अथर्ववेद जादू टोना
समाज में फैले अन्धविश्वास को देखते हुए इस जादू टोने, टोटके, तंत्र-मंत्र की मूलजड़ का नाश कर दिया जाये तो समाज अन्धविश्वास से मुक्त हो जायेगा. अथर्ववेद में जादू टोना के विषय में वर्णन हैं और वेद सबसे प्राचीन हैं इसलिए जादू टोने के जड़ भी वेद ही होनी चाहिए. एक सोची समझी साजिश के तहत पाश्चात्य विद्वानों जैसे Maxmuller, Griffith, Bloomfield आदि ने वेदों को गड़रियो के गीत घोषित कर दिया, नास्तिको ने समाय्वाद का सहारा लेते हुए ईश्वर की सत्ता को ही नकार दिया तो इश्वर की वाणी वेद को मानने का अर्थ ही नहीं उठता, .डॉ आंबेडकर जो जातिवाद के महापाप से पीड़ित थे और ब्राह्मणों को टक्कर देने का संकल्प लिए हुए थे ने भी इनका अँधा अनुसरण कर अपनी पुस्तक “Riddles of Hinduism” में अथर्ववेद में जादू टोने का होना घोषित कर दिया.
अथर्ववेद को जादू-टोना, तंत्र-मंत्र का मूल मान जाता है लेकिन यह गलत धारणा पश्चिमी लोगों ने फैलाई है जिसका अनुसरण भारतीय लोगों ने भी किया है। जादू-टोने के स्थान पर अथर्ववेद में आयुर्वेद का वर्णन मिलता है कि किस प्रकार से विभिन्न रोगों का उपचार विभिन्न जड़ी-बुटिओं द्वारा किया जा सकता हैं। अथर्ववेद में बताया गया है कि जिस घर में मूर्खों की पूजा नहीं होती है, जहां विद्वान लोगों का अपमान नहीं होता है बल्कि विद्वान और संत लोगों का उचित मान-सम्मान किया जाता है, वहां समृद्धि और शांति होती है। कर्मप्रथान सफल जीवन जीने की सीख देता है अथर्ववेद।
स्वामी दयानंद ने वेद भाष्य करते समय पाया की सायण- महीधर आदि ने अथर्वेद का भाष्य करते समय मध्यकाल के विनियोगकारों विशेष रूप से कौशिक सूत्र का अनुसरण कर वेदों को जड़ कर्म कांड की पुस्तक बना दिया जिससे वेद के ज्ञान से जन साधारण विमुख हो गयाहैं . इसलिए स्वामी दयानंद ने यास्क रचित निरुक्त आदि का प्रयोग कर वेदों के सही अर्थ करने का क्रांतिकारी कदम उठाया. स्वामी जी अपने जीवन काल में अथर्ववेद का भाष्य तो न कर सके पर उनके बताये नियम से आर्य विद्वानों ने जब अथर्ववेद का भाष्य किया तो उसमे जादू टोने का कहीं भी नामो निशान तक नहीं था. जादू टोने के स्थान पर अथर्ववेद में आयुर्वेद का वर्णन मिला की किस प्रकार से विभिन्न रोगों का उपचार विभिन्न जड़ी- बुटिओं द्वारा किया जा सकता हैं.
हम यहाँ अथर्ववेद के कुछ सूक्तो एवं मंत्रो पर विचार कर यह सिद्ध करेगे की वेदों में जादू टोना या अश्लीलता नहीं हैं.अथर्ववेद के सूक्तों में मणि शब्द का प्रयोग कई स्थानों पर हुआ हैं सायण आदि भाष्यकारों ने मणि का अर्थ वह पदार्थ किया हैं जिसे शरीर के किसी अंग पर बांधकर मंत्र का पाठ करने से अभिष्ट फल के प्राप्ति अथवा किसी अनिष्ट का निवारण किया जादू टोने से किया जा सकता हैं. मणि अथवा रत्न शब्द किसी भी अत्यंत उपयोगी अथवा मूल्यवान वस्तु के लिए हुआ हैं. उस वस्तु को अर्थात मणि को शरीर से बांधने का अर्थ हैं उसे वश में कर लेना, उसका उपयोग लेना, उसका सेवन करना आदि.
