दैनिक यज्ञ और ज्ञान यज्ञ
यज्ञों की भौतिक और आध्यात्मिक महत्ता असाधारण है। भौतिक या आध्यात्मिक जिस क्षेत्र पर भी दृष्टि डालें उसी में दैनिक यज्ञ की महत्वपूर्ण उपयोगिता दृष्टिगोचर होती है। वेद में ज्ञान, कर्म, उपासना तीन विषय हैं । कर्म का अभिप्राय-कर्मकाण्ड से है, कर्मकाण्ड दैनिक यज्ञ को कहते हैं । वेदों का लगभग एक तिहाई मंत्र भाग यज्ञों से संबंध रखता। यों तो सभी वेदमंत्र ऐसे हैं जिनकी शक्ति को प्रस्फुरित करने के लिए उनका उच्चारण करते हुए दैनिक यज्ञ करने की आवश्यकता होती है ।
दैनिक यज्ञ में जो थोड़ा-सा समय और पैसा खर्च होता है उसकी अपेक्षा अनेकों गुना लाभ प्राप्त होता। खेती में थोड़ा-सा बीज बोने पर अनेक गुनी फसल पैदा होती। दैनिक यज्ञ में भी आकाश रूपी भूमि में, दैनिक यज्ञ सामग्री रूपी बीज बोने की खेती की जाती है और चूंकि पृथ्वी से आकाश तत्व की शक्ति हजारों गुनी अधिक मानी गई है, उसी अनुमान से इस यज्ञीय खेती की फसल में हजारों गुना अधिक लाभ होता है। दैनिक और नियमित रूप से घर पर या देवालयों में यज्ञ करने के कई असाधारण लाभ है –
दैनिक यज्ञ के चमत्कारिक लाभ
मनुष्य शरीर से निरन्तर निकलती रहने वाली गंदगी के कारण जो वायु मण्डल दूषित होता रहता है, उसकी शुद्धि दैनिक यज्ञ की सुगन्ध से होती है ! दैनिक यज्ञ धूम्र आकाश में जाकर बादलों में मिलता है ! उससे वर्षा का अभाव दूर होता है। साथ ही दैनिक यज्ञ धूम्र की शक्ति के कारण बादलों में प्राणशक्ति भर जाती है। दैनिक यज्ञ के द्वारा जो शक्तिशाली तत्व वायु मण्डल में फैलाये जाते हैं उनसे हवा में घूमते हुए असंख्यों रोग-कीटाणु सहज ही नष्ट हो जाते हैं ।
यज्ञ द्वारा विश्वव्यापी पंच तत्वों की, तन्मात्रा की, तथा दिव्य शक्तियों की परिपुष्टि होती है ! इसके क्षीण हो जाने पर दुखदायी असुरता संसार में बढ़ जाती है और मनुष्यों को नाना प्रकार के त्रास सहने पड़ते हैं । यज्ञ में जिन मन्त्रों का उच्चारण किया जाता है उन की शक्ति असंख्यों गुनी अधिक होकर संसार में फैल जाती है, और उस शक्ति का लाभ सारे विश्व को प्राप्त होता है।
दैनिक यज्ञ की ऊष्मा मनुष्य के अन्तःकरण पर देवत्व की छाप डालती है । जहां दैनिक यज्ञ होते हैं वह भूमि एवं प्रदेश सुसंस्कारों की छाप अपने अन्दर धारण कर लेता है और वहां जाने वालों पर भी दीर्घ काल तक प्रभाव डालती रहती है।
कुबुद्धि, कुविचार, दुर्गुण एवं दुष्कर्मों से व्यक्तियों की मनोभूमि में दैनिक यज्ञ से भारी सुधार होता है ! इसलिए दैनिक यज्ञ को पाप नाशक कहा गया है । यज्ञीय प्रभाव से सुसंस्कृत हुई विवेकपूर्ण मनोभूमि का प्रतिफल जीवन के प्रत्येक क्षण को स्वर्गीय आनन्द से भर देता है, इसलिए यज्ञ को स्वर्ग देने वाला कहा गया है।
