11 रूद्र के नाम – शैवागम के अनुसार एकादश रुद्रों के नाम

11 रूद्र के नाम – 11 Rudra Name

भगवान शिव को समर्पित शैवागम के अनुसार 11 रूद्र के नाम (11 Rudra Name) क्रमश: शम्भु, पिनाकी, गिरीश, स्थाणु, भर्ग, सदाशिव, शिव, हर, शर्व, कपाली, और भव के रूप में परिभाषित किया है।

महाभारत के अनुसार 11 रुद्रों के नाम – 11 Rudra Avatar of Lord Shiva

सबसे बड़े महाकाव्य के रूप में गिना जाने वाला महाभारत अपने आदि पर्व के विभिन्न अध्यायों में 11 रूद्र के नाम (11 rudra ke naam) इस प्रकार समाहित किए हुए हैं:

|| मृगव्याध, सर्प, निऋति, अजैकपाद, अहिर्बुध्न्य, पिनाकी, दहन, ईश्वर, कपाली, स्थाणु, भव ||

पुराणों में एकादश रुद्रों के नाम – 11 Rudra Name of Lord Shiva

एकादश रूद्र को विभिन्न पुराणों में भी स्थान मिला है और अगर मुख्य पुराणों की बात करें तो मत्स्य पुराणस्कंद पुराण और पद्म पुराण में भी एकादश रूद्र का वर्णन आता है। उनके अनुसार एकादश रुद्र निम्नलिखित हैं: अजैकपाद, अहिर्बुध्न्य, विरूपाक्ष, रैवत, हर, बहुरूप, त्र्यम्बक, सावित्र, जयन्त, पिनाकी, अपराजित।

श्रीमद्भागवत में एकादश रुद्रों के नाम – 11 Rudra Avatar

इसके अतिरिक्त श्रीमद्भागवत में भी एक आदर्श मित्रों का वर्णन मिलता है जिन्हें मन्यु, मनु, महिनस, महान्, शिव, ऋतध्वज, उग्ररेता, भव, काल, वामदेव, और धृतव्रत आदि कहा गया है।

11 Rudra Name

आइये अब इन एकादश रुद्रों के बारे में जानते हैं। वास्तव में भगवान रूद्र एक ही हैं, लेकिन उन्होंने संसार के कल्याण के लिए अनेक रुद्रों के रूप में भी जन्म लिया, जिसमें ग्यारह रूद्र प्रमुख हैं। ऐसा माना जाता है कि राक्षसों द्वारा जब देवताओं को हराकर उनका राज्य हड़प लिया गया, तो महर्षि कश्यप ने भगवान शिव से अर्थात भगवान रुद्र से अपने पुत्र के रूप में जन्म लेने हेतु कठिन तपस्या करके वरदान प्राप्त किया और महर्षि कश्यप तथा सुरभि की संतान के रूप में ग्यारह रूद्रों ने जन्म लिया, जिन्हें एकादश रुद्र कहा जाता है। उन्होंने राक्षसों को हराकर पुनः देवताओं को स्थापित कराया। शैवागम के अनुसार एकादश रुद्र (11 Rudra Name) निम्नलिखित हैं:

11 रूद्र के मंत्र 11 Rudra Mantra

1) शम्भू:

ब्रह्मविष्णुमहेशानदेवदानवराक्षसाः ।
यस्मात्‌ प्रजज्ञिरे देवास्तं शम्भुं प्रणमाम्यहम्‌ ॥

अर्थात जिनसे ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश और सभी देव, दानव, राक्षस, आदि की उत्पत्ति हुई है और जिन से सभी देवों का भी जन्म हुआ है, ऐसे प्रभु परम पावन शंभू को मैं प्रणाम करता हूं।

भगवान शंभू रुद्र देव का साक्षात ब्रह्म स्वरूप हैं और वही जगत के कर्ता, भर्ता और हर्ता हैं अर्थात जगत का निर्माण करने वाले, उसका पालन पोषण करने वाले और उसका संहार करने वाले हैं। वास्तव में रूद्र तो एक ही हैं, जो समस्त लोगों को अपनी शक्ति और ऊर्जा से संचालित करते रहते हैं। वही शंभू हैं, जिन्हें शिव और महादेव आदि के नाम से भी जाना जाता है। साक्षात रूप में शंभू ही महादेव हैं जो हमारे अंतर्मन में सभी के भीतर स्थित है। उनके शंभू स्वरूप को विभिन्न वेदों एवं पुराणों में स्थान दिया गया है।

