प्रश्नोपनिषद – Prashna Upanishad
प्रश्नोपनिषद (Prashnopanishad PDF) अथर्ववेदीय शाखा के अन्तर्गत एक उपनिषद है। यह उपनिषद संस्कृत भाषा में लिखित है। इसके रचियता वैदिक काल के ऋषियों को माना जाता है परन्तु मुख्यत वेदव्यास जी को कई उपनिषदों का लेखक माना जाता है। स उपनिषद् के प्रवक्ता आचार्य पिप्पलाद थे जो कदाचित् पीपल के गोदे खाकर जीते थे।
शान्तिपाठ
ॐ भद्रं कर्नेभि श्रृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्रा:।
स्थिरैरंगैस्तुष्टुवासस्नुभिर्व्यशेम देवहितं यदायु॥
ॐ शान्तिः! शान्तिः! शान्तिः!!!
प्रश्नोपनिषद को छः भाग में बांटा गया है
प्रथम प्रश्न
२ सम्बन्ध भाष्य
३ सुकेश आदि की गुरुपसत्ति
भारद्वाजनंदन सुकेशा, शिबिकुमार सत्यकाम, गर्गगोत्र में उत्पन्न हुआ सौर्यायणी (सूर्य का पोता), अश्वलकुमार कौसल्य, विदर्भदेशीय भार्गव और कत्य के पोते का पुत्र कबन्धी-ये अपर ब्रह्म की उपासना करने वाले और तदनुकूल अनुष्ठान में तत्पर छः ऋषिगण परब्रह्म के जिज्ञासु होकर भगवान पिप्पलाद के पास, यह सोचकर कि हमें उसके विषय में सब कुछ बतला देंगे, हाथ में समिधा लेकर गए।
कहते हैं, उस ऋषि ने उनसे कहा-‘तपस्या, ब्रह्मचर्य और श्रद्धा से युक्त होकर एक वर्ष और निवास करो; फिर अपने इच्छानुसार प्रश्न करना, यदि मैं जानता होऊंगा तो तुम्हें सब बतला दूंगा।
४ कबन्धी का प्रश्न–प्रजा किससे उत्पन्न होती है ?
तदनन्तर (एक वर्षगुरुकुल्वास करने के पश्चात्) कात्यायन कबन्धी ने गुरूजी के पास जाकर पूछा – ‘भगवन्! यह साडी प्रजा किससे उत्पन्न होती है?
५ रवि और प्राण की उत्पत्ति
उस से उस पिप्पलाद मुने ने कहा-‘प्रसिद्द है कि प्रजा उत्पन्न करने की इच्छा वाले प्रजापति ने तप किया। उसने ताप करके रयि और प्राण यह जोड़ा उत्पन्न किया (और सोचा) ये दोनों ही मेरी अनेक प्रकार की प्रजा उत्पन्न करेंगे।
६ आदित्य और चंद्रमा में प्राण और रयि दृष्टि
निश्चय आदित्य ही प्राण है और रयि ही चंद्रमा है। यह जो कुछ मूर्त (स्थूल) और अमूर्त (सूक्षम)है सब रयि ही है; अतः मूर्ती ही रयि है। जिस समय सूर्य उदित होकर पूर्व दिशा में प्रवेश करता है तो उसके द्वारा वह पुर्व दिशा के प्राणों को अपनी किरणों में धारण करता है। इसी प्रकार जिस समय वह दक्षिण, पश्चिम, उत्तर, नीचे, ऊपर और अवांतर दिशाओं को प्रकाशित करता है उससे भी वह उन सबके प्राणों को अपनी किरणों में धारण करता है।
वह यह (भोक्ता) वैश्वानर विश्वरूप प्राण अग्नि ही प्रकट होता है। यही बात ऋक ने भी कही है। सर्व रूप, रश्मिवान, ज्ञानसम्पन्न, सबके आश्रय, ज्योतिर्मय, अद्वितीय और तपते हुए सूर्य को (विद्वानों ने अपनी आत्मा रूप से जाना है) यह सूर्य सहस्त्रों किरणों वाला, सैकड़ों प्रकार से वर्तमान और प्रजाओं के प्राण रूप से उदित होता है।
७ संवात्सरादी में प्रजापति आदि दृष्टि
