इस तरह शिवजी करेंगे आपकी गृहस्थी को शुभ और लाभ से भरपूर

श्रीपुराणपुरुषोत्तमाय नम :, श्री गणेशाय नम:
भवाब्धिमग्नं दिनं मां समुन्भ्दर भवार्णवात | कर्मग्राहगृहीतांग दासोऽहं तव् शंकर ||
श्री शिवपुराण – माहात्म्य
रूद्रसंहिता, प्रथम (सृष्टि) खण्ड
अध्याय – ३६

भगवान् शिव की श्रेष्ठता तथा उनके पूजन की अनिवार्य आवश्यकता का प्रतिपादन

नारदजी बोले ब्रह्मन ! प्रजापते ! आप धन्य हैं; क्योंकि आपकी बुद्धि भगवान शिवमें लगी हुई है | विधे ! आप पुन: इसी विषयका सम्यक्त प्रकार से विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये |

ब्रह्माजीने कहा तात ! एक समय की बात है, मैं सब ओरसे ऋषियों तथा देवताओं को बुलाकर उन सबको क्षीरसागर के तटपर ले गया, जहाँ सबका हित्त-साधन करनेवाले भगवान् विष्णु निवास करते हैं | वहाँ देवताओं के पुछ्नेपर भगवान विष्णु ने सबके लिये शिवपूजन की ही श्रेष्ठता बतलाकर यह कहा कि ‘एक मुहूर्त या क्षण भी जो शिव का पूजन नहीं किया जाता, वही हानि है, वही महान छिद्र है, वही अंधापन हैं और वही मृर्खता है | जो भगवान शिवकी भक्ति में तत्पर है, जो मनसे उन्हीं को प्रणाम और उन्हींका चिन्तन करते हैं, वे कभी दुःख के भागी नहीं होते |

भवभक्तिपरा ये च भवप्रणतचेतस: | भवसंस्मरणा ये च न ते दुःखस्य भाजना: || (शिवपुराण रूद्रसंहिता -१२/२१)

जो महान सौभाग्यशाली पुरुष मनोहर भवन, सुंदर आभूषणों से विभूषित स्त्रियाँ, जिंतने से मनको संतोष हो उतना धन, पुत्र-पौत्र आदि सन्नति, आरोग्य, सुंदरशरीर, अलौकिक प्रतिष्ठा, स्वर्गीय सुख, अंत में मोक्षरूपी फल अथवा परमेश्वर शिव की भक्ति चाहते हैं, वे पूर्वजन्मों के महान पुण्य से भगवान् सदाशिव की पूजा-अर्चा में प्रवृत्त होते हैं |

जो पुरुष नित्य-भक्तिपरायण हो शिवलिंग की पूजा करता हैं, उसको सफल सिद्धि प्राप्ति होती है तथा वह पापों के चक्कर में नहीं पड़ता | भगवान के इसप्रकार उपदेश देनेपर देवताओं ने उन श्रीहरि को प्रणाम किया और मनुष्यों की समस्त कामनाओं की पूर्ति के लिये उनसे शिवलिंग देने लिये प्रार्थना की |

मुनिश्रेष्ठ उस प्रार्थना को सुनकर जीवों के उद्धार में तत्पर रहनेवाले भगवान विष्णु ने विश्वकर्मा को बुलाकर कहा –‘विश्वकर्मन ! तुम मेरी आज्ञा से सम्पूर्ण देवताओं को सुंदर शिवलिंग का निर्माण करके दो |’ तब विश्वकर्माने मेरी और श्रीहरि की आज्ञा के अनुसार उन देवताओं को उनके अधिकार के अनुसार शिवलिंग बनाकर दिये | मुनिश्रेष्ठ नारद ! किस देवताको कौन-सा शिवलिंग प्राप्त हुआ, इसका वर्णन आज मैं कर रहा हूँ; उसे सुनो |

इंद्र पद्मरागमणि के बने हुए शिवलिंग की और कुबेर सुवर्णमय लिंग की पूजा करते हैं | धर्म पीतमणिमय (पुखराज के बने हुए) लिंग की तथा वरुण श्यामवर्ण के शिवलिंग की पूजा करते हैं | भगवान विष्णु इंद्रनीलमय तथा ब्रह्मा हेममय लिंग की पूजा करते हैं | मुने ! विश्वेदेवगण चाँदी के शिवलिंग की, वसुगण पीतल के बने हुए लिंग की तथा दोनों अश्विनीकुमार पार्थिवलिंग की पूजा करते हैं | लक्ष्मीदेवी स्फटिकमय लिंग की, आदित्यगण ताम्रमय लिंग की, राजा सोम मोती के बने हुए लिंग की तथा अग्निदेव वज्र (हीरे) के लिंग की उपासना करते हैं |

श्रेष्ठ ब्राह्मण और उनकी पत्नियाँ मिटटी के बने हुए शिवलिंग का, मयासुर चन्दननिर्मित लिंग का और नागगण मूँगे के बने हुए शिवलिंग का आदरपूर्वक पूजन करते हैं | देवी मक्खन के बने हुए लिंग की, योगीजन भस्ममय लिंग की, यक्षगण दधिनिर्मित लिंग की, छायादेवी आटे से बनाये हुए लिंग की और ब्रह्मपत्नी रत्नमय शिवलिंग की निश्चितरूप से पूजा करती है | बाणासुर पारद या पार्थिवलिंग की पूजा करता हैं | दुसरे लोग भी ऐसा ही करते हैं | ऐसे-ऐसे शिवलिंग बनाकर विश्वकर्मा ने विभिन्न लोगों को दिये तथा वे सब देवता और ऋषि उन लिंगों की पूजा करते हैं |