2) पिनाकी

क्षमारथसमारूढ़ं ब्रह्मसूत्रसमन्वितम्‌ ।
चतुर्वेदैश्च सहितं पिनाकिनमहं भजे ॥

अर्थात जो क्षमा रूपी रथ पर विराजमान हैं और ब्रह्मसूत्र से समन्वित हैं, चारों वेदों को धारण करते हैं, ऐसे पिनाकी भगवान का मैं ध्यान करता हूं।

पिनाकी के रूप में दूसरे मित्र को मान्यता दी गई है चारों वेदों के रूप में शक्ति स्वरुप भगवान बिना की रुद्र के रूप में समस्त कष्टों का शमन करते हैं। शैवागम के अनुसार दूसरे रूद्र पिनाकी हैं और चारों वेद इनके रूद्र स्वरूप ही हैं।

3) गिरीश

कैलासशिखरप्रोद्यन्मणिमण्डपमध्यमगः ।
गिरिशो गिरिजाप्राणवल्लभोऽस्तु सदामुदे ॥

अर्थात कैलाश पर्वत के सबसे ऊँचे शिखर पर मणि मंडप के बीच में स्थित माता पार्वती के प्रमाण प्रिय अर्थात प्राण वल्लभ भगवान गिरीश सदा हमें आनंद प्रदान करते रहें।

शैवागम के अनुसार तीसरे रुद्र भगवान गिरीश हैं, जो कैलाश पर निवास करते हैं और इस रूप में सभी को सुख और आनंद देते हैं। भगवान शिव को कैलाश अत्यंत प्रिय है और इसलिए विभिन्न प्रकार की लीलाऐं कैलाश पर्वत पर भगवान गिरीश द्वारा की जाती हैं।

4) स्थाणु

वामांगकृतसंवेशगिरिकन्यासुखावहम्‌ ।
स्थाणुं नमामि शिरसा सर्वदेवनमस्कृतम्‌ ॥

अपने वाम भाग में अर्थात वामांग में माता पार्वती को स्थान देकर सुख प्रदान करने वाले तथा संपूर्ण देव मंडल के प्राण स्वरूप भगवान स्थाणु को मैं सिर से नमन करता हूं।

शैवागम के अनुसार भगवान रुद्र का चौथा स्वरूप स्थाणु कहा जाता है। यही रुद्र आत्मलीन होने तथा समाधि और तप करने के कारण स्थाणु कहलाते हैं। भगवान स्थाणु के वाम भाग में माता पार्वती विराजमान रहती हैं।

भगवान रूद्र के चौथे स्वरूप में स्थाणु रूद्र ने ही संसार के कल्याण के लिए सभी देवताओं की प्रार्थना स्वीकार की और पर्वतराज हिमावन की पुत्री पार्वती, जोकि माता आदिशक्ति का स्वरूप हैं, उन्हें अपने वाम भाग में धर्म पत्नी के रूप में स्थान दिया और समस्त संसार का कल्याण किया।

5) भर्ग

चंद्रावतंसो जटिलस्रिणेत्रोभस्मपांडरः ।
हृदयस्थः सदाभूयाद् भर्गो भयविनाशनः ॥

चंद्र का आभूषण जटाओं को धारण करने वाले त्रिनेत्र, भस्म लगाने से उज्जवल हैं तथा भय का नाश करने वाले भर्ग सदैव ही हमारे हृदय में निवास करें।

भर्ग के रूप में भगवान रूद्र बहुत ही तेजवान हैं। इनका यही तेजोमय स्वरूप जीवन में समस्त प्रकार की पीड़ाओं का नाश करता है और समस्त प्रकार के भय का हरण करता है। यदि आप किसी भी बीमारी से त्रस्त हों अथवा आपके जीवन में कोई कष्ट हो तो आपको इसी भर्ग रूद्र स्वरूप की उपासना करनी चाहिए। भय विनाशक भर्ग रूद्र स्वरूप समस्त संसार का कल्याण करते हैं और जीवन के कष्टों को दूर करके जीवन को सही दिशा में आगे ले जाते हैं।

6) भव

योगीन्द्रनुतपादाब्जं द्वंद्वातीतं जनाश्रयम्‌ ।
वेदान्तकृतसंचारं भवं तं शरणं भजे ॥

जिनके चरण कमलों की वंदना स्वयं योगीन्द्र करते हैं और जो द्वंदो से अतीत तथा भक्तों के आश्रय स्थल हैं तथा जिनसे वेदांत का प्रादुर्भाव और संचार हुआ है, मैं उन भव की शरण ग्रहण करते हुए उन्हें भजता हूं।

