ब्रह्म तत्व सर्वव्यापी है और जो शाश्वत अजर-अमर और अविनाशी स्वरूप है
सृष्टि के कण-कण में उसका निवास है। अणु-अणु का मूलाधार वह परमात्म तत्त्व ही है। सब कुछ उसी से बनता और उसी चेतन शक्ति से परिचालित होता है। प्रत्येक पदार्थ एवं प्राणी एक उसी तत्त्व के अंश हैं। व्यक्तिगत जीवन समष्टिगत जीवन सीमित और असीमित के मिथ्या भेद के बावजूद तत्त्वतः एक ही है।
उपनिषदों में परमात्म तत्त्व को ‘सच्चिदानन्द’ के रूप में देखा गया है। उनमें’परमात्मा को सच्चिदानन्द कहा गया है। सत् अर्थात् शाश्वत अजर-अमर और अविनाशी स्वरूप। चित् अर्थात् चेतना। चेतना अर्थात् दिव्य गुणों से सुसज्जित, उच्चस्तरीय आदर्शों-आस्थाओं से युक्त। आनन्द अर्थात् भाव संवेदनाओं, सरसता, मृदुलता से सिक्त।
यह सच्चिदानन्द सत्ता, उपास्य के रूप में ईश्वर, निराकार व्यापकता के रूप में देवता, जीवों के अस्तित्व के केन्द्र के रूप में विराजमान अन्तरात्मा तथा सृष्टि के व्यवहार को सुधारने, इसे सौंदर्य मण्डित करने आए अवतार के रूप में अपनी अनुभूति देती है। यह तत्त्व बुद्धि और तर्क से परे होते हुए भी बुद्धि और तर्क युक्त है।’
प्रकृति की समस्त हलचलों का केन्द्रबिन्दु यही एक केन्द्रीय शक्ति है। वही विविध रूप धारण करती तथा संसार को रचती है। सम्पूर्ण सृष्टि में वही संव्याप्त है। इसी कारण इस महाशक्ति को ब्रह्म कहते हैं। ब्रह्म के अतिरिक्त ब्रह्मांड में और कुछ नहीं है। ‘एको ब्रह्म द्वितीयोनास्ति’ की उक्ति इसी तथ्य पर आधारित है। उसके प्रकाश से ही तारे, ग्रह, नक्षत्र, सूर्य सभी प्रकाशित हैं। जीव-जन्तु वनस्पतियों में उसकी चेतन तरंगें ही क्रीडा कल्लोल कर रही हैं।
ब्रह्म एक ऐसी चेतन सत्ता है जिससे संसार का न तो एक कण रिक्त है न एक क्षण। वह ब्रह्म सूर्य रूप में (आत्मा रूप में), तत्त्व रूप में प्रतिभासित होता है और प्रकृति के संयोग से भिन्न शरीरों और वासनाओं वाले जीवों का निर्माण करता है। इस तथ्य को बड़े ही सुन्दर ढंग से कहा जा सकता है-जिस प्रकार एक सूर्य-एक आत्मा के अनन्त जीवन है, जो उस मूल चेतना आद्यशक्ति से प्राण पाते हैं, उसी प्रकार अनेक आत्माएँ ब्रह्म से जीवन और चेतना प्राप्त करती हैं।
जिस प्रकार समुद्र, नदी, नद और ताल, पोखरों में एक तत्त्व जल ही सर्वत्र है उसी प्रकार जीव-आत्मा, ब्रह्म में एक ही प्राण तत्त्व का विकास, एक ही मनोदय चेतना प्राप्त कर रही है। अपने जीवन तत्त्व को भाव नदी में बदलकर नदी हो जाती है और नदी समुद्र, उसी प्रकार प्राणों का जीव से आत्मा में आत्मा से ब्रह्म में विकास और उसी में मानसिक चेतना या संकल्प की स्थिरता ही जीव का आत्मा ब्राह्मीभूत होता है।
