एकलिंगजी महादेव मंदिर




राजस्‍थान के उदयपुर जिले में एक तीर्थ है – कैलाशपुरी। शिव यहां एकलिंग के नाम से विराजित है।  श्री एकलिंगजी महादेव मंदिर कि उदयपुर से लगभग २२ किमी और नाथद्वारा से लगभग २६ कि.मी. दूर राष्ट्रीय राजमार्ग ४८ पर कैलाशपुरी नाम के स्थान पर स्थित हैं। पूर्वी




भारत में जहां त्रिकलिंग की मान्‍यता रही है – उत्‍कलिंग, मध्‍यकलिंग और कलिंग। वहीं पश्चिमी भारत में एकलिंग की मान्‍यता है। मूलत: यहां का मंदिर लाकुलीश संप्रदाय का रहा है, यहां से 917 ईस्‍वी का शिलालेख मिला है। किंतु, मध्‍यकाल में वर्तमान एकलिंगजी का मंदिर बना और उसकी अलग ही पूजा पद्धति निर्धारित की गई। वर्तमान मंदिर को बहुत ही गोपनीय रूप से बनाया गया था। मेवाड़ शैली में पत्थरो से निर्मित श्री एकलिंगजी उदयपुर और मेवाड़ का संबसे विख्यात और विशाल मंदिर है। श्री एकलिंगजी आराध्य देव भगवान शिव का प्राचीन मंदिर हैं, यहाँ पर स्थित शिवलिंग की मूर्ति के चारों ओर मुख (चेहरा) बने हुए हैं, अर्थात यहाँ पर भगवान शिवजी एक चतुर्मुखी शिवलिंग के रूप में विराजमान हैं। एकलिंगजी के चार चेहरों भगवान शिव के चार रूपों को दर्शाते हैं, जो इस प्रकार हैं:-पूरब दिशा की तरफ का चेहरा सूर्य देव के रूप में पहचाना जाता हैं, पश्चिम दिशा के तरफ का चेहरा भगवान ब्रह्मा को दर्शाता हैं, उत्तर दिशा की तरफ का चेहरा भगवान विष्णु और दक्षिण की तरफ का चेहरा रूद्र स्वयं भगवान शिव का हैं। मंदिर के गर्भगृह का मुख्य द्वार पश्चिम दिशा में और गर्भगृह के सामने पीतल धातु से बनी शिव के वाहन नन्दी की मूर्ति है। मंदिर परिसर में १०८ देवी-देवताओ के छोटे-छोटे मंदिर स्थित हैं, और इन मंदिरों के बीच में श्री एकलिंग जी मंदिर स्थापित हैं। मंदिर के गर्भगृह में प्रवेश करने आज्ञा किसी को भी नहीं हैं, श्री एकलिंग जी दर्शन एवं वंदना कठघरे से बाहर रहकर ही करनी पड़ती हैं। एकलिंगजी मदिर में श्री एकलिंगजी का श्रृंगार फूलो, रत्नों नियमित रूप से प्रतिदिन किया जाता है। मंदिर के गर्भगृह में प्रवेश वहाँ के पुजारियों से आज्ञा लेकर व उनके द्वारा दिए गए विशेष वस्त्र पहनकर ही मिलती हैं।

श्री एकलिंगजी मेवाड़ के शासक और राजपूतो के मुख्य आराध्य देव हैं। कहा जाता हैं कि मेवाड़ में राजा तो उनके प्रतिनिधि के रूप में शासन किया करता था। युद्ध पर जाने से पहले राजपूत श्री एकलिंग जी आशीर्वाद जरुर लेते थे। श्री एकलिंगजी मंदिर परिसर में मंदिर के इतिहास कि बारे में जानकारी देता हुआ मंदिर ट्रस्ट का एक बोर्ड लगा हुआ था। जिसमे मंदिर के इतिहास के बारे में कुछ इस प्रकार से लिखा हुआ था।

इतिहास

कहा जाता है कि डूंगरपुरराज्य की ओर से मूल बाणलिंग के इंद्रसागर में प्रवाहित किए जाने पर वर्तमान चतुर्मुखी लिंग की स्थापना की गई थी। एकलिंग भगवान को साक्षी मानकर मेवाड़ के राणाओं ने अनेक बार ऐतिहासिक महत्व के प्रण किए थे। जब विपत्तियों के थपेड़ों से महाराणा प्रताप का धैर्य टूटने जा रहा था तब उन्होंने अकबर के दरबार में रहकर भी राजपूती गौरव की रक्षा करने वाले बीकानेर के राजा पृथ्वीराज को, उनके उद्बोधन और वीरोचित प्रेरणा से भरे हुए पत्र के उत्तर में जो शब्द लिखे थे वे आज भी अमर हैं-

‘तुरुक कहासी मुखपतौ, इणतण सूं इकलिंग, ऊगै जांही ऊगसी प्राची बीच पतंग’

मंदिर

मेवाड़ के संस्थापक बप्पा रावल ने 8वीं शताब्‍दी में इस मंदिर का निर्माण करवाया और एकलिंग की मूर्ति की प्रतिष्ठापना की थी। बाद में यह मंदिर टूटा और पुन:बना था। वर्तमान मंदिर का निर्माण महाराणा रायमल ने 15वीं शताब्‍दी में करवाया था। इस परिसर में कुल 108 मंदिर हैं। मुख्‍य मंदिर में एकलिंगजी की चार सिरों वाली मूर्ति स्‍थापित है। उदयपुर से यहाँ जाने के लिए बसें मिलती हैं। एकलिंगजी की मूर्ति में चारों ओर मुख हैं। अर्थात् यह चतुर्मुख लिंग है। कठघरे और गर्भगृह के बीच के द्वार पर वर्तमान श्री जी मेवाड़ अरविन्द ने किवाड़ पर चांदी कि परत चढ़वाई हैं। मुख्य मंदिर के कठघरे में आम दर्शनार्थियों का प्रवेश वर्जित हैं।“

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