कृष्ण (नारायण) और अर्जुन (नर) की प्रगाढ़ मित्रता

कृष्ण (नारायण) और अर्जुन (नर) की प्रगाढ़ मित्रता

महाभारत कथा के सन्दर्भ में –

कृष्ण और अर्जुन, नर और नारायण हैं। अर्जुन नर, और कृष्ण नारायण हैं।

अर्जुन से मित्रता बनाए रखने के लिए कृष्ण ने हद से ज्यादा प्रयत्न किये, क्योंकि वे अस्तित्व के स्तर पर एक दूसरे से जुड़े थे। बहुत सी बार, अर्जुन, एक राजकुमार होने की वजह से, अर्जुन ये नहीं समझ पाते थे कि उन्हें कोई काम क्यों करना चाहिए। अर्जुन बड़ी बातें करते थे, कि कोई मनुष्य करुणा, प्रेम और उदारता के माध्यम से मुक्ति पा सकता है।

कृष्ण कहते थे – “हम उस काम के लिये यहां नहीं आए हैं, हमें एक विशेष काम करना है।”

अर्जुन बोलते – “करुणा, प्रेम और उदारता मेरा धर्म है।”

कृष्ण बोलते – “बिलकुल नहीं, हमें जो करना है वही करना है। हमारा जन्म उसी लक्ष्य के लिए हुआ है, और हम बस वही करेंगे। ”

कृष्ण आनंदित और प्रेमपूर्ण रहते थे

कृष्ण की साधना की बात करें – तो किसी भी मनुष्य के लिए हर रोज़ प्रेम और आनंद में जीना, सुबह जागने से लेकर रात में सोने तक केवल इतना करना, ये ही जबरदस्त साधना है। जब लोग अन्य लोगों से घिरे होते हैं तो वे मुस्कुरा रहे होते हैं। पर आप अगर उन्हें अकेले में देखें, तो वे इतना उदासी भरा चेहरा लेकर बैठते हैं कि उनके बारे सब कुछ पता चल जाता है। लोगों का काफी बड़ा प्रतिशत अकेले रहने पर काफी बुरे हाल में होता है। अगर आप अकेले नहीं रह सकते, तो इसका मतलब है – अकेले होने पर आप बहुत बुरी संगत में होते हैं। अगर अच्छी संगत में होते, तो आपके लिए अकेले होना बहुत अच्छा होता।

लोगों से मिलना जुलना एक उत्सव की तरह होता है, पर खुद-में-स्थित-होना हमेशा अकेले में होता है। अगर आप खुद को एक सुंदर प्राणी में रूपांतरित कर लें तो बस बैठना भर ही अद्भुत हो जाए। इसलिए जीवन के हर पल बस आनंदित और प्रेममय होना अपने आप में एक बहुत बड़ी साधना है। पूरे विश्व के लिए माँ बनकर जीने का यही मतलब है।

अपने जीवन के हर पल प्रेममय होना, सिर्फ किसी ख़ास परिस्थिति में ही नहीं। या फिर किसी ख़ास व्यक्ति को देखने पर ही नहीं। अगर आप बिना भेदभाव के हमेशा प्रेममय होते हैं तो आपकी बुद्धि एक बिलकुल अलग तरह से खिल जाएगी। फिलहाल, किसी व्यक्ति या चीज़ को चुनने में, बुद्धि अपनी तीक्षणता खो देती है।

प्रेममय होना किसी और के लिए कोई भेंट नहीं है – ये आपके अपने लिए एक सुंदर चीज़ है। ये आपके सिस्टम या तंत्र की मिठास है – आपकी भावनाएँ, आपका मन, और आपका शरीर खुद ही मिठास से भर जाते हैं। आज हमारे पास इस बात को सिद्ध करने के पर्याप्त वैज्ञानिक सबूत मौजूद हैं – कि जब आप आनंदित होते हैं, सिर्फ तभी आपकी बुद्धि सर्वश्रेष्ठ कार्य करती है।

