उपवास ( व्रत ) क्यों ? | Fasting in Hinduism
उपवास का व्यावहारिक अर्थ है अन्न ग्रहण न करना य उपवास के पदार्थ खाना। उपवास में आलस्य, निद्रा एवं पित्त विकार आदि का उद्भव न हो; इसलिए कम अन्न भक्षण करना आवश्यकत रहता है। उपवास अच्छी तरह हो, इसके लिए दिनभर कुछ न खाकर केवल पानी पीना चाहिए। इससे पेट के सभी अवयवों को पर्याप्त विश्राम मिलने से शरीर की कार्यक्षमता बढ़ जाती है परंतु यदि किसी किन्हीं कारणों से जलोपवास संभव न हो तो फलाहार करें। यदि यह भी संभव न हो तो आहार में परिवर्तन करके हविष्यान्न भक्षण करें।
सभी विषयों में जलपान मुख्य तत्व है। आजकल उपवास प्रतिनिधिक स्वरूप में किए जाते हैं। साबुदाना, खिचडी़ या केले वगैरह खाकर उपवास किय जाता हैं । परंतु उपवास के दिन कुछ समय ध्यान-धारणा एवं जप आदि अवश्य करना चाहिएं।
उपवास से पहले दिन रात में भोजन न करे। यदि भोजन करना आवश्यक हो तो पहले प्रहर में अल्पाहार ले। इसकी दूसरी शास़्त्रीय भूमिका यह है कि साप्ताहिक या पाक्षिक उपवास के लिए एकादशी अथवा प्रदोष उपवास के लिए तिथि, मासिक उपवास के लिए शिवरात्रि या संकष्टी इत्यादी तिथि, पाण्मासिक उपवास के लिए कर्क एवं मकर संक्राति का पर्वकाल तथा वार्षिक उपवास के लिए महाशिवरात्रि एवं जन्माष्टमी के दिन ठीक रहते हैं।
गृहस्थ व्यक्ति को एक से अधिक उपवास नहीं करने चाहिए। उसी तरह पाक्षिक या मासिक आदि उपवास एक से अधिक न करें। जवानी में खीच तान कर किए गए उपवास से पित्त वृद्धि होती है। इसकें फलस्परूप् बुढा़पे में विभिन्न विकार उत्पन्न होते हैं धार्मिक आचरण न करते हुए मन के विरूद्ध लादे गए उपवास करते रहने से भी पित्त का प्रभाव बढ़ जाता हैं।
शास्त्रोक्त पद्धति से किए गए उपवास से मन के विकार शांत होते हैं। उपवास का महत्त्वपूर्ण सूत्र है उपवास का रूपांतर भुखमरी में न हों। देहधारण के लिए आवश्यक ईंधन नित्य अन्न के माध्यम से मिलता हैं। वह ईंधन उपवास के दिन अन्न द्वारा न मिलने के कारण अन्य मार्गों से प्राप्त करना होता हैं।
ऐसे वक्त शरीर में छिपे पुराने विकार कम हो जाते है। लेकिन उस ईंधन के लिए शरीरस्थ पेशियों का उपयोग किया जाता हैं इसका परिणाम चित्तप्रकोप एवं पित्तप्रकोप के रूप् में होता हैं । उपवास के दिन अन्न मार्ग की आंते अंदर की ओर इकटी् होने से मल शिथिल होकर बाहर निकलता है। उपवास के दिन पर्याप्त मात्रा में पानी पीने से यह कार्य अधिक उत्तम ढंग से होता है। नियमित रूप से उपवास करके जल चिकित्सा करने पर कोष्ठबद्धता, अग्निमांद्य तथा क्षुधानाश इत्यादि विकार पूर्णतया नष्ट हो जाते हैं।