संवत्सर ही प्रजापति है; उसके दक्षिण और उत्तर दो अयन है। जो लोग इष्टापूर्तरूप कर्ममार्ग का अवलंबन करते हैं वे चंद्रलोक पर ही विजय पते हैं और वे ही पुनः आवागमन को प्राप्त होते है, अतः ये संतानेच्छु ऋषि लोग दक्षिण मार्ग को ही प्राप्त करते हैं। (इस प्रकार) जो पितृयाण है वही रयि है।
तथा ताप, ब्रह्मचर्य, श्रद्धा और विद्या द्वारा आत्मा की खोज करते हुए वे उत्तरमार्ग द्वारा सूर्य लोक को प्राप्त करते हैं। यही प्राणों का आश्रय है; यही अमृत है, यही अभय है और यही परा गति है। इससे फिर नहीं लौटते; अतः यही निरोधस्थान है। इस विषय में यह (अगला) मन्त्र है।
८ आदित्य का सर्वाधिष्ठानत्व
अन्य काल्वेत्तागण इस आदित्य को पांच पैरों वाला, सबका पिता, बारह आकृतियों वाला, पुरीषी (जलवाला) और द्युलोक के परार्द्ध में स्थित बतलाते हैं तथा ये अन्य लोग उसे सर्वज्ञ और उस सात चक्र और छः अरेवाले में ही इस जगत को अर्पित बतलाते हैं।
९ मासादि में प्रजापति आदि दृष्टि
मास ही प्रजापति है। उसका कृष्णपक्ष ही रयि है और शुक्लपक्ष प्राण है। इसलिए ये (प्राणोंपासक) ऋषिगण शुक्लपक्ष में ही यज्ञ करते हैं।
१० दिन–रात का प्रजापतित्व
दिन रात भी प्रजापति है। उनमें दिन ही प्राण है और रात्रि ही रयि है। जो लोग दिन के समय रति के लिए (स्त्री से) संयुक्त होते हैं वे प्राण की ही हानि करते हैं और जो रात्रि के समय रति के लिए (स्त्री से) संयोग करते हैं वह तो ब्रह्मचर्य ही है।
११ अन्न का प्रजापतित्व
अन्न ही प्रजापति है; उसी से वह वीर्य होता है और उस वीर्य ही से यह सम्पूर्ण प्रजा उत्पन्न होती है।
१२ प्रजापतित्व का फल
इस प्रकार जो भी उस प्रजापति व्रत का आचरण करते हैं वे (कन्या पुत्र रूप) मिथुन को उत्पन्न करते हैं। जिनमें कि तप और ब्रह्मचर्य है तथा जिनमें सत्य स्थित है उन्हीं को यह ब्रह्मलोक प्राप्त होता है।
१३ उत्तरमार्गावलम्बियों की गति
जिनमें कुटिलता, अनृत और माया(कपट)नहीं है उन्हें यह विशुद्ध ब्रह्मलोक प्राप्त होता है।
द्वितीय प्रश्न
17 प्राण का सर्वाश्रयत्व
जैसे रथ की नाभि में अरे लगे रहते हैं उसी तरह ऋक, यजु, साम, यज्ञ तथा क्षत्रिय और ब्राह्मण – ये सब प्राण में ही स्थित हैं।
18 प्राण की स्तुति
हे प्राण! तू ही प्रजापति है, तू ही गर्भ में संचार करता है और तू ही जन्म ग्रहण करता है। यह (मनुष्यादि) सम्पूर्ण प्रजा तुझे ही बलि समर्पण करती है। क्योंकि तू समस्त इन्द्रियों के साथ स्थित रहता है।
तू देवताओं के लिए वहीँतम है, पित्रिगन के लिए प्रथम स्वधा है और अथर्वाङ्गिरस ऋषियों (यानी च्चाक्शु आदि प्राणों) – के लिए सत्य आचरण है।
हे प्राण! तू इंद्र है, अपने (संहारक) तेज के कारण रूद्र है, और (सौम्यरूप से) सब और से रक्षा करने वाला है। तू ज्योतिर्गण का अधिपति सूर्य है और अन्तरिक्ष में संचार करता है।
हे प्राण! जिस समय तू मेघरूप होकर बरसता है उस समय तेरी यह सम्पूर्ण प्रजा यह समझकर कि ‘अब यथेच्छ अन्न होगा’ आनंदरूप से स्थित होती है।
