माण्डूक्योपनिषद – समस्त भूत भविष्य और वर्तमान ओमकार मे ही निहित है

माण्डूक्योपनिषद – Mandukya Upanishad Pdf

हे देवगण! हम कानों से कल्याणमय वचन सुने। यज्ञ कर्म में समर्थ होकर नेत्रों से शुभ दर्शन करें तथा अपने स्थिर अंग और शरीरों से स्तुति करने वाले हम लोग देवताओं के लिए हितकर आयु का भोग करें। त्रिविध ताप की शांति हो। महान कीर्तिमान इंद्र हमारा कल्याण करें; जो अरिष्टों (आपत्तियों) के लिए चक्र के सामान (घातक) है वह गरुड़ हमारा कल्याण करे तथा वृहस्पति जी हमारा कल्याण करें। त्रिविध ताप की शांति हो।

माण्डूक्योपनिषद आगम प्रकरण

जो अपनी चराचर व्यापिनी ज्ञान रश्मियों के विस्तार से सम्पूर्ण लोकों को व्याप्त कर (जागृत-अवस्था में) स्थूल विषयों का भोग करने के अनन्तर फिर (स्वप्नावस्था में) बुद्धि से प्रकाशित वासनाजनित सम्पूर्ण भोगों का पैन कर माया से हम सब जीवों को भोग कराता हुआ (स्वयं) आनंद का भोक्ता होकर शयन करता है तथा जो परम अमृत और अजन्मा ब्रह्म माया से ‘तुरीय’ (चौथी) संख्या वाला है, उसे हम नमस्कार करते हैं। जो सर्वात्मा शुभाशुभ कर्मजनित स्थूल भोगों को भोगकर फिर अंपनी बुद्धि से परिकल्पित सूक्ष्म विषयों को (सूर्य आदि बाह्य ज्योतियों का आभाव होने के कारण) अपने ही प्रकाश से भोगता है और फिर धीरे-धीरे इन सभी को अपने में स्थापित कर सम्पूर्ण विशेषों को छोड़कर निर्गुण रूप से स्थित हो जाता है, वह तुरीय परमात्मा हमारी रक्षा करे।

ही सब कुछ है

ॐ यह अक्षर ही सब कुछ है। यह जो कुछ भूत, भविष्यत् और वर्तमान है उसी की व्याख्या है; इसलिए यह सब औंकार ही है। इसके सिवा जो अन्य त्रिकालातीत वास्तु है वह भी ओंकार ही है।

ओंकारवाच्य ब्रह्म की सर्वात्मकता

यह सब ब्रह्म ही है। यह आत्मा भी ब्रह्म ही है। वह यह आत्मा चार पादों वाला है।

आत्मा प्रथम पादवैश्वानर

जाग्रत-अवस्था जिस का स्थान है, जो बही:प्रज्ञ सात अंगों वाला, उन्नीस मुखों वाला और स्थूल विषयों का भोक्ता है, वह वैश्वानर पहला पाद है।

आत्मा द्वितीय पोआदतैजस

स्वप्न जिस का स्थान है तथा जो अन्तःप्रज्ञ, सात अंगों वाला, उन्नीस मुख वाला और सूक्षम विषयों का भोक्ता है, वह तैजस दूसरा पाद है।

आत्मा तृतीय पदप्राज्ञ

जिस अवस्था में सोया हुआ पुरुष किसी भोग की इच्छा नहीं करता और न कोई स्वप्न ही देखता है उसे सुषुप्ति कहते हैं। वह सुषुप्ति जिसका स्थान है तथा जो एकीभूत प्रकृष्ट ज्ञानसवरूप होता हुआ ही आनंदमय, आनंद का भोक्ता और चेतनारूप मुखवाला है वह प्राज्ञ ही तीसरा पाद है।