इस प्रकार ब्रह्म सर्वव्यापी, सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान है। सर्वव्यापी क्योंकि सभी रूप देश और काल के उसके स्वयं अपने विस्तार में उसकी गति की शक्ति से उत्पन्न उसकी चेतन सत्ता के रूप हैं। सभी वस्तुएँ उसकी चेतना में रहती हैं, और उसके द्वारा बनायी जाती हैं एवं उसी के अधिकार में रहती हैं। वह सर्वज्ञ है। सर्वाधिकारी चेतना ही एक सर्वाधिकारी शक्ति और सर्वसूचक संकल्प है, अतः वह सर्वशक्तिमान है।
ब्रह्म को सृष्टा, नियन्ता, पोषक मानते हुए उसे घट-घट व्यापी सर्वज्ञ समाहित ही माना जा सकता है। अतः परमात्मा निराकार है। साकार रूप के संदर्भ में कहें तो परमात्मा का साकार रूप देखना हो तो इस विश्व की ही परमेश्वर माना जा सकता है। निश्चित रूप से परमात्मा निराकार होने की तरह साकार भी है। इस विश्व में जो कुछ दृश्यमान हो रहा है, उसे परमात्मा ही कहना चाहिए।
परमात्मा को तर्कों से परे एवं तर्क सम्मत भी माना जा सकता है। ईश्वर और उनका सृष्टि प्रवाह अनन्त है। उसकी अनन्तता उसके अमृतत्त्व में समाहित है,क्योंकि मृतत्त्व परिमितता की निशानी है। अथर्ववेद इसी का उद्घोष करते हुए कहता है- ‘भूतं च भाष्यं च सर्व यश्चाद्यितिष्ठति’ अर्थात् ईश्वर तीनों कालों से परे हैं। साथ ही तर्कों से परे भी। सृष्टि की गहराई में उतरने पर स्पष्ट हो जाता है कि उसके कण-कण में नियम और नियंत्रण संव्याप्त है।
यहाँ पर सारा सूत्र संचालन इस प्रकार हो रहा है मानो किसी बाजीगर की उंगलियों में बँधे धागे सारी कठपुतलियों को तरह-तरह के नाच नचा रहे हों। कर्त्ता के बिना कोई क्रिया नहीं हो सकती। समग्र सृष्टि का संचालन करने वाला कोटि-कोटि जीवों में चेतना का संचार करने वाला सर्वशक्तिमान नियन्ता एक ही कारीगर है।
विश्व के अन्तराल में काम करने वाला इसका शक्ति प्रवाह केवल ज्ञान युक्त ही नहीं न्याय (तर्क) और औचित्य के तथ्यों से भी ओतप्रोत है। सबमें एक ही परमात्मा का वास है। आस्थाओं का विकास जब इस स्तर तक कर लिया जाता है तो व्यक्ति ईश्वर के सामीप्य की आनन्दानुभूति करने योग्य बन जाता है। इस आनन्दानुभूति में अनुभव किया जा सकता है कि- विश्व में रंच मात्र भी स्थान ऐसा नहीं है, जहाँ ईश्वर न हो। अणु-अणु में उसकी महत्ता व्याप्त हो रही है। अब ईश्वर को आदर्शों का समुच्चय कहा जा सकता है।
हम ईश्वर को जिस गज से नापते हैं, वह बहुत छोटा है। ईश्वर का स्वरूप है-महानता। इस विशाल ब्रह्मांड को उसकी छबि के रूप में देखा जा सकता है और इस सुविस्तृत विस्तार के अंतर्गत हो रही ज्ञान और अविज्ञात हलचलों को उस महासागर की तरंगें समझा जा सकती हैं। इसे प्राप्त करने के लिए हमें अपनी संकीर्णता छोड़नी पड़ेगी और उसकी महानता अपनानी पड़ेगी जिसके सहारे उस महान् परमेश्वर को देखा जा सके।
