कहानी पाटलिपुत्र की

कहानी पाटलिपुत्र की : Story Of patliputra

बहुत समय पहले हरिद्वार के कनखल क्षेत्र में एक दक्षिण भारतीयब्राह्मण रहता था| उसके तीन बेटे थे| युवा होने पर ब्राह्मण ने उन्हेंविद्या प्राप्त करने के लिए राजगृह भेज दिया| जब वे तीनों अपनी शिक्षा पूरी करके घर लौटे तो कुछ ही दिन पश्चात उनके पिता कादेहांत हो गया|पिता के देहांत के पश्चात उनके मन में अपने पिता के पैतृक स्थानको देखने की इच्छा हुई|

वे दक्षिण भारत में स्थित भगवानकार्तिकेय के मंदिर में जाकर उनके दर्शन भी करना चाहते थे, अत: ‘एक पंथ दो काज’ वाली बात को ध्यान में रखकर वे तीनों दक्षिण भारत की ओर चल पड़े चलते-चलते वे तीनों भाई समुद्र तट पर स्थित चिंचनि नाम के एक प्राचीन नगर में पहुंचे और वहां भोजिक नाम के एकब्राह्मण के यहां अतिथि बनकर रहने लगे|

उस ब्राह्मण की तीन विवाह योग्य पुत्रियां थीं, लेकिन पुत्र कोई भी न था| तीनों ब्राह्मण युवकों को योग्य वर समझकर उस ब्राह्मण ने अपनी तीनों पुत्रियों का विवाह उन तीनों के साथ कर दिया और अपनी संपत्ति भी उन तीनों में बराबर-बराबर बांटकर तपस्या करने के लिए चला गया|

तीनों भाई अपनी ससुराल में रहने लगे| कुछ समय बाद वर्षा न होने के कारण वहां भारी अकाल पड़ गया| वे तीनों कुछ समय तो किसी तरह से अकाल की स्थिति का मुकाबला करते रहे, लेकिन जब स्थिति बहुत ज्यादा बिगड़ गई, तो एक दिन तीनों भाई अपनी पत्नियों को छोड़कर वहां से भाग गए| पतियों के भाग जाने पर तीनों बहनें बहुत दुखी हुईं|

उस समय मंझली बहन गर्भवती थी| विपत्ति के समय उन तीनों बहनों ने अपनी पिता के एक मित्र यज्ञदत्त के घर शरण ली| अपने पतियों के दुर्व्यवहार को याद करते हुए वे वहीं रहने लगीं| यज्ञदत्त उनके साथ अपनी पुत्रियों जैसा ही व्यवहार करता था| यथा समय मंझली बहन ने एक पुत्र को जन्म दिया| तीनों ही बहनें पुत्र पर अपार स्नेह रखती थीं|

एक बार भगवान स्कंद की मां पार्वती भगवान शिव के साथ वहां से गुजर रही थीं| उन्होंने उस बालक को देखा तो शिव से बोलीं – “भगवन्! देखिए, ये तीनों स्त्रियां इस बालक पर अपार स्नेह रखती हैं| इन्हें आशा है कि बड़ा होने पर यही बालक उनके जीवन का सहारा बनेगा, अत: आप इस बालक को इस योग्य बनाएं कि इन तीनों स्त्रियों की इच्छा पूर्ण हो|”
भगवान शिव ने कहा – “देवी पार्वती! मैं पहले ही इस बालक पर कृपा कर चुका हूं|”

“सच! भला वह कैसे?”

“अपने पूर्व जन्म में इसने पत्नी सहित सात्विक भाव से मेरी अर्चना की थी, उसी का फल भोगने के लिए इसे यह जन्म मिला है, इसकी पत्नी राजा महेंद्र की पुत्री पाटली बन चुकी है| इस जन्म में भी वही इसकी पत्नी बनेगी|”
उसी रात्रि भगवान शिव ने उन तीनों बहनों को स्वप्न में दर्शन दिए और कहा – “तुम्हारे इस बालक का नाम पुत्रक होगा| यह जब भी सोकर उठेगा, इसके सिरहाने के नीचे एक लाख सोने की मोहरें मिलेंगी और अपनी युवावस्था में यह राजा बनेगा|”
दूसरी प्रात: उठने पर सचमुच बालक के सिरहाने के नीचे सोने की मोहरें मिलीं|