हे प्राण! तू व्रात्य, (संस्कारहीन) एकर्षि नामक अग्नि, भोक्ता और विश्व का सत्पति है, हम तेरा भक्ष्य देने वाले हैं। हे वायो! तू हमारा पिता है।
तेरा जो स्वरूप वाणी में स्थित है तथा जो श्रोत, नेत्र और मन में व्याप्त है उसे तू शांत कर। तू उत्क्रमण न कर।
यह सब तथा स्वर्गलोक में जो कुछ स्थित है वह प्राण के ही अधीन है। जिस प्रकार माता पुत्र की रक्षा करती है उसी प्रकार तू हमारी रक्षा कर तथा हमें श्री और बुद्धि प्रदान कर। 14 भार्गव का प्रश्न – प्रजा के आधारभूत कौन-कौन से देवता हैं?
तदनन्तर उन पिप्पलाद मुनि से विदर्भदेशीय भार्गव ने पूछा – ‘भगवन! इस प्रजा को कितने देवता धारण करते हैं? उनमें से कौन-कौन इसे प्रकाशित करते हैं? और कौन उनमें सर्वश्रेष्ठ है?
15 शरीर के आधारभूत – आकाशादि
तब उस से आचार्य पिप्पलाद ने कहा-वह देव आकाश है। वायु, अग्नि,जल , पृथ्वी, वाक् (सम्पूर्ण कर्मेन्द्रियाँ), मन (अंतःकरण) और चक्षु (ज्ञानेन्द्रिय समूह) {ये भी देव ही है}। वे सभी अपनी महिमा को प्रकट करते हुए कहते हैं – ‘हम ही इस शरीर को आश्रय देकर धारण करते हैं।’
16 प्राण का प्राधान्य बताने वाली आख्यायिका
(एक बार) उनसे सर्वश्रेष्ठ प्राण ने कहा – ‘तुम मोह को प्राप्त मत होओ; मैं ही अपने को पञ्च प्रकार से विभक्त कर इस शरीर को आश्रय देकर धारण करता हूँ। किन्तु उन्होंने उसका विश्वास न किया।
17 प्राण का सर्वाश्रयत्व
जैसे रथ की नाभि में अरे लगे रहते हैं उसी तरह ऋक, यजु, साम, यज्ञ तथा क्षत्रिय और ब्राह्मण – ये सब प्राण में ही स्थित हैं।
18 प्राण की स्तुति
हे प्राण! तू ही प्रजापति है, तू ही गर्भ में संचार करता है और तू ही जन्म ग्रहण करता है। यह (मनुष्यादि) सम्पूर्ण प्रजा तुझे ही बलि समर्पण करती है। क्योंकि तू समस्त इन्द्रियों के साथ स्थित रहता है।
तू देवताओं के लिए वहीँतम है, पित्रिगन के लिए प्रथम स्वधा है और अथर्वाङ्गिरस ऋषियों (यानी च्चाक्शु आदि प्राणों) – के लिए सत्य आचरण है।
हे प्राण! तू इंद्र है, अपने (संहारक) तेज के कारण रूद्र है, और (सौम्यरूप से) सब और से रक्षा करने वाला है। तू ज्योतिर्गण का अधिपति सूर्य है और अन्तरिक्ष में संचार करता है।
हे प्राण! जिस समय तू मेघरूप होकर बरसता है उस समय तेरी यह सम्पूर्ण प्रजा यह समझकर कि ‘अब यथेच्छ अन्न होगा’ आनंदरूप से स्थित होती है।
हे प्राण! तू व्रात्य, (संस्कारहीन) एकर्षि नामक अग्नि, भोक्ता और विश्व का सत्पति है, हम तेरा भक्ष्य देने वाले हैं। हे वायो! तू हमारा पिता है।
तेरा जो स्वरूप वाणी में स्थित है तथा जो श्रोत, नेत्र और मन में व्याप्त है उसे तू शांत कर। तू उत्क्रमण न कर।
यह सब तथा स्वर्गलोक में जो कुछ स्थित है वह प्राण के ही अधीन है। जिस प्रकार माता पुत्र की रक्षा करती है उसी प्रकार तू हमारी रक्षा कर तथा हमें श्री और बुद्धि प्रदान कर। 14 भार्गव का प्रश्न – प्रजा के आधारभूत कौन-कौन से देवता हैं?