अपनी महानता और व्यापकता में परमेश्वर संवेदनाओं का संगीत बन झरता है, प्रेम का गीत बन गूँजता है, भावनाओं का प्रवाह बन बहता और आनन्द रूप हो अन्तःकरण को रस विभोर करता है। प्रेम परमेश्वर की भावाभिव्यक्ति है। वस्तुतः प्रेम ही परमेश्वर है। प्रेम ही संसार में अकेली अपार्थिव वस्तु है। मनुष्य का सारा दर्शन, सारा काव्य, सारा धर्म एवं सारी संस्कृति इसी एक शब्द से अनुप्रेरित है। व्यष्टि और समष्टि में आत्मा का वह प्रेम प्रकाश ही ईश्वर की मंगलमयी रचना का संदेश दे रहा है। यह प्रेममय परमेश्वर ही सम्पूर्ण जड़ चेतन शक्ति का निर्माण, नियंत्रण, संचालन और व्यवस्था करने वाली चेतना है। अतः परमेश्वर ‘रसो वै सः’ से ओतप्रोत है।
परमेश्वर को सृजेता के रूप में उल्लेख करते हुए कहा जा सकता है- सृष्टि के आरम्भ में परमात्मा ने अपनी इच्छा शक्ति से जीवों को उत्पन्न किया। कोई रचना बिना रचनाकार के अस्तित्व नहीं प्राप्त करती। इस संसार में जो कुछ भी दृश्य दिखाई देता है उसके पीछे कुछ न कुछ अदृश्य सूत्र अवश्य समझ पड़ते हैं। सृष्टा की सृजन शक्ति का मूर्त रूप ही सृष्टि है। ‘एकोऽम बहुस्यामः’ के संकल्प ने ही विश्व ब्रह्मांड के सौंदर्य का रूप लिया है। परमात्मा ने सृष्टि बनायी है और बनाकर नियम सूत्रों से इसे बाँध दिया है कि सब कार्य यथावत् चल रहा है। ईश्वर सृष्टि में व्यापक है।
परमात्मा को नियामक सत्ता कहते हैं। इस तथ्य को इस प्रकार शब्द दिया जा सकता है – नियामक के बिना नियम व्यवस्था, प्रशासक के बिना प्रशासन तो चल सकते हैं परन्तु कुछ समय से अधिक नहीं। फिर इतनी बड़ी और व्यवस्थित सृष्टि का प्रशासक, स्वामी और मुखिया न होता तो संसार न जाने कब का विनष्ट हो चुका होता। जड़ में शक्ति हो सकती है, व्यवस्था नहीं। नियम सचेतन सत्ता ही बना सकती है, सो इन तथ्यों के प्रकाश में परमात्मा की महत्ता चरितार्थ हुए बिना नहीं रहती। संसार का हर परमाणु एक निर्धारित नियम पर काम करता है। यदि इसमें रत्ती भर भी अव्यवस्था और अनुशासनहीनता आ जाय तो विराट् ब्रह्मांड एक क्षण भी नहीं टिक पाता।
नियामक सत्ता की विधि व्यवस्था का विश्लेषण करते हुए चार तत्त्वों का उल्लेख होता है। प्रथम है नियम व्यवस्था। पिण्ड से लेकर ब्रह्मांड तक तथा चेतन जगत् में एक नियम व्यवस्था कार्य कर रही है। प्रत्येक जीव चाहे मनुष्य हो अथवा छोटे प्राणी सभी इस व्यवस्था के अंतर्गत ही गतिशील हैं। वृक्ष वनस्पतियों का भी यही क्रम है। न केवल जीव जगत् वरन् अणु से लेकर ब्रह्मांड तक सुव्यवस्थित क्रम में गतिशील हैं।
जिसके द्वारा परमात्मा के अस्तित्व का प्रमाण मिलता है वह है सहयोग। इसी पर ही सृष्टि की व्यवस्था टिकी है। सहयोग की परम्परा जड़-चेतन सभी में देखी जा सकती है। सहयोग की प्रवृत्ति सृष्टि के कण-कण में झलकती है। विशाल ब्रह्मांड तथा पिण्ड सभी के अस्तित्व को सुव्यवस्थित बनाये रखने में सहयोगिता का सिद्धान्त ही कार्य करता है। सहयोगिता पर सृष्टि भी टिकी है।
