ध्यान योग (मैडिटेशन) प्रश्नोत्तरी
ध्यान साधना क्या है ?
ध्यान साधना और अधिक हितकारी मनोदशा या रवैया विकसित करने के लिए स्वयं को अभ्यस्त बनाने की विधि है। यह उद्देश्य बारंबार एक निश्चित प्रकार की मनोदशा विकसित करके स्वयं को उसमें ढाल कर उसे अपना स्वभाव बनाने का यत्न करके हासिल किया जाता है। इसमें संदेह नहीं है कि ऐसी बहुत सी मनोदशाएं और रवैये हो सकते हैं जो हितकारी है। एक मनोदशा ऐसी हो सकती है जिसमें व्यक्ति अधिक निश्चिंत, तनाव रहित, अपेक्षाकृत कम चिन्तित हो सकता है |
एक अन्य मनोदशा में व्यक्ति अधिक ध्यान केन्द्रित, या किसी अन्य मनोदशा में अधिक शांत, अनवरत अनर्गल विचारों तथा मानसिक चिन्ता से मुक्त हो सकता है। इनसे भी अलग एक ऐसी मनोदशा हो सकती है जिसमें व्यक्ति को अधिक आत्मज्ञान, जीवन का बोध आदि हो सकते हैं; या कोई ऐसी मनोदशा हो सकती है जिसमें व्यक्ति के मन में दूसरों के प्रति और अधिक प्रेम और करुणा का भाव हो। इस प्रकार हम ध्यान साधना के माध्यम से अनेक प्रकार की हितकारी मनोदशाएं विकसित कर सकते हैं।
“meditation“ वह अवस्था है जब वह मन विचारों के कोलाहल और अन्य सभी विक्षेपों से परे शांति और आनन्द में डूब जाता है। ना भविष्य की कल्पनाए ना अतीत की स्मृति, बस केवल वर्तमान ही शेष रह जाता है। ध्यान की पराकाष्ठा में व्यक्ति अपने मन की प्रत्येक हलचल और अपने परिवेश की प्रत्येक घटना के प्रति पूर्ण सजग हो जाता है। ध्यान के समय मन में केवल प्रेम और शांति का ही साम्राज्य व्याप्त रहता है।”
- “ध्यान से व्यक्ति को असीम आनन्द और आत्मसंतोष मिलता है। प्रसन्नता और आरोग्य की अनूभूति होती है। मन के सभी विकार, क्रोध, तनाव, भय आदि नष्ट हो जाते हैं”
- “ध्यान अग्नि है जो मन के सभी कषाय कल्मषों को जलाकर नष्ट कर देती है और इससे मन पवित्र एवं निर्मल हो जाता है।”
- “ध्यान से मन में उत्साह, बुद्धि में प्रखरता और देह में शक्ति और आनन्द का झरना फूट पड़ता है। ध्यानी व्यक्ति का व्यवहार स्वतः ही सौम्य एवं संतुलित हो जाता है।”
ध्यान साधना का प्रयोजन क्या है ?