प्राज्ञ का सर्वकारणत्व

यह सबका ईश्वर है, यह सर्वज्ञ है, यह अंतर्यामी है और समस्त जीवों की उत्पत्ति तथा लय का स्थान होने के कारण यह सब का कारण भी है।

एक ही आत्मा के तीन भेद

विभु विश्व बहिष्प्रज्ञ है, तैजस अन्तःप्रज्ञ है तथा प्रज्ञा घनप्रज्ञ (प्रज्ञानघन) है। इस प्रकार एक ही आत्मा तीन प्रकार से कहा जाता है।

विश्वादि के विभिन्न स्थान

दक्षिण नेत्ररूप द्वार में विश्व रहता है, तैजस मन के भीतर रहता है, प्राज्ञ हृदयाकाश में उपलब्ध होता है। इस प्रकार यह शरीर में तीन प्रकार से स्थित है।

विश्वादि का त्रिविध भोग

विश्व सर्वदा स्थूल पदार्थों को ही भोगने वाला है, तैजस सूक्षम पदार्थों का भोक्ता है तथा प्राज्ञ आनंद को भोगने वाला है; इस प्रकार इनका तीन तरह का भोग जानो।

स्थूल पदार्थ विश्व को तृप्त करता है, सूक्षम तैजस की तृप्ति करने वाला है तथा आनंद प्राज्ञ की; इस प्रकार इनकी तृप्ति भी तीन तरह की समझो।

त्रिविध भोक्ता और भोग्य के ज्ञान का फल

(जागृत, स्वप्न और सुषुप्ति-इन) तीनों स्थानों में जो भोज्य और भोक्ता बतलाये गए हैं- इन दोनों को जो जानता है, वह (भोगों को) भोगते हुए भी उनसे लिप्त नहीं होता।

प्राण ही सबकी सृष्टि करता है

यह सुनिश्चित बात है कि जो पदार्थ विद्यमान होते हैं उन्हीं सब की उत्पत्ति हुआ करती है। बिजात्मक प्राण ही सबकी उत्पत्ति करता है और चेतनात्मक पुरुष चैतन्य के आभासभूत जीवों को अलग-अलग प्रकट करता है।

सृष्टि के विषय में भिन्नभिन्न विकल्प

सृष्टि के विषय में विचार करने वाले दूसरे लोग भगवन की विभूति को ही जगत की उत्पत्ति मानते हैं तथा दूसरे लोगों द्वारा यह सृष्टि स्वप्न और माया के समान मानी गयी है।

कोई-कोई सृष्टि के विषय में ऐसा निश्चय रखते हैं कि ‘प्रभु की सृष्टि है। तथा काल के विष्य मे विचार करने वाले काल से ही जीवों की उत्पत्ति मानते हैं। कुछ लोग ‘सृष्टि भोग के लिये है’ ऐसा मानते हैं और कुछ ‘क्रीडा के लिये है’ ऐसा समझते हैं। (परंतु वास्तव मे तो) यह भगवान का स्वभाव ही है क्योंकि पूर्ण काम को इच्छा ही क्या हो सकती है?

तुरीय क़ा स्वरूप

(विवेकीजन) तुरीय को ऐसा समझते हैं कि वह न तो अन्तःप्रज्ञ है, न बहिष्प्रज्ञ है, न उभयतः (अन्तरबहि)- प्रज्ञ है, ना प्रज्ञानघन है, न प्रज्ञ है न अप्रज्ञ है बल्कि अदृष्ट, अव्यवहार्य, अग्राह्य, अलक्षण, अचिन्त्य, अव्यपदेश्य, एकात्मप्रत्यसार, प्रपञ्च क़ा उपशम, शांत, शिव और अद्वैतरूप है। वही आत्मा है और वही साक्षात जानने योग्य है।

तुरीय क़ा प्रभाव

तुरीय आत्मा सब प्रकार के दुखों की निवृत्ति मे ईशान – प्रभु (समर्थ) है। वह अविकारी, सब पदार्थों क़ा अद्वैतरूप, देव, तुरीय और व्यापक माना गया है।

