स्वामी सत्यमित्रानन्द गिरि का जीवन परिचय – Swami Satyamitranand Giri Biography
सनातन परंपरा के संतों में सहज, सरल और तपोनिष्ठ स्वामी सत्यमित्रानंद गिरि का नाम उन संतों में लिया जाता है, जिनके आगे कोई भी पद या पुरस्कार छोटे पड़ जाते हैं। तन, मन और वचन से परोपकारी संत सत्यमित्रानंद आध्यात्मिक चेतना के धनी थे।
स्वामी सत्यमित्रानंद जी महाराज का प्रारम्भिक जीवन –
स्वामी सत्यमित्रानन्द गिरि जी महाराज (19 सितंबर, 1932) ज्योतिषपीठ बद्रिकाश्रम से संबद्ध आचार्यपीठ भानपुरा के जगद्गुरु शंकराचार्य (निवृत्त) हैं। 29 अप्रैल, 1960 अक्षय तृतीया के दिन स्वामीजी ज्योतिर्मठ भानपुरा पीठ पर जगद्गुरु शंकराचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुए।
स्वामी सत्यमित्रानंद जी महाराज का जन्म
अंबिका प्रसाद जी पांडेय (सत्यमित्रानंदजी) का जन्म 19 सितंबर 1932, में आगरा के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था | बाल्यावस्था से ही अध्ययनशील, चिंतक और निस्पृही व्यक्तित्व के धनी थे। अम्बिका का झुकाव शुरू से ही अध्यात्म की ओर था। दस वर्ष की अवस्था में ही वह नैमिषारण्य आ गये और प्राचीन धर्मग्रन्थों का अध्ययन करने लगे। उनके पिताश्री राष्ट्रपति सम्मानित शिक्षक शिवशंकरजी पांडेय ने उन्हें सदैव अपने लक्ष्य के प्रति सजग और सक्रिय बने रहने की प्रेरणा दी।
नैमिषारण्य में स्वामी वेदव्यासानन्द सरस्वती ने उनकी शिक्षा की व्यवस्था की। एक बार वहाँ संघ का शीत शिविर लगा, जिसमें सरसंघचालक श्री गुरुजी भी आये थे। अम्बिका के मन में गुरुजी के लिए बहुत श्रद्धा थी। वह पैदल चलकर शिविर में पहुँचे और उनसे आग्रह किया कि वे कुछ देर के लिए उनके आश्रम में चलें।
गुरुजी ने उन्हें अपनी रजाई में बैठाया और गर्म दूध पिलवाया। इससे उनका उत्साह दूना हो गया; पर गुरुजी का प्रवास दूसरे स्थान के लिए निश्चित था। अतः अम्बिका ने दुराग्रह नहीं किया। श्री गुरुजी से हुई इस भेंट ने उनके मन में संघ की जो अमिट छाप छोड़ी, वह आज भी उनके मन में बसी है। 1949 में उन्होंने संघ के वरिष्ठ प्रचारक व समाजसेवी नानाजी देशमुख का भाषण सुना। तब से वे संघ के अति निकट आ गये।
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महामंडलेश्वर स्वामी वेदव्यासानंदजी महाराज से उन्हें सत्यमित्र ब्रह्मचारी नाम मिला और साधना के विविध सोपान भी प्राप्त हुए। 29 अप्रैल, 1960 अक्षय तृतीया के दिन स्वामीजी ज्योतिर्मठ भानपुरा पीठ पर जगद्गुरु शंकराचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुए, पर उनका मन आश्रम के वैभव और पूजा पाठ में कम ही लगता था। वे तो गरीबों के बीच जाकर उनकी सेवा करना चाहते थे; पर शंकराचार्य पद की मर्यादा इसमें बाधक थी। अतः उन्होंने इसके लिए योग्य उत्तराधिकारी ढूँढकर उन्हें सब काम सौंप दिया।
स्वामीजी ने 1969 में स्वयं को शंकराचार्य पद से मुक्त कर गंगा में दंड का विसर्जन कर दिया और अब केवल परिव्राजक संन्यासी के रूप में देश-विदेश में भारतीय संस्कृति व अध्यात्म के प्रचार-प्रसार में संलग्न हैं। परिचयसमन्वय-पथ-प्रदर्शक, अध्यात्म-चेतना के प्रतीक, भारतमाता मन्दिर से प्रतिष्ठापक ब्रम्हानिष्ठ स्वामी सत्यमित्रानन्द गिरि जी महाराज आज स्वामी विवेकानन्द की अनुकृति के रूप में हमारे सामने हैं।
प्रख्यात चिकित्सक स्व. डॉ. आरएम सोजतिया से निकटता के चलते भानपुरा क्षेत्र में उन्होंने अतिनिर्धन लोगों के उत्थान की दिशा में अनेक कार्य किए। हाल ही में सत्यमित्रानंदजी ने हरिद्वार में देश के शीर्ष संतों को भारत माता मंदिर में आमंत्रित किया था। यहाँ प्रमुख संतों ने सत्यमित्रानंदजी के जीवन पर प्रकाश डाला।
२६ वर्ष की अल्प वय में ही शंकराचार्य-पद पर अभिषिक्त होने के बाद दीन-दुखी, गिरिवासी, वनवासी, हरिजनों की सेवा और साम्प्रदयिक मतभेदों को दूर कर समन्वय-भावना का विश्व में प्रसार करने के लिए सनातन धर्म के महानतम पद को उन्होंने तृणवत् त्याग दिया।
परम पूज्य चरण श्री स्वामी जी ने धर्मिक, सांस्कृतिक और राष्ट्रीय-चेतना के समन्वित दर्शन एवं भारत की विभिन्नता में भी एकता की प्रतीति के लिए पतित-पावनी-भगवती-भागीरथी गंगा के तट पर सात मन्जिल वाले भारतमाता-मन्दिर बनवाया जो आपके मातृभूमि प्रेम व उत्सर्ग का अद्वितीय उदाहरण है। इस मन्दिर से देश-विदेश के लाखों लोग दर्शन कर आध्यात्म, संस्कृति, राष्ट्र और शिक्षा सम्बन्धी विचारों की चेतना और प्रेरणा प्राप्त कर रहे हैं। समन्वय भाव के प्रसार के लिए पूज्य श्री स्वामी जी विश्व के ६५ देशों की यात्रा अनेकश: कर चुके हैं।
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पद्मभूषण से हुए थे अलंकृत
स्वामी सत्यमित्रानंद जी भले ही हिंदू धर्म से जुड़े हुए संत थे, लेकिन उन्हें अन्य धर्मों के विषय में बहुत ज्ञान था। उनका मानना था कि अपने धर्म के प्रति गौरव की भावना और दूसरे धर्म के प्रति सहिष्णुता के सिद्धांत से विश्व में शांति आ सकती है। इसी दृष्टिकोण के अनुसार उन्होंने अपने हरिद्वार स्थित आश्रम का नाम समन्वय कुटीर रखा था। आध्यात्म जगत के बड़े हस्ताक्षर स्वामी सत्यमित्रानंद गिरि छूआछूत के भी प्रबल विरोधी रहे। स्वामी सत्यमित्रानंद की धर्म, संस्कृति और लोक कल्याण से जुड़ी सेवाओं को देखते हुए ही केंद्र सरकार ने उन्हें पद्मभूषण से अलंकृत किया था।
स्वामी सत्यमित्रानंद जी महाराज का निधन
हिन्दू हितचिन्तन के लिए समर्पित स्वामी सत्यमित्रानंद जी का 25 जून 2019 को निधन हुआ।