कृष्ण पूरी तरह से तालमेल में थे

अगर आराम से बैठे हुए, आपका हृदय हर मिनट 60 बार धड़कता है, तो यहां बैठे हुए आप धरती के साथ तालमेल में होते हैं। काम करते वक़्त, ये ऊपर नीचे हो सकता है, पर आराम से बैठे हुए अगर ये 60 से ज्यादा बार धड़कता है, तो आप थोड़े से खोये हुए रहेंगे। अगर आपको छोटा सा भी संक्रमण (बीमारी) है, तो आपका हृदय 85 से 90 बार तक धड़क सकता है। अगर आप स्वस्थ और भले चंगे हैं, तो आपका दिल 65 से 75 बार धडकता है। अगर आप अपनी साधना अच्छे से करते हैं – शाम्भवी और सूर्य नमस्कार जैसी सरल साधनाएं भी अगर अच्छे से करते हैं, तो डेढ़ साल के अभ्यास के बाद, आपका हृदय 60 बार धड़कने लगेगा। आप तालमेल में आ जाएंगे।

तालमेल में होने के बाद, प्रेममय होना, आनंदित होना, और किसी फूल की तरह खिला होना स्वाभाविक है – क्योंकि आपकी रचना ऐसे ही की गयी है। मनुष्य की रचना उदास, बीमार या ऐसा कुछ होने के लिए नहीं की गयी – इसे फलने फूलने के लिए रचा गया है। कृष्ण की साधना यही है – वे अपने आस पास के जीवन के साथ पूरी तरह तालमेल में हैं। चाहे अपने बचपन में उन्होंने किसी भी तरह के खेल खेलें हों, वे हमेशा पूरी तरह से तालमेल में थे।

उन्होंने लोगों के घरों से मक्खन चुराया और उन्हें अलग-अलग तरीकों से परेशान किया, फिर भी सभी उन्हें प्रेम करते थे। इसका मतलब है, कि कृष्ण ने उनके साथ किसी तरह तालमेल बिठा लिया था। अगर आप किसी के साथ तालमेल में हैं, तभी आप उनकी उपस्थिति में अच्छा महसूस करेंगे। अगर आप किसी के साथ तालमेल में नहीं हैं, तो बस उनको देखने भर से आपको बुरा अहसास होगा। ऐसा किसी एक ही व्यक्ति के साथ भी हो सकता है।

जब आप उस एक व्यक्ति के साथ तालमेल में हैं, तो उन्हें देखने पर अच्छा महसूस करेंगे। और जब आप तालमेल में नहीं हैं, तो उन्हें देखने से आपको बुरा अहसास होगा। उनके बिना कुछ किये भी आपके साथ ऐसा घट सकता है।

कृष्ण को लक्ष्य याद दिलाया संदीपनी ने

16 साल की उम्र तक, अपने आस पास के जीवन के साथ तालमेल में होना, कृष्ण की साधना थी। फिर उनके गुरु ने आकर उन्हें याद दिलाया कि उनका जीवन सिर्फ आनंद-मग्न होने के लिए नहीं है, और इस जीवन का एक विशाल उद्देश्य है। कृष्ण को ये बात थोड़ी सी संघर्षपूर्ण लगी। वे अपने गाँव से प्रेम करते थे, और गाँव का हर व्यक्ति उनसे प्रेम करता था।

वे अपने आस-पास – स्त्री, पुरुष, जानवर और बच्चे – सभी से पूरी तरह जुड़े हुए थे। वे बोले – “मुझे किसी विशाल लक्ष्य की जरुरुत नहीं है। मुझे बस इस गाँव में रहना अच्छा लगता है। मुझे गाएं, ग्वाले और गोपियाँ पसंद हैं। मैं उनके साथ नाचना गाना चाहता हूँ। मुझे अपने जीवन में कोई बड़ा लक्ष्य नहीं चाहिए। पर संदीपनी ने कहा – “आपको जीवन में इस लक्ष्य को चुनना होगा, क्योंकि आपका जन्म इसी उद्देश्य से हुआ है। ये होना बहुत जरुरी है। “