विश्व और तैजस से तुरिया क़ा भेद

विश्व और तैजस-ये दोनों कार्य और कारण से बांधे हुये माने जाते हैं; किन्तु प्रगा केवल कारणावस्था से ही बद्ध है। तथा तुरीय मे तो ये दोनों ही नहीं है।

प्राज्ञ से तुरीय क़ा भेद

प्राज्ञ तो ना अपने को, न पराये को और न सत्य को अथवा अनृत को ही जानता है किन्तु वह तुरीय सर्वदा सर्वदृक है।

द्वैत का अग्रहण् तो प्राज्ञ और तुरिया दोनो को ही समान है, किन्तु प्राज्ञबीज स्वरूपा निद्रा से युक्त है और तुरीय मे वह निद्रा है नहीं।

तुरीय क़ा स्वप्ननिद्रा शून्यत्व

विश्व और तैजस-ये स्वप्न और निद्रा से युक्त हैं तथा प्राज्ञ स्वप्न रहित निद्रा से युक्त है; किन्तु निश्चित पुरुष तुरीय मे न निद्रा ही देखते हैं और न स्वप्न ही।

अन्यथा ग्रहण करने से स्वप्न होता है तथा तत्व को न जानने से निद्रा होती है और इन दोनों विपरीत ज्ञानों क़ा क्षय हो जाने पर तुरीय पद की प्राप्ति होती है।

बोध कब होता है?

जिस समय अनादि माया से सोया हुआ जीव जागता है उसी समय उसे अज, अनिद्र और स्वप्नरहित अद्वैत आत्मतत्त्व क़ा बोध होता है।

प्रपंच का अत्यन्ताभाव

प्रपंच यदि होता तो निवृत हो जाता- इसमें संदेह नहीं। किन्तु (वास्तव में) यह द्वैत तो मायामात्र है, परमार्थतः तो अद्वैत ही है।

गुरुशिष्यादि विकल्प व्यवहारिक है

इस विकल्प की यदि किसी ने कल्पना की होती तो यह निवृत भी हो जाता। यह वाद तो उपदेश के ही लिए है। आत्मज्ञान हो जेन पर द्वैत नहीं रहता।

आत्मा और उसके पादों के साथ ओंकार और उसकी मात्राओं का तादात्म्य

वह यह आत्मा अक्षर दृष्टि से ओंकार है; वह मात्राओं को विषय करके स्थित है। पाद ही मात्रा है और मात्रा ही पाद है; वे मात्रा अकार, उकार और मकार है।

अकार और विश्व का तादात्म्य

जिसका जागृत स्थान है वह वैश्वानर व्याप्ति और आदिमत्त्व के कारण (ओंकार की) पहली मात्र अकार है। जो उपासक इस प्रकार जानता है वह सम्पूर्ण कामनाओं को प्राप्त कर लेता है और आदि होता है।

उकार और तैजस का तादात्म्य

स्व्प्न जिसका स्थान ऐ वह तैजस उत्कर्ष तथा मध्यवर्तित्व के कारण ओंकार की द्वितीय मात्रा उकार है। जो उपासक ऐसा जानता है वह अपनी ज्ञान संतान का उत्कर्ष करता है, सबके प्रति समान होता है और उसके वंश में कोई ब्रह्मज्ञान हीं पुरुष नहीं होता।

मकार और प्राज्ञ मान और लय के कारण ओंकार की तीसरी मात्रा मकार है। जो उपासक ऐसा जानता है वह इस सम्पूर्ण जगत का मान-प्रमाण कर लेता है और उसका लय स्थान हो जाता है।