दूसरा प्रश्न है: मुझे इन मनोदशाओं को विकसित करने की क्या आवश्यकता है? इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए हमें दो बातों पर ध्यान देना होगा: पहली, ऐसा करने का मेरा उद्देश्य क्या है? दूसरे, भावनात्मक दृष्टि से, मैं उस उद्देश्य को क्यों हासिल करना चाहूँगा? उदाहरण के लिए, मुझे और अधिक शांत और निर्मल चित्त की क्या आवश्यकता है? इसकी एक ज़ाहिर वजह यह है कि हमारा चित्त शांत नहीं रहता है और हमारे लिए बड़ी परेशानियाँ खड़ी करता है; अशांत चित्त हमें बहुत दुख पहुँचाता है जीवन में हमारी यथासाध्य चेष्टाओं में बाधक बनता है।
हमारा अशांत चित्त हमारे स्वास्थ्य पर भी दुष्प्रभाव डाल रहा हो सकता है; हो सकता है कि अशांत चित्त हमारे पारिवारिक जीवन में समस्याओं को जन्म दे रहा हो या समस्याओं को और अधिक भड़का रहा हो और अन्य लोगों के साथ हमारे सम्बंधों को भी बिगाड़ रहा हो; यह भी हो सकता है कि इसके कारण हमें अपने कार्य-स्थल में भी समस्याओं का सामना करना पड़ रहा हो। इसलिए, इस उदाहरण में हमारा उद्देश्य अपने अंदर के किसी प्रकार के मानसिक तथा भावनात्मक दोनों प्रकार के दोष पर विजय पाना है। और फिर ऐसी स्थिति में हम ध्यान साधना के अभ्यास से एक सुव्यवस्थित ढंग से ऐसी समस्या पर विजय पाने का बीड़ा उठाते हैं।
हमारी कौन सी भावनात्मक अवस्था हमें ध्यान साधना का अभ्यास शुरू करने के लिए प्रेरित कर सकती है? सम्भवतः तब जब हम अपनी कठिन मनःस्थिति से पूरी तरह ऊब और झुंझला चुके हों। और फिर हम अपने मन में तय करते हैं, “बस, बहुत हुआ। मुझे इस स्थिति से छुटकारा पाना ही होगा। मुझे कुछ करना पड़ेगा।“ और, उदाहरण के लिए, यदि हमारा उद्देश्य अपने प्रियजन की और अधिक सहायता करना हो, तो हमारी भावनात्मक मनोदशा में वितृष्णा के साथ-साथ प्रेम और करुणा का भी भाव होगा। इन सभी मनोभावों का मिला-जुला रूप ही हमें कोई ऐसी युक्ति खोजने के लिए प्रेरित करता है जिसकी सहायता से हम अपने प्रियजन की बेहतर ढंग से सहायता कर सकें।
किन्तु ध्यान साधना के बारे में यथार्थवादी दृष्टिकोण रखना बहुत महत्वपूर्ण है। ऐसा सोचना अवास्तविक होगा कि केवल ध्यान साधना से हमारी सभी समस्याएं हल हो जाएंगी। ध्यान साधना एक साधन है, एक विधि है। जब हम कोई परिणाम हासिल करना चाहते हैं और किसी सकारात्मक भावना से उस लक्ष्य को हासिल करने के लिए प्रेरित होते हैं, तब हमें इस बात को समझना चाहिए कि इच्छित परिणाम केवल किसी एक मनोरथ से ही नहीं प्राप्त हो सकता है।
अनेकानेक कारण और परिस्थितियाँ मिल-जुल कर किसी एक परिणाम को साकार करते हैं। उदाहरण के लिए यदि मेरा रक्तचाप अधिक हो और मुझे अत्यधिक तनाव हो तो ध्यान साधना का अभ्यास इस स्थिति में निःसंदेह लाभप्रद होगा। ध्यान का दैनिक अभ्यास मुझे अपनी चिन्ताओं को नियंत्रण में रखने में सहायक हो सकता है।
लेकिन केवल ध्यान साधना से ही मेरा रक्तचाप कम नहीं हो जाएगा। इससे मदद तो मिल सकती है, लेकिन मुझे अपने खान-पान में भी बदलाव करना होगा, और अधिक शारीरिक व्यायाम करना होगा, और मुझे दवाएं भी लेने की आवश्यकता हो सकती है। बहुत से घटकों को एक साथ लागू करने से मुझे अपने रक्तचाप को नियंत्रित करने का इच्छित परिणाम हासिल होगा।
स्वाभाविक है कि ध्यान साधना के लिए प्रयोग की जाने वाली विधियों का प्रयोग नकारात्मक मनोवृत्ति विकसित करने के लिए भी किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, मैं इस विषय पर भी चिन्तन कर सकता हूँ कि मेरा शत्रु कितना बुरा व्यक्ति है। मैं ध्यान लगाकर अपने अन्दर घृणा का भाव
उत्पन्न कर सकता हूँ जो मुझे अपने शत्रु को ढूँढ निकालने और उसे मिटा देने के लिए प्रेरित कर सकता है। किन्तु ध्यान साधना का प्रयोग सामान्यतः इस प्रकार नहीं किया जाता है। सामान्यतया ध्यान साधना का प्रयोग एक ऐसी सकारात्मक मनोवृत्ति के निर्माण के साधन के रूप में किया जाता है जो स्वयं हमारे लिए लाभप्रद होने के साथ-साथ दूसरों के लिए भी हितकारी सिद्ध हो सके।
ध्यान क्या नहीं है ?
