उपनिषद – वैदिक दर्शन के प्रतिपादक ग्रन्थ

उपनिषद – Upanishad Pdf

Upanishad Meaning : उपनिषद वैदिक दर्शन के प्रतिपादक ग्रन्थ हैं। वैदिक साहित्य में सबसे अंत में परिगणित होने के कारण तथा उच्च दार्शनिक चिंतन के कारण इन्हें वेदांत भी कहा जाता है। सम्प्रति उपलब्ध उपनिषद इस प्रकार हैं – “उप” तथा “नि” उपसर्ग के पश्चात् विशरण, गति एवं अवसादन अर्थों में प्रयुक्त होनेवाली सदधातु से क्विप प्रत्यय करने पर उपनिषद शब्द की निष्पत्ति होती है।

शंकराचार्य ने उपनिषद के सम्बन्ध में कहा है कि उपनिषद यति सर्वानर्थकरं संसारं विनाशयति, संसारकारणभूतामविद्यां च शिथिलयति, ब्रह्म च गमयति अर्थात सभी अनर्थों को उत्पन्न करने वाले संसार का यह विनाश करती है, संसार के हेतु स्वरूप अविद्या को शिथिल करती है और ब्रह्म की प्राप्ति करातीहै। साधारणतः उपनिषद का अर्थ गुरु के समीप बैठकर प्राप्त किया ज्ञान है।

गूढ़ दार्शनिक प्रश्नों से सम्बद्ध होने के कारण इनका अधयन्न एकांत में किया जाता था अतः उपनिषदों को रहस्य विद्या भी कहा जाता है। उपनिषद साहित्य का पर्याप्त विकास हुआ है। सम्प्रति १४ उपनिषद महत्वपूर्ण हैं। उपनिषदों में ब्रह्म को संसार की सर्वोच्च सत्ता मानकर उसके दो रूप सगुण तथा निर्गुण माने गए है।

आत्मा को ब्रह्म रूप मानकर उसे अजन्मा, नित्य, शाश्वत एवं पुरातन माना गया है। उपनिषदों में जीवात्मा एवं परमात्मा के मध्य अभेद मानकर अद्वैत सिद्धांत की स्थापना की गयी है। आदर्श आचरण का उपदेश भी उपनिषदों में प्राप्त होता है। इस संबंध में तैत्तिरीयोपनिषद में आचार्य द्वारा स्नातक शिष्यों को दिए गए उपदेशों का वर्तमान काल में भी अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। वस्तुतः उपनिषद विश्व की दार्शनिक विचारधारा के मार्गदर्शक हैं। ब्राह्मणों एवं आरण्यकों के सामान उपनिषदों का संबंध वेद की शाखों से है। सम्प्रति उपनिषदों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है –

ऋग्वेद के उपनिषद –

ऐतरेयोपनिषद 

ऋग्वेद के ऐतरेय आरण्यक के द्वितीय खंड के अंतर्गत चतुर्थ से षष्ठ अध्याय को ऐतरेय उपनिषद माना जाता है। इसमें 3 अध्याय है जिसमें विश्व की उत्पत्ति का विवेचन है तथा पुरुष सूक्त के आधार पर सृष्टि का क्रम निरुपित है।जन्म, जीवन और मरण का वर्णन प्राप्त होता है। आत्मा के स्वरूप का स्पष्ट निर्देश भी मिलता है। इस पर शंकर का भाष्य प्राप्त होता है।

कौषीतकी उपनिषद

यह उपनिषद ऋग्वेद के कौषीतकी आरण्यक के तृतीय से षष्ठ अध्याय तक का अंश है। इसमें चार अध्याय हैं जो खण्डों में विभक्त है। यह उपनिषद गद्यात्मक है। इसमें देवयान, पितृयान, आत्मा के प्रतीक प्राण तथा इससे सम्बद्ध विवेचन है। प्रतर्दन के इंद्र से ब्रह्म विद्या सीखने के प्रसंग में प्राणसिद्धांत का विवेचन है। अजातशत्रु एवं बलाकि के आख्यान में परब्रह्म का स्वरूप वर्णित है।