कृष्ण गोवर्धन पर्वत नाम के एक छोटे पर्वत पर जाकर खड़े हो गए। जब वे नीचे आए, तो वे पहले वाले नवयुवक नहीं थे। वे पर्वत पर एक गाँव के हँसते-खेलते लड़के की तरह गए थे, और एक गुरुत्व से भरे आकर्षण को लेकर नीचे आए। लोग उन्हें देखकर हैरान रह गए। वे समझ गए कुछ जबरदस्त घटना घटी है, पर चाहे जो भी हुआ हो, वे समझ गए कि कृष्ण अब चले जाएंगे। जब उन लोगों ने कृष्ण की ओर देखा, तो कृष्ण के चेहरे पर अब भी मुस्कराहट थी, पर कृष्ण के आँखों में प्रेम नहीं था। उनकी आँखों में दूरदर्शिता थी। कृष्ण ऐसी चीज़ें देख पा रहे थे, जिनकी वे कल्पना भी नहीं कर सकते थे।

संदीपनी द्वारा याद दिलाये जाने के बाद, कृष्ण का सबसे पहला पराक्रम था अपने मामा कंस को मारकर, यादवों पर कंस के क्रूर शासन का अंत करना। उसके बाद कृष्ण अपने भाई बलराम और उद्धव के साथ अपने गुरु के आश्रम चले गए। वहाँ उन्होंने सात सालों तक एक ब्रह्मचारी का जीवन जिया। 22 साल की उम्र तक उन्होंने तीव्र आध्यात्मिक साधना की। उन्होंने शास्त्रों का भी अभ्यास किया और कुश्ती के एक महान योद्धा बन गए। इन सबके बावजूद, उनकी मांसपेशियां अर्जुन और भीम की तरह विशाल नहीं थीं।

कृष्ण की साधना एक अलग आयाम की थी।
कृष्ण हमेशा कोमल और मधुर बने रहे, क्योंकि उनकी साधना एक अलग आयाम और प्रकृति की थी। संदीपनी ने इस साधना को इस तरह रचा था, कि ये मुख्य रूप से भीतरी साधना बन गयी थी।

कृष्ण द्वापर युग के प्राणी नहीं थे 

कृष्ण द्वापर युग के प्राणी के तरह नहीं थे – उनका जीवन और कार्यकलाप सत युग की तरह थे। तो उनके लिए सब कुछ मानसिक स्तर पर घटित हुआ। उन्हें कुछ भी समझाने के लिए संदीपनी को कभी कुछ बोलना नहीं पड़ा – सभी कुछ मानसिक रूप से व्यक्त किया गया, मानसिक रूप से समझा गया और मानसिक रूप से ही सिद्ध किया गया।

अपनी साधना से बाहर आने पर उनमें और बलराम में फर्क साफ़ नज़र आता था। बलराम शारीरिक रूप से हृष्ट-पुष्ट और बलवान हो गए पर कृष्ण पहले की तरह ही बने रहे। बलराम उन्हें ताना मारते थे – “लगता है तुमने कुछ साधना नहीं की। मैंने बहुत मेहनत की है। मैं एक महान योद्धा बन गया हूँ। तुम अब भी ऐसे क्यों दिखते हो?”

तब भी, किसी कुश्ती के अखाड़े में या फिर तीरंदाजी के मुकाबले में कृष्ण को कोई हरा नहीं पाता था। तलवार चलाने के मामले में कोई उनके आस-आस भी नहीं था। पर वे हृष्ट-पुष्ट नहीं बने क्योंकि उनकी साधना पूरी तरह से मानसिक थी। और उन्होंने इस चीज़ को महाभारत की इस कहानी में लाखों तरह से प्रदर्शित किया है।

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