यज्ञों की शोध की जाय तो प्राचीन काल की भांति दैनिक यज्ञ शक्ति से सम्पन्न अग्नेयास्त्र, वरुणास्त्र, सम्मोहनास्त्र, आदि अस्त्र शस्त्र, पुष्पक विमान जैसे यंत्र बन सकते हैं, अनेकों ऋद्धि सिद्धियों को प्राप्त किया जा सकता है।
यज्ञीय धर्म प्रक्रियाओं में भाग लेने से आत्मा पर चढ़े हुए मल विक्षेप शुद्ध होते हैं। फलस्वरूप तेजी से उसमें ईश्वरीय प्रकाश आने लगता है । दैनिक यज्ञ से आत्मा में ब्राह्मण तत्व, ऋषितत्व की वृद्धि दिन-दिन होती है और आत्मा को परमात्मा से मिलाने का परम-लक्ष बहुत सरल हो जाता है।
दैनिक यज्ञ त्यागमय जीवन के आदर्श का प्रतीक है । इदम न ममः (यह मेरा नहीं सम्पूर्ण समाज का है) इन भावनाओं के विकास से ही हमारा सनातन आध्यात्मिक समाजवाद जीवित रह सकता है । अपनी प्रिय वस्तुएं घृत, मिष्ठान्न, मेवा औषधियां, आदि दैनिक यज्ञ करके उन्हें सारे समाज के लिये बांट देकर हम उसी प्राचीन आदर्श को मनोभूमि में प्रतिष्ठापित करते हैं। मनुष्य अपनी योग्यता, शक्ति, विद्या, सम्पत्ति, प्रतिष्ठा, प्रभाव पद आदि का उपयोग अपने सुख के लिये कम से कम करके समाज को उसका अधिकाधिक लाभ दे यही आदर्श दैनिक यज्ञ में सन्निहित है।
अपनी थोड़ी सी वस्तु को सूक्ष्म वायु रूप बना कर उन्हें समस्त जड़ चेतन प्राणियों को बिना किसी अपने पराये, मित्र शत्रु का भेद किये सांस द्वारा इस प्रकार गुप्त दान के रूप में खिला देना कि उन्हें पता भी न चले कि किस दानी ने हमें इतना पौष्टिक तत्व खिला दिया। सचमुच एक श्रेष्ठ ब्रह्मभोज का पुण्य प्राप्त करना है।
मंत्र, संविधा और हवन सामग्री से किये गये यज्ञ से “ज्ञान यज्ञ”अधिक श्रेष्ठ है
यज्ञ का तात्पर्य मात्र किसी विशेष लकड़ी की संविधा में अग्नि को जलाकर उसमें कुछ विशेष मंत्रों के साथ हवन सामग्री की आहुति करना नहीं है । यज्ञ अनेकों प्रकार के होते हैं कुछ यज्ञ प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं कुछ यज्ञ से हैं जो बाहर तो प्रत्यक्ष नहीं दिखाई देते लेकिन मन और शरीर के अंदर निरंतर चलते रहते हैं जो यज्ञ मन और शरीर के अंदर निरंतर चलते रहते हैं । उन्हीं यज्ञो का वर्णन श्रीमद्भगवद्गीता में वेदव्यास ने विस्तार से किया है।
यज्ञ भगवद्गीता के अनुसार परमात्मा के निमित्त किया कोई भी कार्य यज्ञ कहा जाता है ! परमात्मा के निमित्त किये कार्य से संस्कार पैदा नहीं होते न कर्म बंधन होता है । भगवदगीता के चौथे अध्याय में भगवान श्री कृष्ण द्वारा अर्जुन को उपदेश देते हुए विस्तार पूर्वक विभिन्न प्रकार के यज्ञों को बताया गया है ।