तदनन्तर उन पिप्पलाद मुनि से विदर्भदेशीय भार्गव ने पूछा – ‘भगवन! इस प्रजा को कितने देवता धारण करते हैं? उनमें से कौन-कौन इसे प्रकाशित करते हैं? और कौन उनमें सर्वश्रेष्ठ है?
15 शरीर के आधारभूत – आकाशादि
तब उस से आचार्य पिप्पलाद ने कहा-वह देव आकाश है। वायु, अग्नि,जल , पृथ्वी, वाक् (सम्पूर्ण कर्मेन्द्रियाँ), मन (अंतःकरण) और चक्षु (ज्ञानेन्द्रिय समूह) {ये भी देव ही है}। वे सभी अपनी महिमा को प्रकट करते हुए कहते हैं – ‘हम ही इस शरीर को आश्रय देकर धारण करते हैं।’
16 प्राण का प्राधान्य बताने वाली आख्यायिका
(एक बार) उनसे सर्वश्रेष्ठ प्राण ने कहा – ‘तुम मोह को प्राप्त मत होओ; मैं ही अपने को पञ्च प्रकार से विभक्त कर इस शरीर को आश्रय देकर धारण करता हूँ। किन्तु उन्होंने उसका विश्वास न किया।
तृतीय प्रश्न
१९ कौसल्य का प्रश्न–प्राण के उत्पत्ति, स्थित और लय आदि
तदन्तर, उन (पिप्पलाद मुनि) से अश्वल के पुत्र कौसल्य ने पूछा – ‘भगवन! यह प्राण कहाँ से उत्पन्न होता है? किस प्रकार इस शरीर में आता है? तथा अपना विभाग करके किस प्रकार स्थित होता है? फिर किस कारण शरीर से उत्क्रमण करता है और किस तरह बाह्य एवं आभ्यंतर शरीर को धारण करता है?