विशालता तीसरी विशेषता है। भीमकाय पर्वत, अथाह समुद्र, रहस्यों से भरा अनन्त अन्तरिक्ष, असंख्यों ग्रह-नक्षत्र, तारा-पिण्डों को देखकर बुद्धि आश्चर्य चकित हो जाती है। यह तो जड़ जगत् की बात हुई। अदृश्य सूक्ष्म की परतें और भी अद्भुत हैं। स्थूल तो मात्र कलेवर हैं जो कठपुतली के धागे के समान चेतन परतों द्वारा संचालित हैं। जहाँ विराट् का असीम क्षेत्र मानवी मस्तिष्क को हतप्रभ कर रहा है, वहीं सूक्ष्मता की ओर बढ़ने पर शक्ति का लहलहाता हुआ सागर दिखाई पड़ता है। शास्त्रकारों ने परमात्मा के विराट् एवं सूक्ष्म स्वरूप को देखकर कहा-अणोरणीयान्, महतो महीयान्।
अन्तिम है सृष्टि रचना का उद्देश्य। न केवल जड़ प्रकृति बल्कि चेतन प्राणियों के निर्माण में भी सृष्टा का सुनिश्चित प्रयोजन है। नियम-व्यवस्था, सहयोग, विशालता, उद्देश्य इन सिद्धान्तों के पीछे उस अदृश्य सत्ता का स्पष्ट प्रमाण मिलता है। इसे सृष्टा, नियामक परिवर्तनकर्त्ता एवं सर्वव्यापी परमात्मा के नाम से संबोधन कर सकते हैं।
आद्य बीज शक्ति ईश्वर की अनेक शक्तियाँ हैं। उनका मन है कि देवता किसी की प्रतिकृति नहीं वरन् विशिष्ट गुण या शक्ति के प्रतीक मात्र हैं और वह शक्तियाँ सूक्ष्म जगत् में क्रियाशील हैं। सभी देवता परमात्मा की विभिन्न अलौकिक शक्तियाँ हैं। किसी के भी आश्रय से उस परम प्रभु को प्राप्त करने का विज्ञान था।
वही एक देव सब भूतों में ओतप्रोत होकर सबकी अन्तरात्मा के रूप में सर्वज्ञ व्याप्त हैं। वह इस कर्म शरीर का अध्ययन है। निर्गुण होते हुए भी चेतना शक्ति युक्त है। आत्मा चिंगारी है और परमात्मा ज्वाला। ज्वाला की समस्त संभावनाएँ चिंगारी में विद्यमान है। जीव ईश्वर का अंश है। अंश में अंशी के समस्त गुण पाए जाते हैं।
परमात्मा स्वयं विश्वातीत हैं, विश्वमय हैं, सर्वेश्वर हैं, तब भी वे अपनी प्रकृति को अधिष्ठान बनाकर अपने संकल्प के अधीन रखकर व्यक्ति भावापन्न हो जाते हैं। इसी पर्सोनीफाइड चेतना को अवतार की संज्ञा दी जाती है। अखण्ड खण्डित किस तरह से हुआ? यह प्रश्न व्यर्थ है। परमात्मा सर्वव्यापक, अनन्त और अखण्डित ही हैं। अवतार भी एक निराकार चेतना ही होती है। जब जिस प्रकार की समस्याएँ उत्पन्न हुई हैं तब उसी का समाधान करने के लिए सूक्ष्म जगत् में एक दिव्य प्रादुर्भूति होती रही है। इस दिव्य चेतना को भगवान् का अवतार कहा जाता है।
‘मानुषी तनुमाश्रितं’ का रहस्योद्घाटन करते हुए कहा जा सकता है- युगान्तर चेतना से प्रभावित आदर्शवादी व्यक्ति सृजन साधनों में अधिक तत्परतापूर्वक लगे हुए दिखाई दें तो उसे अवतार की प्रेरणा ही मानना चाहिए। अतः अपनी अवतार प्रक्रिया में भी ईश्वर निराकार, सर्वव्यापक, सर्वज्ञ और अखण्डित रहता है।
इस प्रकार ईश्वरानुभूति न तो अन्धश्रद्धा युक्त है और न अज्ञेयवादी। परमात्म तत्त्व न तो पूर्णतया ज्ञान है और न पूर्णतया अज्ञान। परमात्मा का स्वरूप विश्लेषण उपनिषदों के लिए प्रयत्न शील और सदैव निरीक्षण, परीक्षण, तुलना, उत्पत्ति और परिवर्तन तक के लिए सन्नद्ध हैं। उदारता सहिष्णुता की प्रवृत्ति उनकी विशेषता है