अक्सर लोग सोचते हैं कि आंख बंद करके बैठना ही ध्यान है। मगर निरुद्देश्य चुपचाप आंखे बंद करना ध्यान नहीं है। एकाग्रता भी ध्यान नहीं है क्योंकि एकाग्रता तो अपराधी और भोगी व्यक्तियों में भी पायी जाती है परन्तु वे ध्यान को उपलब्ध नहीं होते हैं। हाँ इतना अवश्य है कि एकाग्रता ध्यान में सहायक है और ध्यान से पहले एकाग्रता का अभ्यास अनिवार्य है। ध्यान पूजा या प्रार्थना भी नहीं है क्योंकि प्रार्थना एक धर्मिक गतिविधि है जिसमें ईश्वर का होना या मानना अनिवार्य है परन्तु ध्यान एक योग क्रिया है इसका धर्म से कुछ भी लेना देना नहीं है। यह अलग बात है कि पूजा या प्रार्थना में प्रभु में ध्यान लगाया जाता है। प्रार्थना के लिए ध्यान आवश्यक है परन्तु ध्यान के लिए प्रार्थना आवश्यक नहीं है।
अतः ध्यान निष्क्रियता नहीं बल्कि सघनतम एवं सूक्ष्मतम कर्म है। ध्यान किसी विषय पर एकाग्रता न होकर सभी विषयों से पार जाना है। ध्यान एक योग अभ्यास है जिसे नास्तिक व्यक्ति भी कर सकता है।
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ध्यान में प्रगति कैसे करें ?
अपने स्वभाव एवं रुचि के अनुसार सही meditation techniques का चयन करें। ध्यान में बैठने के लिए एक विशेष ‘आसन’ और मुद्रा का चुनाव कर लें। यह ऐसा आसन हो जिसमें आप बिना हिले डुले ध्यान की अवधि तक आराम से बैठ सकें। यदि कमर अथवा घुटनों में समस्या है तो आराम कुर्सी या सोफा भी प्रयोग कर सकते हैं। यदि कमजोरी या बीमारी है तो लेटकर भी कर सकते हैं।
अच्छा हो कि ध्यान का स्थान और समय निश्चित कर लें। ऐसा करने से शरीर और मन शीघ्र ही उस परिवेश में सहज हो जाते हैं। यदि व्यस्तता के कारण ऐसा सम्भव न हो सके तो भी ध्यान बंद न करें। ध्यान का सर्वोत्तम समय सूर्योदय से पूर्व शान्त वातावरण के समय या सूर्यास्त के ठीक बाद का समय भी उपयुक्त है। यदि ऐसा ना हो सके तो सुबह आँख खुलते ही तथा सोने से ठीक पहले भी ध्यान कर लेना चाहिए। वैसे ध्यान जब भी करेंगे ठीक ही रहेगा। बस खाना खाने के ठीक बाद ध्यान न करें।
आरम्भ में व्यक्ति ध्यान में कुछ असहजता एवं तनाव महसूस कर सकता है परन्तु यह किसी भी नये कार्य में स्वाभाविक है इससे विचलित न हो। धीरे-धीरे दो चार दिनों में सब सामान्य हो जाता है। ध्यान में प्रगति पहले दिन से ही आरम्भ हो जाती है परन्तु फिर भी धैर्यपूर्वक अभ्यास करते रहें तथा उत्साह बनाये रखें। जैसे-जैसे ध्यान में प्रगति होती जायेगी वैसे-वैसे ही जीवन में शांति व्यवस्था और सफलता आती जायेगी। अभ्यास के दौरान उत्साह बनाये रखें। यदि ध्यान में कोई ऐसा अनुभव हो जो समझ में न आये या जिससे घबराहट, शरीर में कंपन या अतिरेक की अनुभूति हो तो अपने मार्गदर्शक से तुरंत सम्पर्क करें।
ध्यान के लाभ – Dhyan Lagane ke fayde
शारीरिक लाभ
- यह रक्तचाप (BP) को नियन्त्रित करता है।
- तनाव से मुक्ति प्रदान करता है।
- शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाता है।
- त्वचा में चमक लाता है तथा आयु के प्रभाव को कम करता है।
- शरीर के रोगों और दर्द में राहत प्रदान करता है।
- अल्सर आदि के उपचार की प्रक्रिया को तीव्र करता है।
- शरीर की अन्तः स्रावी गन्थियों जैसे थाइरोइड आदि अन्तःस्रावी ग्रंथियों (Endocrine Glands) के कार्य को नियमित करता है।
- शरीर में शांति और उत्साह देने वाले हार्मोन एन्डोरफिनस तथा सीरोटोनिन की मात्रा को बढ़ाता है तथा तनाव बढ़ाने वाले हार्मोन कार्टिसोल की मात्रा को नियन्त्रित करता है।
- शरीर में थकावट और आलस्य को दूर करता है।
- नींद और आराम में गहराई लाता है।
- शरीर के सभी अंगों में शक्ति और विश्रान्ति प्रदान करता है।
मानसिक लाभ
- ध्यान एकाग्रता बढ़ाता है।
- याददाश्त में जबरदस्त सुधार करता है।
- मन से नकारात्मक विचारों को दूर करता है।
- ओ.सी.डी, डिप्रेशन, एन्जाइटी जैसे मनोरोगों से लड़ने में मदद करता है परन्तु ऐसे मामलों में चिकित्सीय परामर्श के साथ अनुभवी गुरु के मार्गदर्शन में ही आगे बढ़ना चाहिए।
- अपने ऊपर नियन्त्रण की शक्ति बढ़ाता है।
- बोध को निखारता है।
- ध्यान से विचारों में स्पष्टता आती है तथा निर्णय क्षमता बढ़ती है।
- ध्यानी व्यक्ति ज्यादा संतुलित और संवेदनशील बन जाता है।
- ध्यान के अभ्यास के बाद मष्तिष्क की बीटा गतिविधियों में कमी तथा अल्फा एवं गामा तरंग गतिविधियों में वृद्धि पायी गई है।
- ध्यान जीवन को शांति, प्रसन्नता और उत्साह की सुगन्ध से भर देता है।
- ध्यान समाज में समरसता, रिश्तों में प्रगाढ़ता लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।
बेहतर स्वास्थ्य
शरीर की रोग-प्रतिरोधी शक्ति में वृद्धि, रक्तचाप में कमी, तनाव में कमी, स्मृति-क्षय में कमी (स्मरण शक्ति में वृद्धि ,वृद्ध होने की गति में कमी ,उत्पादकता में वृद्धि मन शान्त होने पर उत्पादक शक्ति बढती है; लेखन आदि रचनात्मक कार्यों में यह विशेष रूप से लागू होता है। आत्मज्ञान की प्राप्ति ध्यान से हमे अपने जीवन का उद्देश्य समझने में सहायता मिलती है। इसी तरह किसी कार्य का उद्देश्य एवं महत्ता का सही ज्ञान हो पाता है। छोटी-छोटी बातें परेशान नहीं करतीं मन की यही प्रकृति (आदत) है कि वह छोटी-छोटी अर्थहीन बातों को बडा करके गंभीर समस्यायों के रूप में बदल देता है। ध्यान से हम अर्थहीन बातों की समझ बढ जाती है; उनकी चिन्ता करना छोड देते हैं; सदा बडी तस्वीर देखने के अभ्यस्त हो जाते हैं।
ध्यान साधना के माध्यम से नवीन चित्तवृत्तियों का विकास
ध्यान साधना में हम अपनी मनोदशा से सम्बंधित व्यवहार करते हैं, और इसलिए कोई सकारात्मक बदलाव लाने के लिए कोई मानसिक विधि या प्रक्रिया अपनाना ही उचित होगा। वैसे, अपनी मनोदशा को बदलने का यत्न करने के लिए हम दैहिक तरीके भी अपना सकते हैं; उदाहरणतः विभिन्न योग मुद्राओं में बैठने या ताइ ची जैसी विभिन्न युद्ध कलाओं का अभ्यास किया जा सकता है। ये प्रक्रियाएं अपने आप में ध्यान साधना नहीं हैं।