२० पिप्पलाद मुनि का उत्तर
उससे पिप्पलाद आचार्य ने कहा – ‘तू बड़े कठिन प्रश्न पूछता है। परन्तु तू (बड़ा) ब्रह्मवेत्ता है; अतः मैं तेरे प्रश्नों के उत्तर देता हूँ।
२१ प्राण की उत्पत्ति
यह प्राण आत्मा से उत्पन्न होता है। जिस प्रकार मनुष्य-शरीर से यह छाया उत्पन्न होती है उसी प्रकार इस आत्मा में प्राण व्याप्त है तथा यह मनोकृत संकल्पादि से इस शरीर में आ जाता है।
२२ प्राण का इन्द्रियाधिष्ठातृत्व
जिस प्रकार सम्राट ही ‘तुम इन-इन ग्रामों मर रहो’ इस प्रकार अधिकारियों को नियुक्त करता है उसी प्रकार यह मुख्य प्राण ही अन्य प्राणों (इन्द्रियों) को अलग-अलग नियुक्त करता है।
२३ पञ्च प्राणों की स्थिति
वह(प्राण) पायु और उपस्थ में अपां को (नियुक्त करता है) और मुख तथा नासिका से निकलता हुआ नेत्र एवं श्रोत्र में स्वयं स्थित होता है तथा मध्य में समान रहता है। यह (समानवायु) ही खाए हुए अन्न को समभाव से (शरीर में सर्वत्र) ले जाता है। उस [प्राणाग्नि] से ही [दो नेत्र], दो कर्ण, दो नासारंध्र और एक रसना] ये सात ज्वालायें उत्पन्न होती है।
२४ लिंगदेह की स्थिति
यह आत्मा ह्रदय में है। इस ह्रदय देश में एक सौ एक नदियाँ है। उनमें से एक-एक की सौ-सौ शाखाएं हैं और उनमें से प्रत्येक की बहत्तर-बहत्तर हजार प्रतिशाखा नाडिया हैं। इन सबमें व्यं संचार करता है।
२५ प्राणोंत्क्रमण का प्रकार
तथा [इन सब नदियों में से सुषुम्ना नाम की] एक नाडी द्वारा ऊपर की ओर गमन करने वाला उदानवायु (जीव को) पुण्य-कर्म के द्वारा पुण्यलोक को और पाप कर्म के द्वारा पापमय लोक को ले जाता है तथा पूण्य-पाप दोनों प्रकार के (मिश्रित) कर्मों द्वारा उसे मनुष्यलोक को प्राप्त करता है।
२६ बाह्य प्राणादि का निरूपण
निश्चय आदित्य ही बाह्य प्राण है। यह इस चाक्षुक (नेत्रेंद्रियस्थित) प्राण पर अनुग्रह करता हुआ उदित होता है। पृथिवी में जो देवता है वह पुरुष के अपानवायु को आकर्षण किये हुए है। इन दोनों के मध्य में जो आकाश है वह समान है और वायु ही व्यान है।
लोकप्रसिद्ध (आदित्यरूप) तेज ही उड़ान है। अतः जिसका तेज (शारीरिक ऊष्मा) शांत हो जाता है वह मन में लीं हुई इन्द्रियों के सहित पुर्जन्म को (अथवा पुनर्जन्म के हेतुभूत मृत्यु को) प्राप्त हो जाता है।
२७ मरणकालिक संकल्प का फल
इसका जैसा चित्त होता है उसके सहित यह प्राण को प्राप्त होता है। तथा प्राण तेज से (उदानवृत्ति से) संयुक्त हो [उस भोक्ता को] आत्मा के सहित संकल्प किये हुए लोक को ले जाता है।
जो विद्वान् प्राण को इस प्रकार जानता है उसकी प्रजा नष्ट नहीं होती। वह अमर हो जाता है इस विषय में यह श्लोक है।
उत्पत्तिमायन्ति स्थानं विभुत्वं चैव पञ्चधा।
अध्यातमं चैव प्राणस्य विज्ञायामृतमश्नुते।
विज्ञायामृतमश्नुत इति॥
प्राण उत्पत्ति, आगमन, स्थान, व्यापकता एवं बाह्य और आध्यात्मिक भेद से पांच प्रकार की स्थिति जानकार मनुष्य अमरत्व प्राप्त कर लेता है – अमरत्व प्राप्त कर लेता है।
चतुर्थ प्रश्न
२८ गार्ग्य का प्रश्न – सुषुप्ति में कौन सोता है और कौन जागता है
गार्ग्य ऋषि-‘ हे भगवन! इस पुरुष देह में कौन-सी इन्द्री शयन करती है और कौन-सी जाग्रत रहती है? कौन-सी इन्द्री स्वप्न देखती है और कौन-सी सुख अनुभव करती है? ये सब किसमें स्थित है?’