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शुक्ल यजुर्वेद के उपनिषद

इशावास्योपनिषद 

यजुर्वेद सहिंता के चालीसवें अध्याय को ईशावास्योपनिषद कहा जाता है। यह अत्यंत प्राचीन पद्यात्मक उपनिषद है। इस उपनिषद में त्यागपूर्ण भोग, कर्म की महत्ता, विद्या-अविद्या का संबंध एवं परमात्मा का स्वरूप वर्णित है। इस पर सायन, अव्वट, महीधर एवं शंकराचार्य के भाष्य उपलब्ध है।

वृह्दारन्याकोप्निषद 

शतपथ ब्रह्मण के अंतिम ६ अध्याय बृहदारण्यक उपनिषद कहलाते है। यह विशालकाय गद्यात्मक उपनिषद है। इसमें तीन कांड है- मधुकांड, मुनिकांड एवं खिलकांड। प्रत्येक कांड में २-२ अध्याय है। इसमें अश्वमेध यज्ञ, आत्मा की व्यापकता, मधुविद्या, ब्रह्म, प्रजापति, गायत्री आदि के विषय में विचार किया गया है। इस उपनिषद में याज्ञवल्क्य-मैत्रेयी का प्रसिद्द संवाद भी है। इस उपनिषद के प्रमुख ऋषि याज्ञवल्क्य है जीने अपने युग का श्रेष्ठ तत्वज्ञानी माना जाता है। इस पर शंकराचार्य का भाष्य उपलब्ध होता है।

कृष्ण यजुर्वेद के उपनिषद

तैत्तिरीयोपनिषद 

कृष्ण आयुर्वेद की तैत्तिरीय शाखा के तैत्तिरीय आरण्यक के सप्तम से नवं प्रपाठक को तैत्तिरीयोपनिषद कहते है। इसमें ३३ आध्याय है जिन्हें क्रमशः शिक्षावल्ली, ब्रह्मानन्दवल्ली एवं भृगुवल्ली कहते हैं। ये वल्लियाँ अनुवाकों में विभक्त हैं। इस उपनिषद में दिए गए मातृ देवो भवः, अतिथि देवो भवः इन उपदेशों का सार्वकालिक महत्त्व है। इसमें आचार्य द्वारा स्नातक को दिए गए उपदेश हैं तथा ब्रह्म को आनंद, सत्य ज्ञान एवं अनंत कहकर उससे आकाश, वायु, अग्नि, जल आदि की उत्पत्ति कही गयी है साथ ही ब्रह्म संबंधी जिज्ञासा का निरूपण है। शंकराचार्य ने इस पर भाष्य किया है।

कठोपनिषद 

कृष्ण यजुर्वेद की कठशाखा से सम्बद्ध उपनिषद है। इसमें २ अध्याय हैं जो ३-३ वल्लियों में विभक्त हैं। इसमें नचिकेता की कथा है। यम द्वारा प्रदत्त उपदेश अत्यंत महत्वपूर्ण है। पुरुष को ज्ञान की परम सीमा माना गया है। आत्मा की व्यापकता तथा विविध रूपों में उसकी अभिव्यक्ति का निरूपण भी इस उपनिषद में प्राप्त होता है। इस उपनिषद पर भी शंकर भाष्य उपलब्ध है।

श्वेताश्वतरोपनिषद 

इस उपनिषद को परवर्ती माना जाता है। इसमें ६ अध्याय है, इनमें ब्रह्म की व्यापकता तथा उसके साक्षात्कार का उपाय वर्णित है। योग का भी इसमें विस्तृत वर्णन है। ईश्वर की स्तुति रूद्र के रूप में की गयी है। एकात्मक ब्रह्म की माया का वर्णन है जिसमें त्रिगुणात्मक सृष्टि होती है। इस उपनिषद में सांख्य दर्शन के मौलिक सिद्धांतों का प्रतिपादन है।