इसी अर्थ में ये श्लोक भी है

जिस समय विश्व का अत्व – अकारमात्रत्व बतलाना इष्ट हो, अर्थात वह अकार मात्रारूप है ऐसा जाना जाय तो उनके प्राथमिकत्व की समानता स्पष्ट ही है तथा उनकी व्याप्तिरूप समानता भी स्फुट ही है।

तैजस को उकार रूप जानने पर अर्थात तैजस उकार मात्रा रूप है ऐसा जानने पर उनका उत्कर्ष दिखायी देता है। तथा उनका उभयत्व भी स्पष्ट ही है।

प्राज्ञ की मकार रूपता में अर्थात प्राज्ञ मकार मात्रा रूप है- ऐसा जानने में उनकी मान करने की समानता स्पष्ट है। इसी प्रकार उनमे लय स्थान होने की समानता भी स्पष्ट ही है।

ओंकारोपासना का प्रभाव

जो पुरुष तीनों स्थानों में तुल्यता अथवा समानता को निश्चय पूर्वक जानता है वह महामुनि समस्त प्राणियों का पूजनीय और वंदनीय होता है।

अमात्र और आत्मा का तादात्म्य

मात्रा रहित ओंकार तुरीय आत्मा ही है। वह अव्यवहार्य, प्रपंचोपशम, शिव और अद्वैत है। इस प्रकार ओंकार आत्मा ही है। जो उसे इस प्रकार जानता है वह स्वतः अपने आत्मा में ही प्रवेश कर जाता है।

समस्त और व्यस्त ओंकारोपासना

ओंकार को एक-एक पाद करके जेन; पाद ही मात्राएँ हैं – इसमें संदेह नहीं। इस प्रकार औंकार को पादकर्म से जानकार कुछ भी चिंतन न करें।

चित्त को ओंकार में समाहित करे; ओंकार निर्भय ब्रह्मपद है। ओंकार में नित्य समाहित रहने वाले पुरुष को कहीं भी भय नहीं होता।

ओंकार ही परब्रह्म है और ओंकार ही अपरब्रह्म माना गया है। वह ओंकार अपूर्व(अकारण), अंतर्बाह्य शुन्य, अकार्य तथा अव्यय है।

प्रणव ही सबका आदि, मध्य और अंत है। प्रणव को इस प्रकार जानने के अनन्तर तद्रूपता को प्राप्त हो जाता है।

प्रणव को ही सबके ह्रदय में स्थित ईश्वर जाने। इस प्रकार सर्वव्यापी ओंकार को जानकर बुद्धिमान पुरुष शोक नहीं करता।

ओंकारार्थज्ञ ही मुनि है

जिसने मात्राहीन, अनंत मात्रावाले, द्वैत के उपशम स्थान और मंगलमय ओंकार को जाना है वाही मुनि है; और कोई पुरुष नहीं।

माण्डूक्योपनिषद वैतथ्य प्रकरण

स्वप्न दृष्ट पदार्थों का मिथ्यात्व

(स्वप्नावस्था मे) सब पदार्थ शरीर के भीतर स्थित होते हैं; अतः स्थान के संकोच के कारण मनीषीगण स्वप्न मे सब पदार्थों का मिथ्यात्व प्रतिपादन करते हैं।

समय की अदीर्घता होने के कारण वह देह से बाहर जाकर उन्हें नहीं देखते तथा जागने पर भी कोई पुरुष उस देश मे विद्यमान नहीं रहता। (इससे भी उसका स्वप्नदृष्ट देश मे ना जाना ही सिद्ध होता है।

श्रुति मे भी रथादि का अभाव युक्तिपूर्वक सुना गया है अतः सिद्ध हुये मिथ्यात्व को ही स्वप्न मे स्पष्ट बतलाते हैं।

जाग्रद दृश्य पदार्थों के मिथ्यात्व मे हेतु

इसी जागृत अवस्था मे भी पदार्थों का मिथ्यात्व है, क्योंकि जिस प्रकार वे वहां स्वप्नावस्था होते हैं उसी प्रकार जागृत मे भी होते हैं। केवल शरीर के भीतर स्थित होने और स्थान के संकुचित होने मे ही स्वप्नदृष्ट पदार्थों का भेद है।