२९ इन्द्रियों का लयस्थान आत्मा है
तब उस से आचार्य ने कहा – ‘हे गार्ग्य! जिस प्रकार सूर्य के अस्त होने पर सम्पूर्ण किरणें उस तेजोमंडल में ही एकत्रित हो जाती है और उसका उदय होने पर फ़ैल जाती है। उसी प्रकार वे सब (इन्द्रियां) परमदेव मन में एकीभाव्व को प्राप्त हो जाती है। इस से तब वह पुरुष न सुनता है, न देखता है, न सूंघता है, न चखता है, न स्पर्श करता है, न बोलता है, न ग्रहण करता है, न आनंद भोगता है, न मलोत्सर्ग करता है और न कोई चेष्टा करता है। तब उसे ‘सोता है’ ऐसा कहते हैं।
३० सुषुप्ति में जागने वाले प्राण–भेद गार्हपत्यादी अग्निरूप है
[सुषुप्तिकाल में] इस शरीर रूप पुर में प्राणाग्नि ही जागते हैं। यह अपान ही गार्हपत्य अग्नि है, व्यं अन्वाहार्यपचन है तथा जो गार्हपत्य अग्नि है, व्यान अन्वाहार्यपचन है तथा जो गार्हपत्य से ले जाया जाता है वह प्राण ही प्रणयन (ले जाये जाने) के कारण आहवनीय अग्नि है।
३१ प्राणाग्नि के ऋत्विक
क्योंकि उच्छ्वास और निःश्वास ये मानो अग्निहोत्र की आहुतियाँ है, उन्हें जो [शरीर की स्थिति के लिए] समभाव से विभक्त करता है वह समान (ऋत्विक है) मन ही निश्चल यजमान है, और इष्टफल ही उदान है; वह उदान इस मनरूप यजमान को नित्यप्रति ब्रह्म के पास पहुंचा देता है।
३२ स्वप्नदर्शन का विवरण
इस स्वप्नावस्था में यह देव अपनी विभूति का अनुभव करता है। इसके द्वारा (जाग्रत-अवस्था में) जो देखा हुआ होता है उस देखे हुए को ही यह देखता है, सुनी-सुनी बैटन को ही सुनता है तथा दिशा-विदिशाओं में अनुभव किये हुए को ही पुनः-पुनः अनुभव करता है। यह देखे, बिना देखे, सुने, बिना अनुभव किये तथा सत और असत सभी प्रकार के पदार्थों को देखता है और स्वयं भी सर्वरूप होकर देखता है।
३३ सुषुप्ति निरूपण
जिस समय यह मन तेज से आक्रांत होता हिया उस समय वह आत्मदेव स्वप्न नहीं देखता। उस समय इस शरीर में यह सुख होता है।
हे सोम्य! जिस प्रकार पक्षी अपने बसेरे के वृक्ष पर जाकर बैठ जाते है उसी प्रकार वह सब (कार्यकरण संघात) सबसे उत्कृष्ट आत्मा में जाकर स्थित हो जाता है। पृथिवी और पृथिवीमात्रा (गंधतन्मात्रा), जल और रसतन्मात्रा, तेज और रूपतन्मात्रा, वायु और स्पर्शतन्मात्रा, आकाश और शब्द तन्मात्रा, नेत्र और द्रष्टव्य(रूप), श्रोत और श्रोतव्य (शब्द), घ्राण और घ्रातव्य (गंध), रसना और रसयितव्य, पायु और विसर्जनीय, पाद और गंतव्य स्थान, मन और मनन करने योग्य, बुद्धि और बोद्धव्य, अहंकार और अहंकार का विषय, चित्त और चेतनीय, तेज और प्रकाशमय पदार्थ तथा प्राण और धारण करने योग्य वास्तु (ये सभी आत्मा में लीन हो जाते हैं)।
३४ सुषुप्ति में जीव की परमात्म प्राप्ति
यही द्रष्टा, स्प्रष्ट, श्रोता, घ्राता, रसयिता, मन्ता(मनन करने वाला), बोद्धा और कर्ता विज्ञानात्मा पुरुष है। वह पर अक्षर आत्मा में सम्यक प्रकार से स्थित हो जाता है।
हे सोम्य! इस छायाहीन, अशरीरी, अलोहित, शुभ्र अक्षर को जो पुरुष जनता है वह पर अक्षर को ही प्राप्त हो जाता है। वह सर्वज्ञ और सर्वरूप हो जाता है।
३५ अक्षरब्रह्म के ज्ञान का फल
हे सोम्य! जिस अक्षर में समस्त देवों के सहित विज्ञानात्मा प्राण और भूत सम्यक प्रकार से स्थित होते है उसे जो जानता है वह सर्वज्ञ सभी में प्रवेश कर जाता है।
पंचम प्रश्न
३६ सत्यकाम का प्रश्न–ओंकारोपासक को किस लोक की प्राप्ति होती है?
