना जैसा हो श्रेयस्कर होगा।

सूफी संत महिला राविया हँसती भी जाती थी और रोती भी। दोनों काम एक साथ करते देखकर उपस्थित लोगों ने आश्चर्य भी किया और कारण भी पूछा। राविया ने कहा, “परमात्मा ने ऐसा सुंदर संसार और शरीर बनाया, इस पर मैं हँसती हूँ। रोती इसलिए हूँ कि इन दोनों का, उपलब्ध समय का हम सही उपयोग नहीं कर पाते, अभागों की तरह हाथ मलते चले जाते हैं।”

“कर्म- भगवान् के लिए’ ऐसा मानस बने तो समझो कि जीवन में कर्मयोग आ गया। अनगढ़ मनःस्थिति के लिए शुरुआती दौर में यह अटपटा लग सकता है, पर चौबीस घंटे में एक-दो कर्म भी भगवान् के लिए हो सकें, तो भी इस राह पर चला जा सकता है। महाराष्ट्र के संत एकनाथ को भी कर्मयोग का रहस्य कुछ ऐसे ही अनुभव हुआ था। बात तब की है जब यह तीर्थयात्रा के लिए पैठण गए थे। वहाँ एक गली में एक नाई किसी के बाल बना रहा था। इसी समय संत एकनाथ यहाँ आ गए और उन्होंने कहा, “भाई। भगवान् के लिए मेरे भी बाल काट दें।”

उस नाई ने भगवान का नाम सुनते ही दुकान पर बैठे एक अन्य ग्राहक से कहा, “अब थोड़ी देर बाद में आपके बाल काट सकूँगा। भगवान् को खातिर इन संत की सेवा मुझे पहले करनी चाहिए। भगवान् का काम सबसे पहले है। नाई ने संत के बाल बड़े ही प्रेम और भक्ति से काटे। बाल कटवाने के बाद संत एकनाथ ने नाई को कुछ पैसे देने चाहे। एकनाथ के हाथ में पैसे देखकर नाई ने उन्हें बड़ी हो विचित्र नजरों से देखा और कहा, ‘‘ महाराज ! यह क्या बात हुई ? आप ने तो भगवान की खातिर बाल काटने को कहा था, पैसों की खातिर नहीं।” फिर तो जीवन भर संत एकनाथ अपने सत्संग में कहा करते थे, “निष्काम कर्मयोग मैंने एक नाई से सीखा है।”

भगवान के लिए कर्म करने पर कर्म के साथ केवल प्रेम और भक्ति ही जुड़ती है। किसी तरह के फल को चाहत वहाँ पनप ही नहीं पाती। बस एक ही धुन रहती है, किया जाने वाला कर्म अच्छे से अच्छा कैसे हो। निंदा, प्रशंसा का झंझट भी कर्मयोगी को नहीं व्यापता। उसे तो बस अपने उच्चतम उद्देश्य और महान आदर्श का ध्यान रहता है। फिर सबसे बड़ी बात कर्मयोगों के लिए प्रत्येक कर्म शरीर द्वारा की जाने वाली भगवत् प्रार्थना है। जब इस प्रार्थना में उसे रस आने लगता है, धीरे-धीरे उसके सभी कर्म, कर्मयोग में समा जाते हैं।

कर्मयोग की इस साधना से मिलने वाली रसानुभूति कुछ इस कदर होती है कि कर्मयोगी अपनी श्रमनिष्ठा और भगवत प्रेम को हो अपनी आत्मतुष्टि का आधार मान लेता है। उसे किसी के मुख से प्रशंसा का प्रमाण पत्र पाने को जरूरत नहीं रहती। किसी के द्वारा की जाने वाली अकारण निंदा उसे उद्विग्न नहीं कर पाती। उसका अपना अंत:करण हो उसके संतोष के लिए पर्याप्त आधार बना रहता है। इसी प्रकार उसे अभीष्ट परिणाम की उतावली नहीं होती। भगवत प्रेम के लिए सत्कर्म-कर्त्तव्य कर्म की नीति अपनाना ही उसके लिए क्षण क्षण में मिलने वाली सफलता जैसा उपहार होता है।

उसकी परिष्कृत जीवन-नीति ही उसे हर घड़ी संतोष देती रहती है। फलतः उस आंतरिक प्रसन्नता को चेहरे की मुस्कान के रूप में हर घड़ी देखा जा सकता है। इस मुस्कान में उसकी आत्मा का प्रकाश घुला-मिला होता है। जो कर्मयोगी की साधना की प्रगाढ़ता के अनुसार अनुदिन तीव्र से तीव्रतर होता चला जाता है। इस पथ पर चलने वाले साधक किसी से कहीं भी कमतर नहीं, क्योंकि इनकी साधना घंटे दो घंटे नहीं बल्कि अनवरत चलती है। इसके साथ ही अनवरत कर्मबंधन ढीले पड़ते जाते हैं। जन्म जन्मांतर के कर्मों का स्वाभाविक क्षय होता जाता है। कर्मों का भार घटने से चिंतन में ज्ञान का स्वाभाविक प्रकाश उत्पन्न होता है, जिसे ज्ञानयोग की साधना से और अधिक प्रखर बनाया जा सकता है।

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