इस प्रकार प्रसिद्ध हेतु से ही पदार्थों मे समानता होने के कारण विवेकी पुरुषों ने स्वप्न और जागृत अवस्थाओं को एक ही बतलाया है।

जो आदि और अंत मे नहीं है वह वर्तमान मे भी वैसा ही है। ये पदार्थ समूह असत के समान होकर भी सत जैसे दिखाई देते हैं।

स्वप्न में उन की सप्रयोजनता में विपरीतता आ जाती है। अतः आदि-अंत युक्त होने कारण वे निश्चय मिथ्या ही माने गए हैं।

जिस प्रकार स्वर्ग निवासियों की अलौकिक अवस्थाएं सुनी जाती है उसी प्रकार यह भी स्थानी का अपूर्व धर्म है उन स्वप्न पदार्थों को यह इसी प्रकार जान कर देखता है। जैसे कि इस लोक मे सुशिक्षित पुरुष (उस मार्ग से जाकर अपने अभीष्ट लक्ष्य पर पहुंच कर उसे देखता है।

स्वप्न मे मनः कल्पित और इन्द्रिय ग्राहीय दोनों ही प्रकार के पदार्थ मिथ्या हैं।

जागृत मे भी दोनों प्रकार के पदार्थ मिथ्या है

इसी प्रकार जाग्रदवस्था में भी चित्त के भीतर कल्पना किया हुआ पदार्थ असत तथा चित्त से बहार ग्रहण किया हुआ पदार्थ सत समझा जाता है। परन्तु इन दोनों ही का मिथ्यात्व मानना उचित है।

इन मिथ्या पदार्थों की कल्पना करने वाला कौन है?

यदि दोनों ही स्थानो के पदार्थों का मिथ्यात्व है तो इन पदार्थों को जानता कौन है और कौन इनकी कल्पना करने वाला है?

इनकी कल्पना करने वाला और इनका साक्षी आत्मा ही है

स्वयं प्रकाश आत्मा – अपनी माया से स्वयं ही कल्पना करा है और वाही सब भेदों को जानता है – यही वेदांत का निश्चय है।

पदार्थ कल्पना की विधि

प्रभु आत्मा अपने अन्तःकरण में स्थित अन्य भावों को नानारूप करता है तथा बहिष्चित्त होकर पृथिवी आदि नियत और अनियत पदार्थों की भी इसी प्रकार कल्पना करता है।

आंतरिक और बाह्य दोनों प्रकार के पदार्थ मिथ्या है

जो आंतरिक पदार्थ केवल कल्पना काल तक ही रहने वाले हैं और जो बाह्य पदार्थ द्विकलिक हैं वे सभी कल्पित हैं। उनकी विशेषता का कोई दूसरा कारण नहीं है।

आंतरिक और बाह्य पदार्थों का भेद केवल इन्द्रियजनित है

जो आंतरिक पदार्थ हैं वे अव्यक्त ही हैं और जो बाह्य हैं वे स्पष्ट प्रतीत होने वाले हैं। किन्तु वे सब हैं कल्पित ही। उनकी विशेषता तो केवल इंद्रियों के ही भेद में हैं।

पदार्थ कल्पना की मूल जीव कल्पना है

सबसे पहले जीव की कल्पना करता है; फिर तरह-तरह के बाह्य और आध्यात्मिक पदार्थों की कल्पना करता है। उस जीव का जैसा विज्ञानं होता ही वैसी ही स्मृति भी होती है।

जीव कल्पना का हेतु अज्ञान है

जिस प्रकार निश्चय न की हुई रज्जु अंधकार में सर्प-धारा आदि भावों से कल्पना की जाती है उसी प्रकार आत्मा में भी तरह-तरह की कल्पनाये हो रही है।