तदन्तर उन पिप्पलाद मुनि ने शिबिपुत्र सत्यकाम ने पूछा – ‘भगवन! मनुष्यों में जो पुरुष प्राणप्रयाणपर्यंत इस ओंकार का चिंतन करें, वह उस (ओंकरोपासना) से किस लोक को जीत लेता है?
३७ ओंकारोपासक से प्राप्तव्य पर अथवा अपर ब्रह्म
उस से उस पिप्पलाद ने कहा-हे सत्यकाम! यह जो ओंकार है वही निश्चय पर और अपर ब्रह्म है। अतः विद्वान इसी के आश्रय से उनमें से किसी एक (ब्रह्म) को प्राप्त हो जाता है।
३८ एकमात्राविशिष्ट औंकरोपासना का फल
वह यदि एक मात्राविशिष्ट ओंकार का ध्यान करता है तो उसी से बोध को प्राप्त कर तुरंत ही संसार को प्राप्त हो जाता है। उसे ऋचाएं मनुष्यलोक में ले जाती है। वहां वह ताप, ब्रह्मचर्य और श्रद्धा से संपन्न होकर महिमा का अनुभव करता है।
३९ द्विमात्राविशिष्ट औंकारोपासना का फल
और यदि वह द्विमात्राविशिष्ट ओंकार के छंटन द्वारा मन से एकतत्व को प्राप्त हो जाता है तो उसे यजु श्रुतियां अन्तरिक्षस्थित सोमलोक में ले जाती है तदनंतर सोमलोक में विभूति का अनुभव कर वह फिर लौट आता है।
४० त्रिमात्राविशिष्ट औंकारोपासना का फल
किन्तु जो उपासक त्रिमात्राविशिष्ट ‘ॐ’ इस अक्षर द्वारा इस परम पुरुष की उपासना करता है वह तेजोमय सूर्य लोक को प्राप्त करता है। सर्प जिस प्रकार केंचुली से निकल आता है उसी प्रकार वह पापों से मुक्त हो जाता है। वह साम्श्रुतियों द्वारा ब्रह्मलोक में ले जाया जाता है और जीवनघन से भी उत्कृष्ट ह्रदय स्थित परमपुरुष का साक्षात्कार करता है।
४१ औंकार की तीन मात्राओं की विशेषता
ओंकार की तीनों मात्राएँ (पृथक-पृथक) रहने पर मृत्यु से युक्त है। वे (ध्यान-क्रिया में) प्रयुक्त होती है और परस्पर सम्बद्ध तथा अनविप्रयुक्ता (जिनका विपरीत प्रयोग न किया गया हो – ऐसी) हैं। इस प्रकार बाह्य (जागृत), आभ्यंतर (सुषुप्ति) और माध्यम (स्वप्नस्थानीय) क्रियाओं में उनका सम्यक प्रयोग किया जाने पर ज्ञाता पुरुष विचलित नहीं होता।
४२ ऋगादि वेद और औंकार से प्राप्त होने वाले लोक
साधक ऋग्वेद द्वारा इस लोक को, यजुर्वेद द्वारा अन्तरिक्ष को और सामवेद द्वारा उस लोक को प्राप्त होता है जिसे विज्ञजन जानते हैं। तथा उस ओंकाररूप आलंबन के द्वारा ही विद्वान् उस लोक को प्राप्त होता है जो शांत अजर, अमर, अभय एवं सबसे पर (श्रेष्ठ) है।
षष्ठ प्रश्न
43 सुकेशा का प्रश्न – सोलह कलाओं वाला पुरुष कौन है?