अपने स्वप्न को सत्य हुआ जानकर तीनों बहनों को अपार आनंद हुआ| धीरे-धीरे नित्य ही ऐसा होने लगा| उनका कोष भरने लगा| युवावस्था आने पर पुत्रक राजा बन गया| सत्य ही कहा गया है – ‘सिद्धियां तप से प्राप्त होती हैं|’
एक बार यज्ञदत्त ने पुत्रक से एकांत में कहा – “महाराज! आपके पिता और उनके भाई अकाल में कहीं चले गए थे|

उन्हें खोजने के लिए आप आज से ही ब्राह्मणों को दान देना आरंभ कर दीजिए| हो सकता है, आपके दान की महिमा सुनकर वे भी चले आएं| इसी प्रकार ब्रह्मदत्त नामक एक राजा के साथ भी ऐसा ही हुआ था, उसकी कथा मैं आपको सुनाता हूं|”
इसके बाद यज्ञदत्त ब्रह्मदत्त की कथा सुनाने लगा – ‘प्राचीन काल में वाराणसी में राजा ब्रह्मदत्त का राज्य था| एक बार रात्रि में उसने हंसों के एक जोड़े को उड़ते हुए देखा| उन हंसों के सुनहरे पंखों से बिजली जैसी चमक निकल रही थी|

उन हंसों को देखने के बाद ब्रह्मदत्त दिन-रात उन्हीं के विचारों में डूबा रहता| उसे राज्य, सुखभोग आदि से भी तृष्णा हो गई| वह किसी भी प्रकार उन हंसों को प्राप्त करना चाहता था| अपने मंत्रियों के परामर्श पर उसने राजमहल के पास एक सुंदर सरोवर बनवाकर और राज्य में प्राणियों को अभयदान देने की घोषणा कर दी|

इस कार्य में राजा को सफलता मिली| हंसों का वह जोड़ा उसी सरोवर में रहने लगा| धीरे-धीरे राजा की उनसे मित्रता हो गई| तब राजा ने हंसों से उनके सुनहरे पंखों के रहस्य को जानना चाहा तो हंसों ने राजा को बताया – ‘पूर्वजन्म में हम कौए थे| एक बार भोजन के लिए लड़ते-झगड़ते हम एक सूने शिव मंदिर में पहुंचे| वहां हम एक पानी के कुंड में गिरकर मर गए| इसके बाद हम इस रूप में उत्पन्न हुए| यही हमारी कथा है|’

यज्ञदत्त पुत्रक से बोला – “इस प्रकार दान करने से तुम्हें अपने पिता आदि प्राप्त हो जाएंगे|”
यज्ञदत्त का परामर्श स्वीकार कर पुत्रक दान देने लगा| उसकी महिमा सुन उसका पिता भी अपने भाइयों के साथ दान लेने आया| अपनी पत्नियों और पुत्रों को धन-धान्य से संपन्न देख वे पुन: उनके साथ रहने लगे|

सभी का समय सुख से व्यतीत होने लगा, लेकिन कहा गया है कि दुष्ट अपनी दुष्टता कभी नहीं छोड़ सकते, अत: कुछ समय बाद वे तीनों दुष्ट ब्राह्मण अपने पुत्र को मारकर उसके राज्य पर अधिकार करने का विचार करने लगे| अपनी योजना को कार्यरूप देने के लिए उन्होंने भगवती विंध्यवासिनी के दर्शनों का बहाना बनाया और पुत्र को लेकर विंध्याचल पहुंच गए|

कुछ दिन वहां रहने के पश्चात एक दिन उन्होंने पुत्रक को अकेले ही मंदिर में जाने के लिए कहा| पुत्रक मंदिर में गया| वहां हाथों में खड्ग लिए हुए लाल आंखों वाले कुछ लोग उसकी हत्या करने के लिए तैयार खड़े थे| उन्हें देख उसने पूछा – “आप लोग मुझे क्यों मार डालना चाहते हैं?”