कुछ मणि सूक्त इस प्रकार हैं
१. पर्णमणि
अथर्ववेद ३.५ का अर्थ करते हुए सायण आचार्य लिखते हैं “जो व्यक्ति तेज, बल, आयु और धन आदि को प्राप्त करना चाहता हो, वह पर्ण अर्थात दाक के वृक्ष की बनी हुई मणि को त्रयोदशी के दिन दही और सहद में भिगोकर तीन दिन रखे और चौथे दिन निकलकर उस मणि को इस सूक्त के मंत्रो का पाठ करके बांध ले और दही और सहद को खा ले. इसी सूक्त में सायण लिखते हैं की यदि किसी रजा का राज्य छीन जाये तो काम्पील नमक वृक्ष की टहनियों से चावल पकाकर मंत्र का पाठ कर ग्रहण करे तो उसे राज्य की प्राप्ति हो जाएगी “
सायण का अर्थ अगर इतना कारगर होता तो भारत के लोग जो की वेदों के ज्ञान से परिचित थे कभी भी पराधीन नहीं बनते, अगर बनते तो जादू टोना करके अपने आपको फिर से स्वतंत्र कर लेते.
पर्ण का अर्थ होता हैं पत्र और मणि का बहुमूल्य इससे पर्णमणि का अर्थ हुआ बहुमूल्य पत्र.अगर कोई व्यक्ति राज्य का राजा बनना चाहता हैं तो राज्य के नागरिको का समर्थन (vote or veto) जो की बहुमूल्य हैं उसे प्राप्त हो जाये तभी वह राजा बन सकता हैं.इसी सूक्त के दुसरे मंत्र में प्रार्थना हैं की राज्य के क्षत्रियो को मेरे अनुकूल कर, तीसरे मंत्र में राज्य के देव अर्थात विद्वानों को अनुकूल कर, छठे में राज्य के धीवर,रथकार लोग, कारीगर लोग, मनीषी लोग हैं उनके मेरे अनुकूल बनाने की प्रार्थना करी गई हैं. इस प्रकार इस सूक्त में एक अभ्यर्थी की राष्ट्र के नेता बनने की प्रार्थना काव्यमय शैली में पर्ण-मणि द्वारा व्यक्त करी गयी हैं. जादू टोने का तो कहीं पर नामो निशान ही नहीं हैं.
२. जांगिडमणि
अथर्ववेद २.४ तथा १९.३४/३५ सूक्तों में जांगिडमणि की महिमा बताते हुए सायण लिखते हैं “जो व्यक्ति कृत्या (हिंसा) से बचना चाहता हो, अपनी रक्षा चाहता हो तथा विघ्नों की शांति चाहता हो, वह जांगिड पेड़ से बनी विशेष प्रकार की मणि को शण (सन) के धागे में पिरोकर मणि बांधने की विधि से इस सूक्त के मंत्रो को पड़कर बांध ले ” उसका मंतव्य पूर्ण हो जायेगा.
अथर्ववेद के इन सूक्तों का ध्यान से विश्लेषण करने पर पता चलते हैं की जांगिड किसी प्रकार की मणि नहीं हैं जिसको बांधने से हिंसा से रक्षा हो सके अपितु एक औषधि हैं जो भूमि से उत्पन्न होने वाली वनस्पति hein ,जो रोगों का निवारण करने वाली हैं(अथर्व १९.३४.९) ,रोगों की चिकित्सा करने वाली हैं (अथर्व १९.३५.१,अथर्व १९.३५.५,अथर्व २.४.३). इस सूक्त में जो राक्षसों को मरने की बात कहीं गयी हैं वो रोगजनक कृमिरूप (microbes) शत्रु हैं जो रोगी बनाते हैं.
यहाँ भी कहीं अथर्ववेद जादू टोना का नहीं अपितु आयुर्वेद का वर्णन हैं.