तदनंतर उन पिप्पलादाचार्य से भरद्वाज के पुत्र सुकेश ने पूछा – “भगवन! कोसल देश के राजकुमार हिरण्यनाभ ने मेरे पास आकर यह प्रश्न पुछा था – ‘भारद्वाज! क्या तू सोलह कलाओं वाले पुरुष को जानताहै ?’ तब मैंने उस कुमार से कहा-‘मैं इसे नहीं जानता; यदि मैं इसे जानता होता तो तुझे क्यों न बतलाता? जो पुरुष मथ्य भाषण करता है वह सब और से मूल सहित सूख जाता है; अतः मैं मिथ्या भाषण नहीं कर सकता।’ तब वह चुपचाप रथ पर चढ़कर चला गया। सो अब मैं आपसे उस के विषय में पूछता हूँ कि वह पुरुष कहाँ है?
44 पिप्पलाद का उत्तर–वह पुरुष शरीर में स्थित है
उस से आचार्य पिप्पलाद ने कहा – ‘हे सोम्य! जिस में इन सोलह कलाओं का प्रादुर्भाव होता है वह पुरुष इस शरीर के भीतर ही वर्तमान है।
45 ईक्षणपूर्वकसृष्टि
उसने विचार किया कि किस के उत्क्रमण करने पर मैं भी उत्क्रमण कर जाऊँगा और किस के स्थित रहने पर मैं स्थित रहूँगा?
46 सृष्टिक्रम
उस पुरुष ने प्राण को रचा; फिर प्राण से श्रद्धा, आकाश, वायु, तेज, जल, पृथिवी, इन्द्रिय, मन और अन्न को तथा अन्न से वीर्य, ताप मन्त्र, कर्म और लोकों में नाम को उत्पन्न किया।
47 नदी के दृष्टान से सम्पूर्ण जगत का पुरुषाश्रयत्वप्रतिपादन
वह [दृष्टान्त] इस प्रकार है – जिस प्रकार समुद्र की और बहती हुई ये नदियां समुद्र में पहुँच कर अस्त हो जाती है, उनके नाम-रूप नष्ट हो जाते हैं, और वे ‘समुद्र’ ऐसा कहकर ही पुकारी जाती है। इसी प्रकार इस सर्वद्रष्ट की ये सोलह कलायें, जिनका अधिष्ठान पुरुष ही है, उस पुरुष को प्राप्त होकर लीन हो जाती है। उनके नाम-रूप नष्ट हो जाते हैं और वे ‘पुरुष’ ऐसा कहकर ही पुकारी जाती है। वह विद्वान कलाहीन और अमर हो जाता है।
48 मरण–दुःख की निवृत्ति में परमात्म ज्ञान का उपयोग
जिसमें रथ की नाभि में अरों के सामान सब कलाएं आश्रित हैं, उस ज्ञातत्व पुरुष को तुम जानो; जिससे कि मृत्यु तुम्हें कष्ट न पहुंचा सके।
49 उपदेश का उपसंहार
तब उनसे उस (पिप्पलाद मुनि)-ने कहा – इस परब्रह्म को मैं इतना ही जानता हूँ। इससे अन्य और कुछ (ज्ञातव्य) नहीं है।
50 स्तुतिपूर्वक आचार्य की वंदना
तब उन्होंने उन की पूजा करते हुए कहा – आप तो हमारे पिता है जिन्होंने की हमें अविद्या के दुसरे पार पर पहुंचा दिया है; आप परमर्षि को हमारा नमस्कार है, नमस्कार है।