उन हत्यारों ने पुत्रक को सत्य बात बता दी कि उनके पिता तथा चाचा आदि ने इस हत्या के लिए उन्हें पर्याप्त धन दिया है| उनकी बात सुन पुत्रक ने उनसे कहा – “तुम मेरी हत्या न करो| इसके लिए मैं तुम्हें अनमोल रत्न देता हूं| मैं यह बात किसी से नहीं कहूंगा तथा यहां से बहुत दूर चला जाऊंगा|”

हत्यारों को दुगुना लाभ हो रहा था| उन्होंने पुत्रक की बात मान ली| पुत्रक के गुप्त रूप से निकल जाने पर उन्होंने उसके पिता आदि से कह दिया कि पुत्रक की हत्या कर दी गई है| इसके बाद पुत्रक की हत्या हुई जानकर वे ब्राह्मण घर लौटे| वे समझ रहे थे कि अब वही राज्य के स्वामी हैं| उन्हें अकेले लौटते देख मंत्रियों को संदेह हो गया कि उन्होंने राजा की हत्या कर दी है, अत: उन्होंने उन तीनों ब्राह्मणों को राजा का हत्यारा समझकर मरवा दिया|

उधर पुत्रक को अपने स्वजनों के इस व्यवहार से संसार से वैराग्य हो गया, अत: वह विध्यांचल के घने वन में तप करने का विचार करने लगा| वह आगे बढ़ रहा था कि तभी उसने दो ऐसे असुर युवक देखे थे जो आपस में झगड़ रहे थे| पुत्रक उनके समीप पहुंचा तो देखा कि भूमि पर एक जोड़ी खडाऊं, एक पात्र (बर्तन) तथा एक छड़ी रखी हुई है| उन दोनों से पूछने पर पता चला कि वे दोनों इन्हीं वस्तुओं को प्राप्त करने के लिए झगड़ रहे थे|

यह देख पुत्रक ने उनसे पूछा – “देखो भाई, इन मामूली-सी चीजों के लिए झगड़ा करना उचित नहीं है| आखिर ऐसी क्या खूबी है इन तीनों चीजों में जो इन्हें पाने के लिए एक-दूसरे की हत्या कर देने के लिए उतारू हो गए हो|”
उसकी बात सुनकर दोनों असुर कुमार बोले – “तुम इन चीजों का महत्त्व नहीं जानते, इसीलिए ऐसा कह रहे हो|

यह तीनों चीजें बहुत करामाती हैं| इन खड़ाऊओं को पहनने से आकाश में उड़ा जा सकता है, छड़ी से लिखी बात सत्य सिद्ध होती है और इस पात्र से जो भी भोजन मांगो, वह तुरंत मिल जाता है|” पुत्रक ने कुछ विचार किया और कहा – “यह सब तो ठीक है, किंतु इन्हें पाने का तुम्हारा यह उपाय उचित नहीं है| इसके लिए तुम दौड़ने की प्रतियोगिता करो| उसमें जो प्रथम आए, वही इन्हें प्राप्त करे|”

असुर पुत्र इस बात पर सहमत हो गए और उन वस्तुओं को वहीं छोड़ दौड़ पड़े| अवसर मिलते ही पुत्रक खड़ाऊं पहन पात्र और छड़ी लेकर आकाश में उड़ गया| आकाश से उसने आकर्षिका नामक एक सुंदर नगरी देखी तो वह वहीं उतर पड़ा| वहां उतरकर वह मन-ही-मन विचार करने लगा कि रात्रि में किसके घर रुका जाए|

वेश्याएं तो लोगों को लूटती हैं और ब्राह्मण मेरे पिता और उनके भाइयों के समान लालची और विश्वासघात करने वाले होते हैं| इसी तरह व्यापारी भी धनलोलुप होते हैं| यही सोचता हुआ वह अलग-थलग बने एक टूटे-फूटे से घर में पहुंचा| वहां एक बुढ़िया बैठी हुई थी| उसने बुढ़िया को कुछ धन दिया और भोजन आदि की व्यवस्था कराई| इसके बाद वह छिपकर उसी वृद्ध महिला के घर में रहने लगा|

उसके सज्जनता पूर्ण व्यवहार से बुढ़िया उससे पुत्र के समान स्नेह करने लगी| कुछ समय बीतने पर एक दिन वह बुढ़िया पुत्रक से बोली – “बेटे! मुझे सबसे बड़ी चिंता इसी बात की है कि तुम्हारे लिए कोई योग्य वधू नहीं दिखाई देती|”
पुत्रक बोला – “मां! इसमें चिंता की क्या बात है, इस राज्य के राजा की पाटली नामक पुत्री मेरी वधू बनने योग्य है, जिसका यहां के राजमहल के अंत:पुर में अच्छी प्रकार पालन-पोषण हो रहा है|”

