नित्य वंदना | Sandhya Pujan)
नित्य वंदना के आवश्यक अंगो में संध्या प्रमुख अंग है। कुछ विद्वानों का मत है कि पंचमहाभौतिक शरीर का शुद्धिकरण मात्र ही संध्या है, लेकिन संध्या का उदेश्य यही नही है बल्कि मानव शरीर के अन्नमय, प्राणमय एवं वासनामय आदि सभी कोशों को शुद्ध करके मोक्ष प्राप्ति का प्रमुख साधन है। संध्या का फल बताते हुए मनु ने कहा है कि दीर्घ संध्या करके दीर्घायु बनें।
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संध्या वंदन जितने अधिक समय तक हो, आयु उतनी ही अधिक होती है। संध्या के तीन काल कहा है कि दीर्घ संध्या करके दीर्घायु बनें। संध्या वंदन जितने अधिक समय तक हो, आयु उतनी ही अधिक होती है।
संध्या के तीन काल कहे गए है – उत्तम, मध्यम एवं कनिष्ठा।
इनके विषय में सूत्र ग्रंथो में इस प्रकार उल्लेख मिलता है- उत्तमा तारकोपेता, मध्यमा लुप्त तारका और कनिष्ठा सूर्य संहिता सायं संध्या त्रिधा स्मृता।। अर्थात् सूर्यास्त के पहले की गई संध्या उत्तम, सूर्यास्त के बाद परंतु तारे निकलने से पूर्व की गई संध्या मध्यम एवं तारों के उदय होने के बाद की गई संध्या कनिष्ठ होती हैं।
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संध्या की योजना और रचना करते समय ही ऋषि-मुनियो ने मानव देहांतर्गत चयापचयों का विचार किया था। हर रोज पूजा-पाठ करने पर शरीर में संजीवनी का संचार होता है। संध्या मे प्राणायाम, शरीर शुद्धि, मन शुद्धि, गायत्री उपासना, आसन जप, देवता वंदन, दिग्बंधन तथा मोचन आदि कई बातों अंतर्भाव रहता है। संध्या करने से दिन भर आई थकावट समाप्त हो जाती हैं अलग-अलग धर्माें, पंथों और संप्रदायों के अनुसार संध्या करने के भेद भले ही अलग-अलग हों लेकिन सबका उदेश्य एक ही है और वह है नित्य दैनिक क्रियाओं के लिए स्वयं को शारिरीक एवं मानसिक रूप से तैयार करना ।
संध्या के प्रमुख अंग ?
प्रमुख रूप से संध्या के 14 अंग है; आचमन, प्राणायाम, आसन, लघु, मार्जन, मंत्राचमन, दीर्घ मार्जन, अधम घर्षण, अघ्र्यदान, जप (न्यास, ध्यान), उपस्थान, दिक्प्रमाण, गुरूवंदन, देव-ब्रह्मण वंदन एवं द्विराचमन। इनमें से आचमन, प्राणायाम, अध्र्यदान, जप तथा द्विराचमन नितांत महत्वपूर्ण अंग हैं।