भगवान रुद्र का यह भव रूप अत्यंत ही अनोखा है, क्योंकि इस रूप में रूद्र ज्ञान का बल, योग का बल और भगवत प्रेम के रूप में सभी प्रकार के आनंद प्रदान करते हैं। अर्थात इस स्वरूप की आराधना करने से व्यक्ति को ज्ञान रूपी बल की प्राप्ति होती है। उसे योग का ज्ञान मिलता है और भगवत प्रेम की गंगा में डुबकी लगाने का मौका मिलता है। इन्हें ही जगद्गुरु और वेदांत तथा योग का उपदेशक भी माना जाता है। वे ज्ञान तथा योग के बल पर सभी के आत्म कल्याण का मार्ग दिखाते हैं।

यदि किसी को योग, विद्या, भक्ति, ज्ञान, वेद, आदि का मूल और वास्तविक रहस्य जानना हो तो उसे भगवान भव की कृपा प्राप्त करना आवश्यक है। शिव पुराण के पूर्व भाग में बाइसवें अध्याय में तथा लिंग पुराण के सातवें अध्याय में भगवान रुद्र के भव स्वरूप के योगाचार्य स्वरूप का विशेष वर्णन किया गया है। ये सभी को यम, नियम, आसन, क्रियाकलाप, संयम आदि द्वारा जीवन में योग का प्रतिपादन भी करते हैं।

7) सदाशिव

ब्रह्मा भूत्वासृजँल्लोकं विष्णुर्भूत्वाथ पालयन्‌ ।
रुद्रो भूत्वाहरन्नंते गतिर्मेऽस्तु सदाशिवः ॥

जो ब्रह्मा के स्वरूप में सभी लोकों की सृष्टि और उत्पत्ति करते हैं, विष्णु के स्वरूप में सभी का पालन पोषण करते हैं और रुद्र के रूप में सभी का संहार करके मुक्ति प्रदान करते हैं, वह सदाशिव रूप में मुझे परम गति के रूप में प्राप्त हों।

शैवागम के अनुसार यही सदाशिव छठे रूद्र के रूप में जाने जाते हैं। भगवान सदाशिव का स्वरूप निराकार ब्रह्म के साकार रूप में जाना जाता है। यह सभी को वैभव प्रदान करते हैं, सुख, समृद्धि और आनंद की प्राप्ति भी इन्हीं के माध्यम से होती है। ऐसा भी माना जाता है कि धन की अधिष्ठात्री देवी लक्ष्मी और धन के संरक्षक कुबेर को भी धन भगवान सदाशिव ने ही प्रदान किया है। वह अपने दोनों हाथों से सुख और समृद्धि प्रदान करते हैं, जिससे समस्त संसार का कल्याण होता है।

निराकार परब्रह्म का साकार चिन्मय स्वरूप ही सदाशिव के रूप में वंदनीय है। प्राचीन विद्वानों के द्वारा सदाशिव रूद्र को ही ईश्वर माना जाता है और उन्हीं के द्वारा महा शक्ति अंबिका की उत्पत्ति भी मानी जाती है।

8) शिव

गायत्री प्रतिपाद्यायाप्योंकारकृतसद्मने ।
कल्याणगुणधाम्नेऽस्तु शिवाय विहितानतिः ॥

जिन का प्रतिपादन स्वयं गायत्री करती हैं और ओंकार ही जिनका सदन अर्थात भवन है, ऐसे संसार के समस्त कल्याण और गुणों के परम धाम शिव को मेरा प्रणाम है।

शैवागम के अनुसार सातवें रुद्र शिव ही हैं। ‘वश कान्तौ’ धातु से ही शिव तत्व की उत्पत्ति हुई है। जिसको सभी चाहते हो, पसंद करते हो वही शिव हैं। आनंद, शांति, मोक्ष की प्राप्ति के लिए शिव आराधना ही सर्वोपरि है।

शिव रूप में रूद्र अत्यंत सुख देने वाले और कल्याणकारी माने जाते हैं। यदि जीवन में किसी को मोक्ष प्राप्त करने की इच्छा हो, तो उसके लिए भगवान शिव रूद्र की ही आराधना सबसे अधिक महत्वपूर्ण मानी जाती है। यह शक्ति के साथ शिव कहलाते हैं और शक्ति के बिना शव के रूप में जाने जाते हैं। इसलिए शिव का यह रूप सभी को कल्याण और सुख देने वाला माना गया है।

9) हर

आशीविषाहार कृते देवौघप्रणतांघ्रये ।
पिनाकांकितहस्ताय हरायास्तु नमस्कृतः ॥

जो भुजंग का भूषण अर्थात सर्पों को आभूषण के रूप में धारण करते हैं, समस्त देवता जिनके चरणों में शीश झुकाते हैं और जिनकी विनती करते हैं, हाथों में पिनाक धारण करने वाले उन भगवान हर को मेरा नमस्कार है।