“बेटे! यही तो चिंता की बात है| वह राजमहल की कन्या है| उसे किस प्रकार प्राप्त कर सकोगे?”
“मां! तुम चिंता मत करो| जैसे भी हो सका, आज मैं उसे अवश्य देखूंगा|”
रात्रि होते ही पुत्रक असुरों वाली खड़ाऊं पहनकर आकाश में उड़ता हुआ राजमहल में जा पहुंचा, फिर वह खिड़की से राजकुमारी के शयन-कक्ष में गया और छिपकर देर तक राजकुमारी को देखता रहा|

राजकुमारी उनींदी, अलसाई आंखों से एक गीत गुनगुना रही थी, जिसका आशय था – ‘मधुर आह भरती हुई, अलसाई-अधखुली आंखों वाली प्रेमिका यदि सामने सोई हो तो उसे आलिंगन में भरकर जगा देना चाहिए| ऐसा करने वाले युवकों का जन्म ही धन्य है|’

गीत सुनते ही पुत्रक ने पाटली को आलिंगनबद्ध कर लिया और वह जाग गई| स्वस्थ और रूपवान युवक पुत्रक को सामने देखकर पाटली आश्चर्य और लज्जा के मिले-जुले भाव में डूब गई| कुछ देर तक दोनों युवा हृदय मौन होकर स्पंदित होते रहे, फिर अपने-अपने हृदय की धड़कनें सुनकर उन्हें बोलने का साहस हुआ| पहले परिचय, फिर प्रेम और अंत में गंधर्व विवाह, कुछ ही पलों में सब कुछ संपन्न हो गया| प्रेम का प्रतिपल बढ़ना और रात्रि का घटना, दोनों ही उनके वश में नहीं थे|

अंत में रात्रि व्यतीत होने का समय आया तो पुत्रक अपनी पत्नी को पुनर्मिलन का आश्वासन देकर वृद्धा के घर वापस आ गया|
तब से यह नित्य का क्रम बन गया, पुत्रक रात्रि में पाटली के पास रहता और प्रात: होने पर वापस वृद्धा के घर आ जाता| एक दिन रक्षकों को पाटली के शरीर पर प्रेम के कुछ चिन्ह दिखाई पड़े| उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ कि यह सब कैसे हुआ? उन्होंने भयभीत होकर इसकी सूचना राजा को दी|

राजा ने पाटली पर दृष्टि रखने के लिए एक महिला गुप्तचर की नियुक्ति कर दी| वह गुप्तचर पूरी सावधानी से कार्य कर रही थी, अत: एक रात्रि उसने पुत्रक को पाटली के कक्ष में देख ही लिया और उसके वस्त्रों में पाटली के पैरों में महावर के चिन्ह लगा दिए| प्रात:काल महिला गुप्तचर ने राजा को समस्त बात से अवगत कराया तो राजा ने पूरे नगर में अपने सैनिक भेज दिए| उन्हें आदेश दिया गया कि जिस व्यक्ति के वस्त्रों पर महावर लगा हो, उसे बंदी बना लिया जाए|

वृद्धा के घर से पुत्रक को बंदी बनाकर राजा के सामने लाया गया| राजा को क्रोधित देख पुत्रक अपनी खड़ाऊं की सहायता से उड़ गया और पाटली के पास जा पहुंचा| उसने पाटली को सभी बातें बताईं तथा तुरंत उसके साथ निकल जाने का परामर्श दिया| पाटली उससे सहमत हो गई और दोनों तत्काल वहां से उड़कर नगर की सीमा के बाहर आ गए|

इसके बाद दोनों गंगा के तट पर उतर पड़े| वहां पाटली विश्राम करने लगी और पुत्रक ने असुरों वाले बर्तन से अनेक प्रकार के व्यंजनों की व्यवस्था कर डाली| यह सब देख पाटली ने कहा – “क्यों न हम भी अपना एक पृथक राज्य बना लें, जहां हम सुखपूर्वक रह सकें|”

इतना सुनते ही पुत्रक ने उस जादुई छड़ी से वहीं भूमि पर एक नगर का चित्र बनाया, जिसमें दुर्ग, सेना आदि का भी निर्माण किया| चित्र बनते ही वहां पर नगर, सेना आदि सब कुछ आ गया| पुत्रक वहां का राजा बन गया| कुछ समय बाद उसने अपने ससुर के राज्य पर भी अधिकार कर लिया| अब वह समस्त पृथ्वी का राजा बन गया था| पाटली के कहने पर पुत्रक द्वारा बनाया गया यही नगर पाटलिपुत्र के नाम से जाना गया, जहां लक्ष्मी और सरस्वती एक साथ रहती हैं|

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