मैत्रायणी उपनिषद 

यह मैत्रायणी शाखा से सम्बद्ध है। इसे सर्वाधिक अर्वाचीन उपनिषद माना जाता है। इसमें ७ प्रपाठक है। सांख्य सिद्धांत योग के ६ अंग इस उपनिषद में निर्दिष्ट है। प्रकृति के ३ गुणों का उद्भव ब्रह्मा, विष्णु एवं रूद्र से बताया गया है।

महानारायणी उपनिषद 

तैत्तिरीय आरण्यक का दशम प्रपाठक ही महानारायणी उपनिषद के नाम से प्रसिद्द है। इसमें नारायण को परमतत्त्व के रूप में परिभाषित किया गया है।

सामवेद के उपनिषद

छान्दोग्योपनिषद 

यह अत्यंत प्राचीन उपनिषद है। तलवकार शाखा के छान्दोग्य ब्रह्मण के अंतिम ८ अध्याय इस उपनिषद के रूप में प्रसिद्द है। यह विशालकाय प्राचीन गद्यात्मक उपनिषद है। इसमें सामविद्या का निरूपण है। साम और उद्नीथ की महत्ता का वर्णन करते हुए सामगान में कुशल आचार्यों की कथाएं दी गयी है। साम के भेदों, ॐ की उत्पत्ति, सूर्य की उपासना तथा आत्म विषयक चिंतन का निरूपण है। तत्वमसि का प्रसिद्ध उपदेश दिया गया है। इस पर शांकर भाष्य उपलब्ध है।

केनोपनिषद 

जैमिनीय शाखा से सम्बद्ध यह उपनिषद चार खण्डों में विभक्त है। यह उपनिषद चार प्रश्नों को उपस्थित कर उनका समाधान प्रस्तुत करता है। ये प्रश्न मन, प्राण, वाणी, चक्षु तथा श्रोत्र व्यापर से सम्बद्ध है। इस उपनिषद पर शांकर भाष्य उपलब्ध है।

अर्थवेद के उपनिषद

प्रश्नोपनिषद 

यह अथर्ववेद की पैप्पलाद शाखा से सम्बद्ध उपनिषद है। यह उपनिषद ६ ऋषि महर्षि पिप्पलाद से अध्यात्म-विषयक प्रश्न पूछते हैं। उपनिषद में महर्षि पिप्पलाद उन प्रश्नों का उत्तर देते हैं। इन प्रश्नों के कारण ही इसे प्रश्नोपनिषद कहाजाता है। इसमें सृष्टि की उत्पत्त, उसके धारण, प्राण की उत्पत्ति, आत्मा की जागृत, स्वप्न एवं सुषुप्ति अवस्थाओं का वर्णन प्राप्त होता है।

मंडकोपनिषद 

यह अथर्वेद की शौनक शाखा से संबंधित उपनिषद है। इसे ३ मुण्डकों में विभक्त किया गया है, प्रत्येक मुण्डक में २-२ खंड है। इसमें ब्रह्मा द्वारा अपने ज्येष्ठ पुत्र अथर्वा को दिए गए आध्यात्म शास्त्र के उपदेश का वर्णन है। इस उपनिषद में अक्षर विद्या विस्तार से वर्णित है। साथ ही परा-अपरा विद्या एवं ब्रह्म के व्यक्त रूपों का भी सम्यक विवेचन प्राप्त होता है। द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया इस सुप्रसिद्ध मन्त्र में द्वैतवाद का निर्देश प्राप्त होता है।

मांडयुकयोपनिषद 

अथर्ववेद से सम्बद्ध यह लघुकाय उपनिषद है। इसमें मात्र १२ गद्यात्मक मन्त्र या वाक्य है जिनमे आत्मा की चतुर्विध अवस्था, ओकार की महत्ता का समुचित विवेचन है। तीनो काल और त्रिकालातीत सब कुछ ॐ ही है। इस उपनिषद पर गौडपाद ने मांडूक्यकारिका नामक ग्रन्थ लिखा वस्तुतः इस उपनिषद में अद्वैत वेदांत संबंधी तत्त्व का विवेचन प्राप्त होता है।

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