अज्ञान निवृत्ति ही आत्मज्ञान है

जिस प्रकार रज्जु का निश्चय हो जेन पर उस्मैन्ह (सर्पादि का) विकल्प निवृत्त हो जाता है तथा ‘यह रज्जु ही है’ ऐसा अद्वैत निश्चय होता है उसी प्रकार आत्मा का निश्चय है।

विकल्प की मूल माया है

यह जो इन प्राणादि अनंत भावों से विकल्पित हो रहा है सो यह उस प्रकाशमय आत्मदेव की माया ही है, जिससे कि वह स्वयं ही मोहित हो रहा है।

मूलतत्त्व सम्बन्धी विभिन्न मतवाद

प्राणोपासक कहते है – ‘प्राण ही जगत का कारण है।’ भूतज्ञों (प्रत्यक्ष वादी चार्वाकादि) का कथन है – ‘पृथ्वी आदि) चार भूत ही परमार्थ हैं।’ गुणों को जानने वाले (सांख्यवादी) कहते हैं – ‘(आत्मा, अविद्या और शिव -ये तीन) तत्त्व ही जगत के प्रवतक हैं।’

पादवेत्ता कहते हैं – ‘विश्व आदि पाद ही सम्पूर्ण व्यवहार के हेतु हैं। (वात्स्यायनादि) विषयज्ञ कहते हैं – ‘शब्दादि विषय ही सत्य वस्तु है।’ लोक वेत्ताओं (पौराणिकों) का कहना है कि लोक ही सत्य है तथा देवोपासक कहते हैं – ‘इन्द्रादि देवता ही सृष्टि के संचालक हैं’

वेदज्ञ कहते हैं ‘ऋगादि चार वेद ही परमार्थ हैं।’ याज्ञिक कहते हैं कि ‘यज्ञ ही संसार के आदिकारण हैं।’ भोक्ता को जानने वाले भोक्ता की ही प्रधानता बतलाते हैं तथा भोज्य के समर्थक भोज्य पदार्थों की ही सारवत्ता का प्रतिपादन करते हैं।

सूक्षमवेत्ता कहते हैं  ‘आत्मा सूक्षम (अनुप्रमाण) है।’ स्थूलवादी (चार्वाकादि) कहते हैं – ‘वह स्थूल है। ‘ मूर्त्तवादी (साकारोपासक) कहते हैं कि परमार्थ वास्तु मूर्तिमान है।’ तथा अमूर्त्तवादियों (शून्यवादियों) का कथन है कि वह मूर्त्तिहीन हैं।

कालज्ञ (ज्योतिषी लोग) कहते हैं कि काल ही परमार्थ है। दिशाओं के जानने वाले (स्वरोदय शास्त्री) कहते है कि दिशाएं ही सत्य वास्तु है।’ वादवेत्ता (धातुवाद, मंत्रवाद आदि) कहते हैं कि वाद ही सत्य वस्तु है। तथा भुवनकोश के ज्ञाताओं का कथन है कि भुवन ही परमार्थ है। मनोविद कहते हैं -‘मन ही आत्मा है’ बौद्धों का कहना है कि बुद्धि ही आत्मा है, चित्तज्ञों का विचार है कि चित्त ही सत्यवस्तु है; तथा धर्माधर्मवेत्ता (मीमांसक) “धर्माधर्म को ही परमार्थ मानते हैं।”

कोई (सांख्यवादी) पच्चीस तत्त्वों को, कोई (पातञ्जलामतावलम्बी) छब्बीस को और पाशुपत इकत्तीस तत्वों को सत्य मानते हैं तथा अन्य मतावलम्बी परमार्थ को अनंत भेदों वाला मानते हैं। लौकिक पुरुष लोकानुरंजन को और आश्रमवादी आश्रमों को ही प्रधान बतलाते हैं। लिंगवादी स्त्रीलिंग, पुलिंग और नपुंसकलिंग को तथा दूसरे लोग पर और अपर ब्रह्म को ही परमार्थ मानते हैं।