ऐसी दैहिक विधियाँ एक निश्चित प्रकार की मनोदशा को विकसित करने में सहायक तो हो सकती हैं, लेकिन ध्यान साधना तो केवल चित्त का व्यवहार है। निःसंदेह आप योग की मुद्राओं या ताइ ची का अभ्यास करते हुए ध्यान साधना कर सकते हैं। लेकिन शारीरिक कार्यकलाप और मानसिक क्रियाशीलता दो अलग-अलग बातें हैं: एक में हम दैहिक साधन का प्रयोग करते हैं जबकि दूसरी का सम्पादन हम अपने चित्त की सहायता से करते हैं।
इच्छित परिणाम प्राप्त करने के लिए हमें दैहिक और मानसिक दोनों प्रकार के विभिन्न कारण हेतुओं का प्रयोग करना पड़ सकता है। उदाहरण के लिए हम अपनी भौतिक काया पर अभ्यास के माध्यम से अपना पथ्य परिवर्तन करके अपनी चित्तवृत्ति को बदल सकते हैं। किन्तु ध्यान साधना का अभ्यास तो
स्वयं चित्त पर ही किया जाता है। इसलिए जब हम कोई विशिष्ट मनोरथ हासिल करना चाहते हैं तो हमें यह मालूम करना चाहिए कि उस उद्देश्य को हासिल करने की दृष्टि से हम दैहिक और मानसिक दोनों स्तरों पर अपने जीवन में क्या-क्या बदलाव करें। इसके लिए हमें ध्यान साधना का अभ्यास शुरू करने, अपने पथ्य में बदलाव करने, और अधिक शारीरिक व्यायाम करने, या इन सभी कार्यों को एक साथ करने की आवश्यकता हो सकती है।
यदि ध्यान साधना का अभ्यास ठीक प्रकार से किया जाए तो साधना के सत्रों के बीच में हमारे दैनिक जीवन में इसका प्रभाव दिखाई देने लगेगा। जब हम ध्यान साधना के सत्रों में किसी विशिष्ट चित्तवृत्ति, चाहे वह और अधिक शांति, और अधिक केन्द्रित होने, या और अधिक प्रेमभाव की अवस्था हो, को विकसित करने के लिए अभ्यास कर रहे होते हैं तब मुद्दा सिर्फ़ ध्यान की मुद्रा में शांत बैठ कर चित्त की उस अवस्था को प्राप्त करने मात्र का नहीं होता है।
मूल उद्देश्य उस सकारात्मक अवस्था को उस सीमा तक प्राप्त कर लेने का होता है जहाँ वह हमारा स्वभाव बन जाए, एक ऐसी आदत जिसे हम आवश्यकतानुसार कभी भी प्रयोग में ला सकें। अन्ततोगत्वा वह अवस्था हमारी सहज पवृत्ति बन जाती है जो सदैव हमारे साथ रहती है और हम और अधिक प्रेमभाव, ज्ञान चेतना से परिपूर्ण, केन्द्रित और शांत बने रहते हैं।
जब हम पाते हैं कि हम चित्त की उस प्रकार की अवस्था में नहीं हैं तो हमें अपने आप को केवल स्मरण मात्र कराना होता है: “और अधिक प्रेममय बनो।“ और चूँकि हम अभ्यास के परिणामस्वरूप उस चित्तवृत्ति से इतना अधिक परिचित हो चुके होते हैं कि हम तत्क्षण अपने आप को चित्त की उस अवस्था में ले जा सकते हैं। उदाहरण के लिए, जब हमें लगता है कि हमें किसी पर क्रोध आ रहा है, तो हमें तुरन्त इस बात का आभास हो जाता है और हम साभिप्राय या अनजाने में ही अपने आप को स्मरण कराते हैं: “ मैं उस तरह का व्यक्ति नहीं बनना चाहता हूँ।“ और फिर चुटकी बजाते ही हम अपने क्रोध के इस “आवेग” को रोक लेते हैं और उस व्यक्ति के प्रति अपने दृष्टिकोण को प्रेममय बना लेते हैं। यह कुछ-कुछ इस तरह होता है जैसे हम अपने कम्प्यूटर में कोई त्रुटि संदेश मिलने पर उसे री-बूट की प्रक्रिया से फिर से शुरू करते हैं।