शैवागम के अनुसार एकादश रूद्र में आठवें स्वरूप को हर के नाम से ही जाना जाता है। इन्हें नागभूषण या सर्प भूषण भी कहा जाता है। यह संदेश देते हैं कि सभी प्रकार का कष्ट और उसका समाधान ईश्वर शरीर में ही विद्यमान हैं। सृष्टि का आदि और अंत करने वाले रूद्र को संहारक के रूप में नागों जैसी संहारक सामग्री धारण भी करनी पड़ती है। काल रूपी नागों को अपने शरीर पर धारण करने वाले भगवान हर ही कालातीत कहलाते हैं।

यही कालातीत भगवान हर अपनी शरण में आने वाले सभी भक्तों को तीनों प्रकार के तापों अर्थात आधिदैविक, अधिभौतिक और आध्यात्मिक पापों से मुक्ति प्रदान करते हैं और उनके जीवन में कष्टों का हरण करने के कारण ही इनका हर नाम सार्थक है। समस्त समस्याओं से मुक्ति दिलाने के लिए पिनाक त्रिशूल को हाथ में धारण करने वाले हर रूद्र अपने भक्तों को अभय प्रदान करते हैं। विषैले नागों को आभूषण के रूप में धारण करने वाले हर स्वरूप रूद्र ही सभी प्रकार के सांसारिक, शारीरिक तथा मानसिक दुखों का हरण करते हैं। जिस प्रकार नागों पर इनका नियंत्रण होता है, उसी प्रकार काल पर भी इन हर का नियंत्रण होता है।

10) शर्व

तिसृणां च पुरां हन्ता कृतांतमदभंजनः ।
खड्गपाणिस्तीक्ष्णदंष्ट्रः शर्वाख्योऽस्तु मुदे मम ॥

त्रिपुरों का नाश करने से त्रिपुरहंता, मृत्यु के देवता यमराज के भी अभिमान का हनन करने वाले अर्थात भंजन करने वाले, खंगपाणि एवं तीक्ष्णदंष्ट्र शर्व मेरे लिए आनंददायक हों।

शैवागम के अनुसार नौवें रूद्र के रूप को शर्व के नाम से जाना जाता है। कालों के भी काल कहलाने वाले महाकाल हैं। शर्व रूद्र के रूप में काल को भी अपने नियंत्रण में रखते हैं।

सर्वदेवमय रथ पर सवार होने के बाद त्रिपुरों का संहार इन्होंने ही किया था इसी कारण इन्हें शर्व रूद्र और त्रिपुरारी भी कहा जाता है। यह शर्व रुद्र सभी जगह व्याप्त हैं, तीनों लोकों के अधिपति भी हैं और सभी में विद्यमान हैं। जीवन में प्राण घातक कष्ट आने पर शर्व रूद्र की उपासना सबसे अधिक फलदायक मानी जाती है

11) कपाली

दक्षाध्वरध्वंसकरः कोपयुक्तमुखाम्बुजः ।
शूलपाणिः सुखायास्तु कपाली मे ह्यहर्निशम्‌ ॥

प्रजापति दक्ष का यज्ञ विध्वंस करने वाले तथा और रौद्र रूप में क्रोधित मुख कमल वाले शूलपाणि कपाली हमें रात-दिन सुख प्रदान करें।

शैवागम के अनुसार दसवें रुद्र को कपाली के नाम से जाना जाता है। यह अपने साथ कपाल अर्थात खोपड़ी भी रखते हैं और मुंड माला धारण करते हैं।

ये संहारक शक्ति के प्रखर देवता है और पद्मपुराण के सृष्टि खंड के सत्रहवें अध्याय के अनुसार कपाली रूप में भगवान ने कपाल धारण करके यज्ञ में स्थान ग्रहण किया, जिसके कारण उन्हें यज्ञ के प्रवेश द्वार पर रोकने का प्रयास किया गया। इसके बाद भगवान कपाली रूद्र ने अपना प्रभाव दिखाया और उसके बाद सभी ने उनसे क्षमा याचना की और फिर कपाली रूद्र को ब्रह्मा के उत्तर में स्थान दिया गया। कपाली के रूप में ही भगवान रूद्र ने प्रजापति दक्ष के अभिमान को नष्ट करने के लिए उनके यज्ञ का विध्वंस किया था यह रूप उनकी क्रोधित मुद्रा को दर्शाता है।

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