सृष्टिवेत्ता कहते हैं कि सृष्टि ही सत्य है, लयवादी कहते हैं कि लय ही परमार्थ वास्तु है तथा स्थितिवेत्ता कहते हैं कि स्थिति ही सत्य है। इस प्रकार ये (कहे हुए और बिना कहे हुए) सभी वाद इस आत्मतत्व में सर्वदा कल्पित हैं। (गुरु) जिसे जो भाव दिखला देता है वह उसी को आत्मस्वरूप से देखने लगता है तथा इस प्रकार देखने वाले उस व्यक्ति की वह भाव तद्रूप होकर रक्षा करने लगता है। फिर उस में होने वाला अभिनिवेश उस (के आत्मभाव) को प्राप्त हो जाता है।

आत्मा सर्वाधिष्ठान है ऐसा जानने वाला ही परमार्थदर्शी है

(इस प्रकार सब का अधिष्ठान होने के कारण) इन प्राणादि अपृथग भावों से (पृथक न होने पर भी अज्ञानियों द्वारा) यह आत्मा भिन्न ही माना गया है। इस बात को जो वास्तविक रूप से जानता है वह निशंक होकर (वेदार्थ की) कल्पना कर सकता है।

द्वैत असत्यत्व वेदांत वेद्य है

जिस प्रकार स्वप्न और माया देखे गए हैं तथा जैसा गन्धर्व नगर जाना गया है, उसी प्रकार विचक्षण पुरुषों ने वेदान्तों में इस जगत को देखा है।

परमार्थ क्या है?

न प्रलय है, न उत्पत्ति है, न बद्ध है, न साधक है, न मुमुक्षु है और न मुक्त ही है – यही परमार्थता है।

अद्वैतभाव ही मंगलमय है

यह (आत्मतत्त्व) प्राणादि असद्भावों से और अद्वैत रूप से कल्पित है। वे असद्भाव भी अद्वैत से ही कल्पना किये गए है। इसलिए अद्वैतभाव ही मंगलमय है।

तत्त्ववेत्ता की दृष्टि के नानात्व का अत्यन्ताभाव है

यह नानात्व न तो आत्मस्वरूप से है और न अपने ही स्वरूप से कुछ है। कोई भी वास्तु न तो ब्रह्म से पृथक है और न अपृथक ही – ऐसा तत्त्ववेत्ता जानते हैं।

इस रहस्य के साक्षी कौन थे?

जिनके राग, भय, और क्रोध निवृत्त हो गए हैं उन वेड के पारगामी मुनियों द्वारा ही यह निर्विकल्प प्रपंचोपशम अदव्य तत्त्व देखा गया है।

तत्त्वदर्शन का आदेश

इसलिए इस (आत्मतत्व) को ऐसा जानकार अद्वैत में मनोनिवेश करे और अद्वैत तत्त्व को प्राप्त कर लोक में जड़वत व्यवहार करें।

तत्त्वदर्शी का आचरण

यति को स्तुति, नमस्कार और स्वधाकार (पैत्रकर्म) से रहित हो चल (शरीर) और अचल (आत्मा) में ही विश्राम करने वाला होकर यादृच्छिक (अनयासलब्ध वस्तु द्वारा संतुष्ट रहने वाला) हो जाना चाहिए।

अविचल तत्त्व निष्ठा का विधान

(फिर वह विवेकी पुरुष) आध्यात्मिक तत्त्व को देखकर और बाह्य तत्त्व का भी अनुभव कर, तत्विभूत और तत्व में ही रमन करने वाला होकर तत्व से च्युत न हो।

माण्डूक्योपनिषद अद्वैत प्रकरण

माण्डूक्योपनिषद अलातशांति प्रकरण

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