भगवान विष्णु ने इस तरह देवताओं को उनके हितकी कामना से शिवलिंग देकर उनसे तथा मुझ ब्रह्मासे पिनाकपाणि महादेव के पूजन की विधि भी बतायी | पूजन-विधिसम्बन्धी उनके वचनों को सुनकर देवशिरोमणियोंसहित मैं ब्रह्मा ह्रदय में हर्ष लिये अपने धाम में आ गया | मुने ! वहाँ आकर मैंने समस्त देवताओं और ऋषियों को शिव-पूजा की उत्तम विधि बतायी, जो सम्पूर्ण अभीष्ट वस्तुओं को देनेवाली है |

उस समय मुझ ब्रह्माने कहा – देवताओंसहित समस्त ऋषियों ! तुम प्रेमपरायण होकर सुनो; मैं प्रसन्नतापूर्वक तुमसे शिवपूजन की उस विधि का वर्णन करता हूँ, जो भोग और मोक्ष देनेवाली है | देवताओं और मुनीश्वरो ! समस्त जन्तुओं में मनुष्य-जन्म प्राप्त करना प्राय: दुर्लभ हैं | उनमें भी उत्तम कुलमें जन्म तो और भी दुर्लभ हैं | उत्तम कुलमें भी आचारवान ब्राह्मणों के यहाँ उत्पन्न होना उत्तम पुण्य से ही सम्भव है | यदि वैसा जन्म सुलभ हो जाय तो भगवान शिव के संतोष के लिये उस उत्तम कर्म का अनुष्ठान करे, जो अपने वर्ण और आश्रम के लिये शास्त्रोंद्वारा प्रतिपादित है | जिस जाति के लिये जो कर्म बताया गया है, उसका उल्लंघन न करे |

जितनी सम्पत्ति हो, उसके अनुसार ही दान करे | कर्ममय सहस्त्रो यज्ञों से तपोयज्ञ बढकर हैं | सहस्त्रों तपोयज्ञों से जपयज्ञ का महत्त्व अधिक है | ध्यानयज्ञ से बढकर कोई वस्तु नहीं हैं | ध्यान ज्ञान का साधन हैं; क्योंकि योगी ध्यान के द्वारा अपने इष्टदेव समरस शिवका साक्षात्कार करता हैं |

ध्यानयज्ञात्परं नास्ति ध्यानं ज्ञानस्य साधनम | यत: समरसं स्वेष्टं योगी ध्यानेन पश्चति ||

ध्यानयज्ञ में तत्पर रहनेवाले उपासक के लिये भगवान शिव सदा ही संनिहित है | जो विज्ञान से सम्पन्न है, उन पुरुषों की शुद्धि के लिये किसी प्रायश्चित आदि की आवश्यकता नहीं है | मनुष्य को जबतक ज्ञान की प्राप्ति न हो, तबतक वह विश्वास दिलाने के लिये कर्मसे ही भगवान शिवकी आराधना करे | जगत के लोगों को एक ही परमात्मा अनेक रूपों में अभिवक्त हो रहा है | एकमात्र भगवान सूर्य एक स्थान में रहकर भी जलाशय आदि विभिन्न वस्तुओं में अनेक-से दीखते हैं |

देवताओं ! संसार में जो-जो सत या असत वस्तु देखी या सुनी जाती है, वह सब परब्रह्म शिवरूप ही है – ऐसा समझो | जबतक तत्त्वज्ञान न हो जाय, तबतक प्रतिमा की पूजा आवश्यक है | ज्ञान के आभाव में भी जो प्रतिमा-पूजा की अवहेलना करता हैं, उसका पतन निश्चित है | इसलिये ब्राह्मणों ! यह यथार्थ बात सुनो |

अपनी जाति के लिये जो कर्म बताया गया है, उसका प्रयत्नपूर्वक पालन करना चाहिये | जहाँ –जहाँ यथावत भक्ति हो, उस-उस आराध्यदेव का पूजन आदि अवश्य करना चाहिये; क्योंकि पूजन और दान आदि के बिना पातक दूर नही होते |

यत्र यत्र यथाभक्ति: कर्तव्यं पुजनादिकम | बिना पुजनादानादि पातकं न च दुरत: ||

जैसे मैले कपड़े में रंग बहुत अच्छा नहीं चढ़ता है किन्तु जब उसको धोकर स्वच्छ कर लिया जाता हैं, तब उसपर सब रंग अच्छी तरह चढ़ते हैं, उसीप्रकार देवताओं की भलीभांति पूजासे जब त्रिविध शरीर पूर्णतया निर्मल हो जाता है, तभी उसपर ज्ञान का रंग चढ़ता हैं और तभी विज्ञान का प्राकट्य होता है | जब विज्ञान हो जाता है, तब भेदभाव की निवृत्ति हो जाती है | भेद्की सम्पूर्णतया निवृत्ति हो जानेपर द्वंद-दुःख दूर हो जाते हैं और द्वंद-दुःख से रहित पुरुष शिवरूप हो जाता हैं |

मनुष्य जबतक गृहस्थ-आश्रम में रहे, तबतक पाँचो देवताओं की तथा उनमे श्रेष्ठ भगवान शंकर की प्रतिमा का उत्तम प्रेम के साथ पूजन करे | अथवा जो सबके एकमात्र मूल है, उन भगवान शिव की ही पूजा सबसे बढकर हैं; क्योंकि मूल के सीधे जानेपर शाखास्थानीय सम्पूर्ण देवता स्वत: तृप्त हो जाते है | अत: जो सम्पूर्ण मनोवांछित फलों को पाना चाहता हैं, वह अपने अभीष्टकी सिद्धि के लिए समस्त प्राणियों के हित में तत्पर रहकर लोककल्याणकारी भगवान शंकर का पूजन करे |

Scroll to Top