प्रेममय करुणा जैसी इन चित्तवृत्तियों को विकसित करना केवल एक अनुशासन मात्र नहीं है। उदाहरणतः और अधिक प्रेममय बनने के लिए हमें इस बात का बोध होना चाहिए कि हमें और अधिक प्रेममय बनने की आवश्यकता क्यों है। हमें यह विचार करके हम स्वयं को स्मरण करा सकते हैं कि हम सभी आपस में एक-दूसरे के साथ जुड़े हुए हैं: “तुम भी मेरी ही तरह एक मनुष्य हो; मेरी ही तरह तुम्हारी भी भावनाएं हैं; तुम चाहते हो कि तुम्हें प्रेम किया जाए और तुम्हारी उपेक्षा या तिरस्कार न हो ─ वैसे ही जैसे मैं चाहता हूँ; हम सभी यहाँ इस ग्रह पर एक साथ हैं और हम सभी को एक-दूसरे के साथ मिल-जुल कर रहना होगा।“
इस बात को समझने के लिए एक उदाहरण उपयोगी साबित हो सकता है। कल्पना कीजिए कि आप किसी ऐसी लिफ्ट में हैं जिसमें दस लोग सवार हैं, और फिर अचानक लिफ्ट बीच में अटक जाती है और आप कुछ दिनों के लिए उस लिफ्ट में फँस जाते हैं। आप लिफ्ट में सवार अन्य लोगों के साथ ताल-मेल किस तरह बैठाएंगे? आप उनके बीच हैं ─ आप सभी एक साथ फँसे हुए हैं। आप सभी एक जैसी स्थिति में हैं; फिर भी आप सभी को एक-दूसरे के साथ ताल-मेल बैठाना होगा।
उस छोटी सी जगह में यदि आप सभी एक-दूसरे से झगड़ने लगे तो स्थिति बहुत दुर्भाग्यपूर्ण हो जाएगी, है न? झगड़ने के बजाए आप को उन सभी लोगों के साथ सहयोग करने और धैर्यपूर्वक व्यवहार करने की आवश्यकता है। आपको सभी के साथ मिल कर उस कठिन परिस्थिति से बाहर निकलने का मार्ग खोजने की आवश्यकता है। तो उसी प्रकार यदि हम इस ग्रह की कल्पना एक बड़े आकार वाली लिफ्ट के रूप में करें तो सम्भव है कि बात हमारी समझ में आ सके।
इस प्रकार विस्तार से चिन्तन करके हम एक ऐसी मनोदशा विकसित कर सकते हैं जिसमें दूसरों के प्रति प्रेम और सहिष्णुता का भाव हो। केवल ध्यान की अवस्था में बैठ जाने या अपने आप से यह कहने मात्र से कि “मैं और अधिक प्रेममय बनूँगा”, कोई वास्तविक सद्भाव विकसित करना बेहद कठिन है। इसलिए, जब हम यह प्रश्न पूछते हैं कि ध्यान साधना किस प्रकार की जाए तो उसका एक तरीका यह है कि और अधिक प्रेममय तथा सहिष्णु बनने के इस उदाहरण की ही भांति कोई एक निश्चित मनोदशा विकसित की जाए।
लिफ्ट वाले परिदृश्य की तरह हम मानसिक परिदृश्यों का उपयोग करना सीख सकते हैं। हम उस के विषय में तब तक चिन्तन करते हैं जब तक कि हमें उसके अर्थ का बोध नहीं हो जाता। और फिर ध्यान की शांत मुद्रा में बैठकर अपने आस-पास के लोगों, चाहे वे हमारे परिचित हों या अपरिचित लोग हों, की कल्पना करते हुए हम प्रेम और करुणा की चित्तवृत्ति को विकसित करने का प्रयास करते हैं।