३. शंखमणि
अथर्ववेद ४.१० शंखमणि का वर्णन हैं. सायण के अनुसार उपनयन संस्कार के पश्चात बालक की दीर्घ आयु के लिए शंख को इस सूक्त के मंत्रो के साथ बांध दे तथा यह भी लिखा हैं बाढ़ आ जाने पर रक्षा करने के लिए भी शंख बांध लेने से डूबने का भय दूर हो जाता हैं.
सायण का मंतव्य विधान रूप से असंभव हैं अगर शंख बांधने से आयु बढ़ सकती हैं तो सायण ने स्वयं अपनी आयु क्यों नहीं बढाकर १०० वर्ष से ऊपर कर ली. और अगर शंख बांधने से डूबने का खतरा नहीं रहता तब तो किसी की भी डूबने से मृत्यु ही नहीं होती. सत्य यह हैं शंख को अथर्ववेद ४.१०.३ में विश्व भेसज अर्थात अनेक प्रकार के रोगों को दूर करने वाला बताया गया हैं. ४.१०.१ में रोगों को दुर्बल करने वाला बताया गया हैं. ४.१०.२ में शंख को कृमि राक्षस को मरने वाला बताया गया हैं. ४.१०.४ में शंख को आयु बढाने वाली औषधि बताया गया हैं. आयुर्वेद में शंख को बारीक़ पिस कर शंख भस्म बनाए का वर्णन हैं जिससे अनेक रोगों से मुक्ति मिलती हैं.
४. शतवारमणि
अथर्ववेद १९.३६ सूक्त का भाष्य करते हुए सायण लिखते हैं “जिस व्यक्ति की संताने मर जाती हो और इस प्रकार उसके कुल का क्षय हो रहा हो , वह इस सूक्त के मंत्रो को पढकर शतवारमणि को बांध ले तो उसका यह संकट दूर हो जाता हैं “
शतवारमणि कोई जादू टोने करने वाली वास्तु नहीं हैं अपितु एक औषदी हैं जिससे शरीर को बल मिलता हैं और रोगों का नाश होता हैं
ऊपर की पंक्तियो में हमने चार मणियो की समीक्षा पाठको के सम्मुख उपस्थित की हैं. इनमे किसी में भी जादू टोने का उल्लेख नहीं हैं. प्रत्युत चार गुणकारी औषधियो का वर्णन हैं जिनसे रोगनिवारण में बहुत उपयोगी होने के कारण मूल्यवान मणि कह दिया गया हैं.
५. कृत्या और अभिचार
सायण के भाष्य को पढ़ कर लगता हैं की अभिचार शब्द का अर्थ हैं किसी शत्रु को पीड़ा पहुचाने के लिए, उसे रोगी बनाने के लिए अथवा उसकी मृत्यु के लिए कोई विशेष हवन अथवा कर्म काण्ड का करना. कृत्या का अर्थ हैं ऐसे यज्ञ आदि अनुष्ठान द्वारा किसी की हिंसा कर उसे मार डालना.
अभिचार का अर्थ बनता हैं विरोधी द्वारा शास्त्रों से प्रहार अथवा आक्रमण तथा कृत्या का अर्थ बनता हैं उस प्रहार से हुए घाव बनता हैं. मणि सूक्त की औषधियो से उस घाव की पीड़ा को दूर किया जा सकता हैं.
इस प्रकार जहाँ भी वेदों में मणि आदि का उल्लेख हैं वह किसी भी प्रकार जादू टोने से सम्बंधित नहीं हैं. आयुर्वेद के साथ अथर्ववेद का सम्बन्ध कर के विभिन्न औषधियो को अगर देखे तो मणि शब्द से औषदी का अर्थ स्पष्ट हो जाता हैं.
अथर्ववेद को विनियोगो की छाया से मुक्त कर स्वंत्र रूप से देखे तो वेद मंत्र बड़ी सुंदर और जीवन उपयोगी शिक्षा देने वाले दिखने लगेगे और अथर्ववेद में जादू टोना होने के मिथक की भ्रान्ति दूर होगी.