श्री भगवन कहते हैं, अर्पण ही ब्रह्म है, हवि ब्रह्म है, अग्नि ब्रह्म है, आहुति ब्रह्म है, कर्म रूपी समाधि भी ब्रह्म है और जिसे प्राप्त किया जाना है वह भी ब्रह्म ही है । यज्ञ परब्रह्म स्वरूप माना गया है ! इस सृष्टि से हमें जो भी प्राप्त है, जिसे अर्पण किया जा रहा है, जिसके द्वारा हो रहा है, वह सब ब्रह्म स्वरूप है अर्थात सृष्टि का कण कण, प्रत्येक क्रिया में जो ब्रह्म भाव रखता है वह ब्रह्म को ही पाता है अर्थात ब्रह्म स्वरूप हो जाता ।
कर्म योगी “देव यज्ञ” का अनुष्ठान करते हैं तथा अन्य ज्ञान योगी ब्रह्म अग्नि में यज्ञ द्वारा यज्ञ का हवन करते हैं । देव पूजन उसे कहते हैं जिसमें योग द्वारा अधिदैव अर्थात जीवात्मा को जानने का प्रयास किया जाता है । कई योगी ब्रह्म अग्नि में आत्मा को आत्मा में हवन करते हैं अर्थात अधियज्ञ (परमात्मा) का पूजन करते हैं । कई योगी इन्द्रियों के विषयों को रोककर अर्थात इन्द्रियों को संयमित कर हवन करते हैं, अन्य योगी शब्दादि विषयों को इन्द्रिय रूप अग्नि में हवन करते है अर्थात मन से इन्द्रिय विषयों को रोकते हैं अन्य कई योगी सभी इन्द्रियों की क्रियाओं एवं प्राण क्रियाओं को एक करते हैं अर्थात इन्द्रियों और प्राण को वश में करते हैं, उन्हें निष्क्रिय करते हैं ।
इन सभी वृत्तियों को करने से ज्ञान प्रकट होता है ज्ञान के द्वारा आत्म संयम योगाग्नि प्रज्वलित कर सम्पूर्ण विषयों की आहुति देते हुए “आत्म यज्ञ” करते हैं । इस प्रकार भिन्न भिन्न योगी द्रव्य यज्ञ तप यज्ञ तथा दूसरे योग यज्ञ करने वाले है और कई तीक्ष्णव्रती होकर योग करते हैं यह स्वाध्याय यज्ञ करने वाले पुरुष शब्द में शब्द का हवन करते है ।
इस प्रकार यह सभी कुशल और यत्नशील योगाभ्यासी पुरुष जीव बुद्धि का आत्म स्वरूप में हवन करते हैं ! द्रव्य यज्ञ- इस सृष्टि से जो कुछ भी हमें प्राप्त है उसे ईश्वर को अर्पित कर ग्रहण करना । तप यज्ञ- जप कहाँ से हो रहा है इसे देखना “तप यज्ञ” है । स्वर एवं हठ योग क्रियाओं को भी तप यज्ञ जाना जाता है ।
प्रत्येक कर्म को ईश्वर के लिया कर्म समझ निपुणता से करना “योग यज्ञ” है । तीक्ष्ण वृती- यम नियम संयम आदि कठोर शारीरिक और मानसिक क्रियाओं द्वारा मन को निग्रह करने का प्रयास। शम, दम, उपरति, तितीक्षा, समाधान, श्रद्धा ।
मन को संसार से रोकना “शम” है । बाह्य इन्द्रियों को रोकना “दम” है । निवृत्त की गयी इन्द्रियों भटकने न देना “उपरति” है । सर्दी-गर्मी, सुख-दुःख, हानि-लाभ, मान अपमान को शरीर धर्म मानकरसरलता से सह लेना “तितीक्षा” है। रोके हुए मन को आत्म चिन्तन में लगाना “समाधान”है ।
कई योगी “अपान वायु” में “प्राण वायु” का हवन करते हैं जैसे अनुलोम विलोम से सम्बंधित श्वास क्रिया तथा कई “प्राण वायु” में “अपान वायु” का हवन करते हैं जैसे गुदा संकुचन अथवा सिद्धासन आदि । कई दोनों प्रकार की वायु, प्राण और अपान को रोककर प्राणों को प्राण में हवन करते हैं जैसे रेचक और कुम्भक प्राणायाम । कई सब प्रकार के आहार को जीतकर अर्थात नियमित आहार करने वाले प्राण वायु में प्राण वायु का हवन करते हैं अर्थात प्राण को पुष्ट करते हैं ।
इस प्रकार ज्ञानी जन यज्ञों द्वारा काम, क्रोध एवं अज्ञान रूपी पाप का नाश करने वाले सभी यज्ञ को जानने वाले हैं अर्थात ज्ञान से परमात्मा को जान लेते हैं। यज्ञ से बचे हुए अमृत का अनुभव करने वाले पर ब्रह्म परमात्मा को प्राप्त होते हैं अर्थात यज्ञ क्रिया के परिणाम स्वरूप जो बचता है वह ज्ञान “ब्रह्म स्वरूप” है । इस ज्ञान रूपी अमृत को पीकर वह योगी तृप्त और आत्म स्थित हो जाते हैं परन्तु जो मनुष्य यज्ञाचरण नहीं करते, उनको न इस लोक में कुछ हाथ लगता है न परलोक में ।
इस प्रकार बहुत प्रकार जो यज्ञ विधियां वेद में बताई गयी हैं ! वह यज्ञ विधियां कर्म से ही उत्पन्न होती हैं ! इस बात को जानकर कर्म की बाधा से जीव मुक्त हो जाता है । “द्रव्यमय यज्ञ” की अपेक्षा “ज्ञान यज्ञ” अत्यन्त श्रेष्ठ है । द्रव्यमय यज्ञ सकाम यज्ञ हैं और अधिक से अधिक स्वर्ग को देने वाले हैं परन्तु ज्ञान यज्ञ द्वारा योगी कर्म बन्धन से छुटकारा पा जाता है और परम गति को प्राप्त होता है ! सभी कर्म ज्ञान में समाप्त हो जाते हैं। ज्ञान से ही आत्म तृप्ति होती है और कोई कर्म अवशेष नहीं रहता ।
जिस प्रकार प्रज्ज्वलित अग्नि सभी काष्ठ को भस्म कर देती है ! उसी प्रकार ज्ञानाग्नि सभी कर्म फलों को और उनकी आसक्ति को जला कर भस्म कर देती है । इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला वास्तव में कुछ भी नहीं है क्योंकि जल, अग्नि आदि से यदि किसी मनुष्य अथवा वस्तु को पवित्र किया जाय तो वह शुद्धता और पवित्रता थोड़े समय के लिए ही होती है, जबकि ज्ञान से जो मनुष्य पवित्र हो जाय वह पवित्रता सदैव के लिए हो जाती है ।
ज्ञान ही अमृत है और इस ज्ञान को लम्बे समय तक योगाभ्यासी पुरुष अपने आप अपनी आत्मा में प्राप्त करता है क्योंकि “आत्मा ही अक्षय ज्ञान का श्रोत है। जिसने अपनी इन्द्रियों का वश में कर लिया है तथा निरन्तर उन्हें वश में रखता है, जो निरन्तर आत्म ज्ञान में तथा उसके उपायों में श्रद्धा रखता है जैसे गुरू, शास्त्र, संत आदि में । ऐसा मनुष्य उस अक्षय ज्ञान को प्राप्त होता है तथा ज्ञान को प्राप्त होते ही परम शान्ति को प्राप्त होता है । ज्ञान प्राप्त होने के बाद उसका मन नहीं भटकता, इन्द्रियों के विषय उसे आकर्षित नहीं करते, लोभ मोह से वह दूर हो जाता है तथा निरन्तर ज्ञान की पूर्णता में रमता हुआ आनन्द को प्राप्त होता है ।